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कायोत्सर्ग के दोष
योगशास्त्र तृतीय प्रकाश श्लोक १२९ संबद्धा क्षामणा कर पाक्षिक अतिचार की आलोचना करे; फिर दो वांदणा देकर प्रत्येक क्षामणा कर क्षमायाचना करना, बाद में दो वांदणा देकर पाक्षिक सूत्र कहे ।।२९।। उसके बाद वंदित्तु सूत्र बोले; उसमें अब्भुढिओमि आराहणाए पद बोलते हुए खड़े होकर वंदित्तु सूत्र पूर्ण करके बाद में काउस्सग्ग करे। उसके बाद मुहपत्ती पडिलेहण कर दो वांदणा देकर समत्त-समाप्त क्षामणा और चार थोभ वंदना करे ॥३०।। उसके बाद पूर्व-विधि-अनुसार शेष रहा दैवसिक प्रतिक्रमण पूर्ण करे। परंतु श्रुतदेवता के स्थान पर भुवनदेवता का काउस्सग्ग करे और स्तवन के स्थान पर अजित शांतिस्तव कहे, इतना-सा अंतर समझ लेना चाहिए ।।३१।। इस तरह पाक्षिक विधि के अनुसार क्रमशः चातुर्मासिक और सांवत्सरिक प्रतिक्रमण-विधि जानना। केवल उसमें जिस-जिस प्रकार का प्रतिक्रमण हो, उसका नाम कहना ।।३२।। तथा उनके काउस्सग्ग अनुक्रम से बारह, बीस और नवकारमंत्र-सहित द्रव्य से चालीस लोगस्स करना और संबुद्धाक्षमणा आदि में तीन, पांच और साधुओं को यथाक्रम से अब्भुट्ठिओमि का खामणा करना ।।३३।। प्रतिक्रमण में वंदित्तु सूत्र का विवेचन ग्रंथ विस्तृत हो जाने के भय से यहां नहीं कर रहे हैं।
कायोत्सर्ग - (काउस्सग्ग) का अर्थ है-शरीर का त्याग करना। उसका विधान यह है कि शरीर से जिनमुद्रा में खड़े होकर अथवा अपवाद रूप वृद्धता-ग्लानत्व आदि कारणवश एकाग्रतापूर्वक स्थिर होकर बैठना। शब्द से मौन धारण करना और मन से शुभध्यान करना। श्वासोच्छ्वासादि अनिवार्य शारीरिक चेष्टाओं के सिवाय-मन-वचन-काया की समग्र प्रवृत्तियों का त्याग करना कायोत्सर्ग कहलाता है। वह काउस्सग्ग जितने श्वासोच्छावास का हो, उतने प्रमाण में नवकार या लोगस्स का चिंतन करे। उसके पूर्ण होने पर नमो अरिहंताणं का उच्चारण करना। वह कायोत्सर्ग दो प्रकार का है-एक चेष्टा (प्रवृत्ति) वाला और दूसरा उपसर्ग (पराभव) के समय में; जाने-आने आदि की प्रवृत्ति के लिए। इरियावहि आदि का प्रतिक्रमण करते समय जो काउस्सग्ग किया जाता है, वह चेष्टा (प्रवृत्ति) के लिए जानना और जो उपसर्ग-विजय के लिए किया जाता है, वह पराभव के लिए जानना। कहा है कि चेष्टा और पराभव की दृष्टि से कायोत्सर्ग के दो भेद हैं। भिक्षा के लिए जो प्रवृत्तियां की जाती है, वे चेष्टा-कायोत्सर्ग के अंतर्गत आती है एवं उपसर्ग
वह पराभव के अंतर्गत आता है। चेष्टा-कायोत्सर्ग जघन्य आठ से लेकर पच्चीस, सत्ताईस, तीन सौ, पांच सौ और ज्यादा से ज्यादा एक हजार आठ श्वासोच्छ्वास प्रमाण वाला होता है। और उपसर्ग आदि पराभव के लिए जो कायोत्सर्ग किया जाता है वह एक मुहूर्त से लेकर बाहुबलि के समान एक वर्ष तक का भी होता है। वह काउस्सग्ग तीन प्रकार की मुद्रा से होता है-खड़े-खड़े, बैठे-बैठे और सोये-सोये भी होता है। इन तीनों के प्रत्येक के चार-चार भेद हैं। उसमें से पहला प्रकार है-उच्छ्रितोच्छ्रित है। अर्थात् द्रव्य और भाव दोनों प्रकार से खड़े होना अर्थात् द्रव्य से शरीर से खड़े होना और भाव से धर्म या शुक्लध्यान में खड़े (स्थिर) होना। दूसरा-उच्छ्रितोनुच्छ्रित है। अर्थात् द्रव्य से खड़े रहने के लिए उच्छ्रित और भाव से कृष्णादि अशुभलेश्या (परिणाम) के होने से अनुच्छ्रित। तीसरा-अनुच्छ्रितोच्छ्रित है। अर्थात् द्रव्य से नीचे बैठकर और भाव से धर्मध्यान या शुक्लध्यान में उद्यत होकर तथा चौथा अनुच्छ्रितानुच्छ्रित अर्थात् द्रव्य से शरीर से नीचे बैठना और भाव से कृष्णादि लेश्या के उतरते अशुभपरिणामों के कारण परिणामों से नीचे बैठना। इस प्रकार बैठते, उठते और सोते हुए के चार चार भेद जानना। कायोत्सर्ग दोषों से बचकर करना चाहिए। कायोत्सर्ग के इक्कीस दोष आचार्यों ने बताये हैं
कायोत्सर्ग के दोष – १. घोड़े के समान एक पैर से खड़े होकर काउस्सग्ग करना, घोटक दोष है। २. जोरदार हवा से कांपती हुई बेल के समान शरीर को कंपाना, लतादोष है। ३. खंभे का सहारा लेकर काउस्सग्ग करना स्तंभदोष। ४. दीवार का सहारा लेकर काउस्सग्ग करना कुड्यदोष है। ऊपर छत से मस्तक अड़ाकर काउस्सग्ग करना मालदोष है। ६. भीलनी के समान दोनों हाथ गुह्य-प्रदेश पर रखकर काउस्सग्ग करना शबरीदोष है। ७. कुलवधू के समान मस्तक नीचे झुकाकर काउस्सग्ग करना वधूदोष है। ८. बेडी में जकड़े हुए के समान दोनों पैर लंबे करके अथवा इकडे करके कायोत्सर्ग में खड़ा होना निगडदोष है। ९. नाभि के ऊपर और घुटने से नीचे तक चोलपट्टा बांधकर काउस्सग्ग करना लंबोत्तरदोष है। १०. जैसे स्त्री वस्त्रादि से स्तन को ढकती है, वैसे ही डांस-मच्छर के निवारण के लिए अज्ञानतावश काउस्सग्ग में स्तन या हृदयप्रदेश ढकना स्तनदोष है; अथवा धायमाता जैसे बालक को स्तनपान कराने
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