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प्रतिक्रमण शब्द का अर्थ, विवेचन वंदन से लाभ
योगशास्त्र तृतीय प्रकाश श्लोक १२९ सूत्र-व्याख्या -जंकिंचि-जो कोई सामान्य-सहज अपत्तिअं अल्प अप्रीति रूप और परपत्ति विशेष अप्रीति रूप अथवा किसी दूसरे निमित्त से तथा उपलक्षण से मेरे निमित्त से आपके प्रति मेरा या मेरे प्रति आपका ऐसा कोई अपराध हुआ हो, वह मिथ्या हो; इस प्रकार अंतिम पद के साथ जोड़ना। अपराध किन-किन विषयों में हुआ? भत्ते भोजन में, पाणे-पानी में, विणए विनयव्यवहार, में खड़े आदि होने में, वेयावच्चे औषध, पथ्य, अनुकूल आहार आदि के सहायक होने में, आलावे एक बार बोलने में आलाप से, संलावे परस्पर अधिक वार्तालाप करने में, उच्चासणे आपके सामने ऊंचे आसन से बैठने से, समासणे आपके बराबर आसन लगाकर बैठने से तथा अन्तरभासाए गुरुदेव किसी से बात करते हों, तब बीच में बोलने से, उवरिभासाए गुरु ने जो बात कही हो, उसे अधिक बढ़ा-चढ़ाकर कहने से, जं किंचि=जो कोई सहजभाव अथवा सर्व प्रकार से मज्झ=मेरे से विणय परिहीणं अविनय से-विनयभाव के रहित पने से हुआ हो। सुहुमं वा बायरं वा अल्प-प्रायश्चित से शुद्ध होने वाले सूक्ष्म या विशेष-प्रायश्चित से शुद्ध होने वाले बादर, (स्थूल), यहां दूसरी बार वा का प्रयोग दोनों के विषय में मिथ्या दुष्कृत देने के लिए हैं। तुब्भे जाणह, अहं न जाणामि आप सकलभाव को या उन मेरे अपराधों को जानते हैं, मैं नहीं जानता। मूढ़ होने से मैं अपने अपराध को भी नहीं जानता और मैंने जो अपने अपराध गुप्त रूप से किये हों वे आपको नहीं बताये हों, उन्हें (मेरे उन अपराधों को) मैं जानता हूं। और आप दूसरों के किये हुए अपराध नहीं जानते; और मैं
कारण कई अपराधों को नहीं जानता होउंगाः तथा आपके सामने प्रत्यक्ष किये हए अपराध में और आप जानते हैं। इस प्रकार अपराध के चार विकल्प किये; वे सभी यहां पर समझ लेना। तस्स-उस अप्रीति-विषयक और अविनय-विषयक अपराध के लिए मिच्छा मि दुक्कडं मेरा पाप मिथ्या हो, अपने गलत आचरण का पश्चात्ताप या स्वीकार रूप प्रतिक्रमण करता हूं; (ऐसा जैनशासन में पारिभाषिक वाक्य है) प्रयच्छामि अर्थात् क्षमा देता हूं; यह पद अध्याहार्य समझना। तस्स मिच्छा मि दुक्कडं इस पद का दूसरा अर्थ इस तरह है-तस्स अर्थात् अप्रीति और अविनय से हुआ वह मेरा अपराध मिच्छा मोक्ष-साधन में विरोध करने वाला है मि=मुझको दुक्कडं-वह पाप रूप है। इस तरह अपने दोषों की स्वीकृति रूप प्रतिक्रमण अथवा अपराध की क्षमायाचना जानना।
पहले वंदन में आलोचना और क्षमापना के लिए वंदन करने का विधान किया है, इसके बाद देवसिअं आलोउं और अब्भुडिओ सूत्र की व्याख्या जानना। नहीं तो उसका अवसर प्रतिक्रमण आवश्यक में आता है इस तरह द्वादशावर्तवंदनविधि पूर्ण हुई। वंदन करने से कर्मनिर्जरा रूप मोक्ष होता है। कहा भी है
श्री गौतम स्वामी ने प्रभु महावीर भगवान् को पूछा कि 'भगवन्! वंदन करने से जीव को क्या लाभ होता है?' भगवान ने कहा-'गौतम! ज्ञानावरणीय आदि आठ कर्म जो गाढ़ रूप में बांधे हों, वे कर्म, वंदन करने से शिथिल हो जाते हैं। लंबे काल तक स्थिर नहीं रहते, तीव्र रस वाले हों वे कर्म मंद रस वाले हो जाते हैं और बहुतप्रदेश वाले कर्मबंधन किये हों, वे अल्पप्रदेश वाले हो जाते हैं। इससे अनादि-अनंत संसार रूपी अटवी में दीर्घकाल तक भ्रमण नहीं करना पड़ता।' दूसरा प्रश्न फिर पूछा-भगवंत! गुरु-वंदन करने से जीव को क्या फल मिलता है? भगवान् ने कहा-गौतम! गुरुवंदन करने से जीव नीचगोत्रकर्म का क्षय करके उच्चगोत्रकर्म का बंधन करता है और अप्रतिहतआज्ञाफल अर्थात् जो गुरु की आज्ञा को खंडित नहीं करता, वह सौभाग्यनामकर्म उपार्जन करता है। (उत्त. ३०/१०) विनयोपचार करने योग्य गुरुवर्ग की सेवा और पूजा तीर्थकर की आज्ञा, श्रुतधर्म की आराधना और क्रिया का स्वरूप समझाया। (आ. नि. १२२९)
अब प्रतिक्रमण का अर्थ कहते हैं-इसमें प्रति उपसर्ग है जिसका अर्थ है-विपरीत अथवा प्रतिकूल। और क्रम धातु है; इसका अर्थ है-पादविक्षेप-पैर-स्थापन करना। प्रति उपसर्ग पूर्वक क्रम धातु के साथ भाव अर्थ में अनट प्रत्यय लगने से प्रतिक्रमण शब्द बना है। प्रतिक्रमण का भावार्थ है-शुभयोग से अशुभयोग में गये हुए आत्मा का फिर से शुभयोग में वापिस लौट आना। कहा भी है-प्रमादवश हुआ आत्मा अपने स्थान से परस्थान में अर्थात् स्वभाव से विभावदशा में गया हो, उसका फिर लौटकर स्वस्थान में आ जना प्रतिक्रमण कहलाता है। प्रति का विपरीत अर्थ करके
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