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सामान्य प्रतिक्रमण स्वरुप
योगशास्त्र तृतीय प्रकाश श्लोक १२९ व्याख्या करते हैं-क्षायोपशमिक भाव में से औदयिक भाव के वश हुआ आत्मा, फिर प्रतिकूल गमन करे, अर्थात् क्षयोपशमिक भाव में वापिस लौट आये, तो उसे भी प्रतिक्रमण कहते हैं। यह तो ऊपर की तरह ही अर्थ हुआ। एक अर्थ यह भी हो सकता है-प्रति प्रति क्रमणं प्रतिक्रमणम् यानी मोक्षफलदायक, शुभयोग के प्रति (शुभयोग की ओर) क्रमण गमन प्रतिक्रमण है। कहा है-मायाशल्य आदि सर्वशल्यों से रहित साधु को मोक्षफल देने वाला और शुभयोग की ओर ले जाने (व्यवहार कराने) वाला प्रतिक्रमण कहलाता है। यह प्रतिक्रमण भूत, भविष्य और वर्तमान इन तीनों कालों के पापकर्मों के संबंध में होता है। यहां शंका करते हैं कि प्रतिक्रमण तो भूतकालविषयक ही होता है। कहा है कि-भूतकाल के किये हुए पापों का प्रतिक्रमण करता हूं। वर्तमान काल के पापों का संवर करता (रोकता) हूं और भविष्यकाल के पापों का पच्चक्खाण करता हूं। इसमें भूतकाल का प्रतिक्रमण ही कहा है, तो फिर तीनों कालों का प्रतिक्रमण कैसे होता है? इसका उत्तर देते हैं-प्रतिक्रमण शब्द का अर्थ 'अशुभयोग से निवृत्त हो (रुक) जाना, इतना ही समझना चाहिए। यह भी तो कहा है-जैसे मिथ्यात्व का प्रतिक्रमण है. वैसे असंयम का प्रतिक्रमण, कषाय का प्रतिक्रमण, प्रमाद का प्रतिक्रमण और अप्रशस्त (खराब) योग का प्रतिक्रमण भी है। निष्कर्ष यह है कि इन पांचों से रुकना प्रतिक्रमण कहलाता है। इसमें निंदा द्वारा अशुभयोग से निवृत्ति रूप भूतकाल-संबंधी प्रतिक्रमण, संवर द्वारा वर्तमान अशुभयोग से निवृत्ति रूप वर्तमानकाल का प्रतिक्रमण और पच्चक्खाण से भविष्यकाल-संबंधी अशुभयोग से निवृत्ति रूप प्रतिक्रमण है। इस तरह तीनों काल-संबंधी अशुभयोग से निवृत्ति रूप त्रिकाल-प्रतिक्रमण होने में कोई आपत्ति नहीं है। फिर यह प्रतिक्रमण दैवसिक आदि भेद से पांच प्रकार का है। जो दिन के अंत में किया जाय, वह दैवसिक; रात के अंत में किया जाय, वह रात्रिक, पक्ष के अंत में किया जाय वह पाक्षिक, जो चार मास के अंत में किया | जाय वह चातुर्मासिक और संवत्सर-(वर्ष) के अंत में किया जाय वह सांवत्सरिक प्रतिक्रमण कहलाता है। पुनः यह प्रतिक्रमण दो प्रकार का है-ध्रुव और अध्रुव। भरत और ऐरावत क्षेत्रों में प्रथम और अंतिम तीर्थंकरों के तीर्थ में ध्रुव रूप है; नित्य-अपराध हुए हों चाहे न हुए हों, फिर भी सुबह-शाम उभयकाल प्रतिक्रमण करना आवश्यक होता है| और बीच के २२ तीर्थंकरों के तीर्थ में एवं महाविदेहक्षेत्र में कारणवश अर्थात् दोष लगे हों तभी, प्रतिक्रमण किया जाता है, अतः वह अध्रुव है। इसी बात को कहा है-प्रथम और अंतिम जिनेश्वर का धर्म सप्रतिक्रमण है; अर्थात् उनके शासन में साधुसाध्वियों के लिए दोनों समय प्रतिक्रमण करना आवश्यक है और बीच के २२ तीर्थंकरों के तीर्थ में कारणवश (दोष लगे तभी) प्रतिक्रमण करना होता है। प्रतिक्रमण की विधि पूर्वाचार्यों ने बतायी है; वह गाथाओं के अनुसार जानना। (आ. नि. १२५८) हम यहां सिर्फ उनका अर्थ दे रहे हैं
पांच प्रकार के आचार की विशुद्धि के लिए साधु और श्रावक भी गुरु के साथ प्रतिक्रमण करे और गुरुमहाराज के अभाव में श्रावक अकेला भी करे ।।१।। सर्व-प्रथम देववंदन' करके प्रारंभ में चार खमासमणा देकर भगवान हं!... आदि कहकर भूमितल पर मस्तक लगाकर सव्वस्स वि बोले। उसके बाद सारे अतिचारों का मिच्छा मि दुक्कडं दे ।।२।। उसके बाद सामायिकसत्र यक्त इच्छामि ठामि काउस्सग्गं आदि सत्र बोलकर दोनों हाथ नीचे लटकाकर कोहनी से चोलपट्टे को कमर के उपर दबाकर रखे ।।३।। और घोटक आदि १९ दोषों से रहित काउस्सग्ग करे। उसमें चोलपट्टा नाभि से चार अंगुल नीचे और घुटने से चार अंगुल ऊपर रखे, (श्रावक भी इस तरह धोती रखे) ॥४।। काउस्सग्ग में दिन में लगे हुए अतिचार को क्रमशः हृदय में धारण-(स्मरण) करे और णमोक्कारमंत्र बोलकर काउस्सग्ग पूर्ण करे। फिर प्रकट रूप में पूरा लोगस्स कहे ।।५।। तदनंतर संडासा प्रमार्जन कर नीचे बैठकर, दोनों हार्थों को, स्पर्श न हो इस तरह लंबे करके पच्चीस बोल से मुहपत्ती और पच्चीस बोल से शरीर का प्रतिलेखन करे ।।६।। उसके बाद खड़े होकर विनय-सहित विधिपूर्वक बत्तीस दोषों से रहित पच्चीस आवश्यक-विशुद्ध वंदन करे ।।७।। तदनंतर कमर के ऊपर के भाग को अच्छी तरह नमाकर दोनों हाथों में मुहपत्ती और रजोहरण पकड़कर, काउस्सग्ग में विचार किये हुए अतिचारों को ज्ञानादिक्रमानुसार गुरु के सामने प्रकट में निवेदन करे ।।८।। उसके बाद जयणा और विधिपूर्वक बैठकर यतना से| अप्रमत्त बनकर करेमि भंते आदि कहकर वंदित्तु सूत्र बोले, उसमें अब्भुढिओ मि आराहणाए आदि का शेष सूत्र बोलते 1. यहां कौन सा देववंदन करना यह स्पष्ट नहीं किया।
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