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आयंबिल और अब्भत्तट्ठ (उपवास) पच्चक्खाण के पाठ और विवेचन
योगशास्त्र तृतीय प्रकाश श्लोक १२९ हैं अथवा सागारी गृहस्थ को भी कहते हैं, उसमें संबंधित जो आगार हो, उसे भी सागारिकागार कहते हैं। इस आगार | का तात्पर्य यह है - साधु का आचार है कि गृहस्थ की दृष्टि पड़े, वहां बैठकर साधु साध्वी को आहार नहीं करना | चाहिए; क्योंकि ऐसा करने से जिनशासन की बदनामी ( निंदा) होती है। इसीलिए महर्षियों ने कहा - षट्जीवनिकाय (प्राणीमात्र) पर दया करने वाले साधुसाध्वी आहार या निहार (मलमूत्र - निवारण) गृहस्थ के सम्मुख करें अथवा जुगुप्सित (घृणित ) या निंदित कुलों से आहार- पानी ग्रहण करे तो इससे शासन (धर्मसंघ) की अपभ्राजना ( बदनामी) | होती है। ऐसा करने से उसे सम्यक्त्व (बोधि ) प्राप्ति दुर्लभ हो जाती है। इसी कारण साधु का ऐसा आचार है कि साधु | जहां बैठकर आहार कर रहा हो, वहां यदि उस समय कोई गृहस्थ (भाई-बहन) आ जाय और उसी समय चला जाय, तब तो साधु भोजन के लिए वहीं बैठा रहे; लेकिन वह (गृहस्थ ) वहां काफी देर तक रुका रहे तो साधु को वहां नहीं बैठे रहना चाहिए। क्योंकि अधिक समय तक एक ही आसन पर (भोजन स्थगित किये) बैठे रहने से स्वाध्याय, सेवा | आदि अन्य दैनिक चर्याओं में विघ्न पड़ेगा; इस कारण साधु (या साध्वी) वहां से उठकर यदि दूसरे स्थान पर बैठकर आहार करते हैं तो इस आगार के कारण उनका एकासन पच्चक्खाण भंग नहीं होता । यह विधान साधु की अपेक्षा से | किया गया। अब गृहस्थ की अपेक्षा से इस आगार का तात्पर्य यह है कि कोई गृहस्थ एकासन के लिए आहार करने बैठा हो, उस समय किसी के देखने या नजर लगने से हजम न होने की आशंका से यदि वह स्थान बदलता है तो | सागरिकागार के कारण उसका एकासन पच्चक्खाण खंडित नहीं होता । तथा आउंटणपसारेणं = आकुंचन-प्रसारण करने से यानी घुटने, जंघा, पैर आदि को सिकोड़ने या पसारने ( फैलाने-लंबे, चौड़े करने) से । मतलब यह है कि कई व्यक्ति | भोजन करते समय अधिक देर तक एक आसन से स्थिरतापूर्वक बैठ नहीं सकते; बीमारी, अशक्ति या बुढ़ापे आदि के कारण उनके अंगोपांग ज्यादा देर तक एक ही आसन से बैठना सहन नहीं कर सकते, ऐसे व्यक्ति एकासन करते समय | यदि शरीर के अंगोपांग सिकोड़ते या पसारते हैं, लंबा-चौड़ा करते हैं, उसमें जरा-सा आसन चलायमान हो जाय तो इस आगार (छूट) के कारण उनका एकासन - प्रत्याख्यान खंडित नहीं होता । तथा गुरु- अब्भुट्ठाणेणं - इसका अर्थ है एकासन में भोजन करते समय यदि गुरुदेव पधारें तो उनके विनय के लिए आसन पर खड़े हो जाने पर भी इस आगार के कारण पच्चक्खाण भंग नहीं होता । गुरुविनय खड़े होकर किया जाता है, जिसे करना आवश्यक है। अतः भोजन करते समय भी कोई खड़े होकर बड़ों का विनय करता है, तो उससे उसका एकासन भंग नहीं होता । 1 | पारिट्ठावणिआगारेणं=भुक्तशिष्ट अतिमात्रा में आनीत वस्तु को निरवद्य स्थान में डालना - त्यागकर देना या किसी तपस्वी साधुसाध्वी को दे देना, पारिष्ठापन कहलाता है। तात्पर्य यह है कि साधु की भिक्षा में आहार मात्रा से अधिक आने से | बच गया हो; दूसरे दिन के लिए उसे रखना तो कल्पनीय नहीं है, ऐसी दशा में उसे परिठाने (डालने) के सिवाय कोई चारा न हो, उस समय उस आहार को पच्चक्खाण (एकासन आदि) वाला खा ले तो पारिष्ठापनिकागार के कारण उसका | पच्चक्खाण भंग नहीं होता। क्योंकि उक्त आहार को परिठाने फेंकने पर तो जीवविराधना आदि कई दोष लगते हैं, | जबकि शास्त्र - मर्यादानुसार उस परिष्ठापन - योग्य आहार को पच्चक्खाण वाला साधु (साध्वी) खा ले तो उसमें अधिक गुण हैं। इस कारण बढ़ा हुआ आहार गुरु आज्ञा से पच्चक्खाण वाला खा ले तो उसका पच्चक्खाण भंग नहीं होता । | वोसिरइ-अर्थात् इन आगारों के अलावा एक ही आसन और आहार के अतिरिक्त आसन या आहार का त्याग करता हूं। अब एकलठाणा के पच्चक्खाण का स्वरूप बताते हैं। इसमें सात आगार है। इसका पाठ भी एकासन के समान ही है। सिर्फ एगासणं के बदले एगलठाणं बोलना और आउंटण पसारणेणं का आगार छोड़कर सभी आगारों को बोलना | चाहिए। क्योंकि एगलठाणा में यह नियम है कि शरीर के अंग जिस तरह रखे हों, उसी तरह अंत तक रखकर भोजन करना चाहिए। अर्थात् एक ही स्थिति में अगोपांग रखना एकलठाणा है। मुंह और हाथ को हिलाये बिना तो भोजन किया ही नहीं जा सकता, अतः इन दोनों को हिलाने का इसमें निषेध नहीं है । आउंटण-पसारेणं आगार को छोड़ने का विधान एकासन और एकलठाणा पच्चक्खाण में अंतर बताने के लिए किया गया है। अन्यथा, ये दोनों पच्चक्खाण एक सरीखे 1. यह आगार खड़े होने तक का ही, स्थान से आगे-पीछे नहीं हो सकता। पास में आहार हो तो वहोरा सकता है, पर स्वयं दूसरे स्थान पर जाकर आहार नहीं वहोरा सकता।
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