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दैवसिक, रात्रिक एवं पाक्षिक प्रतिक्रमण की विधि
योगशास्त्र तृतीय प्रकाश श्लोक १२९ | समय विधिपूर्वक द्रव्य-भाव दोनों प्रकार से खड़ा हो जाय ।।९।। तत्पश्चात् दो बार वांदणा देकर मंडली में पांच अथवा इससे अधिक साधु हों तो अब्भुट्ठिओ बोलकर तीन से क्षमायाचना करे और बाद में दो वांदणा देकर आयरिय उवज्झाय आदि तीन गाथा बोले ।।१०।। उसके बाद करेमि भंते, इच्छामि ठामि इत्यादि काउस्सग्ग सूत्र कहकर काउस्सग्ग (ध्यान) में स्थित होकर चारित्र के अतिचारों की शुद्धि के लिए दो लोगस्स का चिंतन करे ।। ११ ।। उसके बाद विधिपूर्वक काउस्सग्ग पूर्ण कर सम्यक्त्व की शुद्धि के लिए प्रकट रूप में लोगस्स बोले तथा उसी की शुद्धि के लिए सव्वलोए अरिहंत - चेइयाणं कहकर, उन चैत्यों की आराधना के लिए काउस्सग्ग करे ।। १२ ।। उसमें एक लोगस्स का ध्यान करे, | दर्शनशुद्धि वाले उस काउस्सग्ग को पारकर फिर श्रुतज्ञान की शुद्धि के लिए पुक्खरवर - दीवड्ढे सूत्र बोले ।। १३ ।। फिर | चंदेसु निम्मलयरा तक पच्चीस श्वासोच्छ्वास प्रमाण वाला लोगस्स का काउस्सग्ग करे और विधि पूर्वक पूर्ण करे। उसके | बाद शुभ अनुष्ठान के फल स्वरूप सिद्धाणं बुद्धाणं सिद्धस्तव बोले ।। १४ ।। तदनंतर श्रुत-स्मृति के कारणभूत श्रुतदेवता | का काउस्सग्ग करे; उसमें नवकार मंत्र का ध्यान पूर्ण करके श्रुतदेवता की स्तुति बोले अथवा सुने ।। १५ ।। इस प्रकार | क्षेत्र देवता का भी काउस्सग्ग करे, उसकी स्तुति बोले या सुने। बाद में प्रकट में नवकार मंत्र बोले । 1 फिर संडासा | प्रमार्जनकर नीचे बैठे । । १६ ।। उसके बाद पूर्वोक्त विधि के अनुसार मुहपत्ती - प्रतिलेखन करके दो वंदना देकर इच्छामो अणुसट्ठि कहकर घुटने के सहारे नीचे बैठे ।। १७ । । फिर गुरुमहाराज नमोऽस्तु की एक स्तुति कहें, उसके बाद बढ़ते | अक्षर और बढ़ते स्वर से तीन-स्तुति पूर्ण कहे; तदनंतर शक्रस्तवनमोत्थुणं और स्तवन बोलकर दैवसिक प्रायश्चित्त का | काउस्सग्ग करे || १८ ||2 इस प्रकार दैवसिक प्रतिक्रमण का क्रम पूर्ण हुआ ।
रात्रिक प्रतिक्रमण की विधि भी इसी प्रकार है। इसमें पहले सव्वस्स वि कहकर मिच्छामि दुक्कडं से प्रतिक्रमण की। | स्थापना करके काउस्सग्ग करे ।। १९ ।। उसके बाद विधिपूर्वक चारित्राचार की शुद्धि के लिए काउस्सग्ग में एक लोगस्स का चिंतन करे; फिर दूसरा काउस्सग्ग दर्शनशुद्धि के लिए करे, उसमें भी एक लोगस्स का ध्यान करे ।। २० ।। तीसरे | काउस्सग्ग में क्रमशः रात में लगे हुए अतिचारों का चिंतन करके काउस्सग्ग पूर्ण करे और सिद्धाणं बुद्धाणं बोलकर संडासा - प्रमार्जनकर घुटनों के बल खड़े पैरों से नीचे बैठे ।। २१ ।। पहले कहे अनुसार मुहपत्ती पडिलेहण करे, दो वंदना | देकर रात्रि के अतिचार की आलोचना कहकर वंदित्तसूत्र कहे। उसके बाद दो वांदणा देकर अब्भुट्टिओ सूत्र से क्षमायाचना करे, फिर दो वंदना दे और आयरिअ उवज्झाए की तीन गाथा आदि सूत्र कहकर तप - चिंतन का काउस्सग्ग करे ।। २२ ।। उस काउस्सग्ग में मन में निश्चय करे कि अपनी संयमयात्रा में हानि न पहुंचे इस तरह से मैं छह महीने का तप करूं । उत्कृष्ट छह महीने तप करने की स्वयं की शक्ति न हो ||२३|| तो एक दिन, दो दिन, तीन दिन इस | प्रकार एक-एक दिन कम करते-करते पांच महीने का चिंतन करे। इतना सामर्थ्य न हो तो उसमें भी एक-एक दिन कम करते-करते चार महीने, फिर तीन महीने, दो महीने तक का सोचे। उसका भी सामर्थ्य न हो, तो कम करते-करते एक महीने के तप का चिंतन करे ।। २४ ।। इतना भी सामार्थ्य न हो तो उसमें भी तेरह दिन कम करते हुए चौंतीस भक्त | ( सोलह उपवास रूप) तप का चिंतन करना; वैसे भी शक्ति न हो तो दो-दो भक्त कम करते-करते आखिर चतुर्थभक्त (एक उपवास) तक के तप का चिंतन करना । उस शक्ति के अभाव में आयंबिल आदि से लेकर पोरसी -नमुक्कारसी तक | का चिंतन करे ।। २५ ।। इस तरह चिंतन करते हुए जिस तप को कर सकता है; उस तप का हृदय में निश्चय करके | काउस्सग्ग पूर्ण करे। फिर प्रकट में लोगस्स कहे । तदनंतर मुहपत्ति - पडिलेहण करे। दो वंदना देकर निष्कपट भाव से | मन में धारण किया हो, उस तप का गुरु से पच्चक्खाण ग्रहण करे ।। २६ ।। बाद में इच्छामो अणुसट्ठि बोलकर नीचे | बैठकर विशाल - लोचन - दल की तीन स्तुति मंदस्वर से बोले, बाद शक्रस्तव आदि से देववंदन करे ।। २७ ।। पाक्षिक प्रतिक्रमण चर्तुदशी के दिन करना चाहिए, उसमें पूर्ववत्
वंदित्तु सूत्र दैवसिक प्रतिक्रमण करे, उसके बाद
| सम्यग् रूप से पाक्षिक प्रतिक्रमण इस क्रम से करे ।। २८ ।। प्रथम पक्खी मुहपत्ती पडिलेहणकर दो वांदणा दे, बाद में
1. ये दोनों कायोत्सर्ग चतुर्थ स्तुति के प्रचलन के बाद आ गये थे, इसलिए यहां उसका भी वर्णन आया है।
2. इसके रचना काल तक सज्झाय, कायोत्सर्ग एवं लघुशांति या बृहद शांति का प्रवेश नहीं हुआ था ।
3. यहां पर भी उत्कृष्ट, मध्यम, जघन्य कौन सा देववंदन करे यह स्पष्ट नहीं कहा।
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