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आलोचना पाठ के अर्थ
योगशास्त्र तृतीय प्रकाश श्लोक १२९ से और लोएमि आपके सामने खोलकर सुनाता हूं। यहां दिन आदि की आलोचना में काल-मर्यादा इस प्रकार है-दिन के मध्यभाग से लेकर रात्रि के मध्यभाग तक दैवसिक और रात्रि के मध्यभाग से लेकर दिन के मध्य भाग तक रात्रिक अतिचारों की आलोचना हो सकती है। अर्थात् दिन या रात का प्रतिक्रमण इसी तरह हो सकता है। और पाक्षिक, चातुर्मासिक तथा सांवत्सरिक आलोचना-प्रतिक्रमण तो पंद्रह दिन का, चातुर्मास का और पूरे वर्षभर का होता है। इसके बाद आलोएह आलोचना करो यों गुरु के द्वारा कथित वचन का स्वीकारकर शिष्य इच्छं आलोएमि कहे अर्थात् आप की आज्ञा स्वीकार करता हूं और आलोचना-क्रिया द्वारा प्रकट में करता हूं, इस तरह प्राथमिक कथन कहकर शिष्य साक्षात् आलोचना के लिए यह पाठ बोलता है____ जो मे देवसिओ अइआरो कओ, काइओ, वाइओ, माणसिओ, उस्सुत्तो, उम्मग्गो, अकप्पो, अकरणिज्जो, दुज्झाओ, दुविचिंतिओ अणायारो अणिच्छिअव्यो असायग-पाउग्गो, नाणे तह दंसणे, चरित्ताचरिते, सुए, सामाइए, तिण्हं, गुत्तीणं, चउण्हं कसायाणं, पंचण्हमणुव्वयाणं तिण्हं, गुणव्बयाणं, चउण्हं सिक्खाययाणं, बारसविहस्स सावगधम्मस्स जं खडियं जं विराहियं तस्स मिच्छा मि दुक्कडं।
सूत्र की व्याख्या – 'जो में' अर्थात् मैंने जो कोई, 'देवसिओ अइआरो'=दिवस संबंधी विधि का उल्लंघन करने के रूप में अतिचार, 'कओ' किया हो, वह अतिचार भी साधन भेद से अनेक प्रकार के होते हैं। अतः कहा है'काइओ, वाइओ, माणसिओ' अर्थात् शरीर से, वाणी से और मन से मर्यादा विरुद्ध गलत प्रवृत्ति करने से अतिचार लगे हों, 'उस्सुत्तो'-सूत्रविरुद्ध वचन बोलने से, 'उम्मग्गो' =क्षायोपशमिक रूप भावमार्ग का उल्लंघन करना उन्मार्ग है अथवा आत्म स्वरूप (क्षायोपशमिक भाव) का त्यागकर मोहनीय आदि औदयिक भाव में परिणमन होना उन्मार्ग है; उससे लगा हुआ अतिचार तथा 'अकप्पो' =कल्प यानी न्यायविधि, आचार तथा चरण-करण-रूप व्यापार (प्रवृत्ति), इससे जो विपरीत हो, वह अकल्प्य कहलाता है। तात्पर्य यह है कि संयम का कार्य यथार्थ स्वरूप में नहीं होने से लगे हुए अतिचार में 'अकरणिज्जो' =सामान्य रूप से नहीं करने योग्य कार्य को करने से लगा अतिचार। ऊपर कहे अनुसार उत्सूत्र आदि शब्द कार्य-कारण रूप से परस्पर संबंधित है। उत्सूत्र हो तो व्यक्ति उन्मार्ग में जाता है, उन्मार्ग पर जाने से कल्प्यअकल्प्य का विवेक नहीं रहता। अकल्प्य से व्यक्ति अकरणीय कार्य करता है। इस प्रकार कायिक और वाचिक अतिचार का विशेष स्वरूप बताने के लिए उत्सूत्र से उन्मार्ग तक के शब्दों का प्रयोग किया है। अब विशेषतः मानसिक अतिचार के लिए कहते है-'दुज्झाओ' अर्थात् एकाग्रचित्त होकर दुष्ट ध्यान करने से उत्पन्न आर्त्त-रौद्र-ध्यान रूपी अतिचार तथा 'दुविचिंतिओ' अर्थात् चंचलचित्त से दुष्टचिंतन रूप अतिचार कहा भी है कि 'जं थिरमज्झवसाणं तं झाणं, जं जलं तयं चित्तं' अर्थात् मन का स्थिर अध्यवसाय ही ध्यान कहलाता है और चंचल अध्यवसाय चित्त कहलाता है। यहां पर स्थिर और चंचल के भेद कहते हैं-'अणायारो' अर्थात् यह श्रावक के लिए आचरण करने योग्य नहीं है अतः अनाचरणीय है और भी अनाचरणीय है-'अणिच्छिअव्वो' =इच्छा करने योग्य ही नहीं है। इसलिए 'असावगपाउग्गो' अर्थात् जिस गृहस्थ ने सम्यक्त्व स्वीकार किया हो, अणुव्रत आदि व्रतनियम अंगीकार किये हों, सदा साधु के पास जाता हो, साधु-श्रावकों की समाचारी या आचारमर्यादा-कर्तव्यकल्प सुनता हो, ऐसे श्रावक के लिए करने योग्य नहीं है। इस प्रकार कहकर अब अतिचार बताने के लिए कहते हैं-'णाणे तह दंसणे,चरित्ताचरित्ते' अर्थात् ज्ञान तथा दर्शन के विषय में तथा स्थूल रूप से आश्रव त्याग यानी सावध योग से विरताविरत (यानी स्थूल रूप से सावध योग त्याग के कारण चारित्र और सूक्ष्म रूप से सावध योग के त्याग के अभाव के कारण अचारित्र; इस प्रकार 'चारित्राचरित्र') जानना। ये| देशविरति-आराधना के विषय में लगे हुए अतिचार हुए। अंब ज्ञानादि-विषयक अतिचार पृथक्-पृथक् रूप से बतलाते हैं-'सुए' श्रुतज्ञान के विषय में (उपलक्षण से शेष मतिज्ञानादि चार ज्ञान का ग्रहण करना) ज्ञान के विपरीत-उत्सूत्र प्ररूपणा करना या काल में स्वाध्याय करना आदि ज्ञानाचार के आठ आचारों का पालन नहीं करना, अतिचार है, उसके संबंध में तथा 'सामाइए' अर्थात् सामायिक के विषय में, यहां सामायिक ग्रहण करने से सम्यक्त्व-सामायिक व देशविरति-सामायिक जानना, सम्यक्त्वसामायिक में शंका, कांक्षा आदि अतिचार है। देशविरतिसामायिक के अतिचार के
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