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गुरु आशातना पर विवेचन
योगशास्त्र तृतीय प्रकाश श्लोक १२९ के मध्यभाग का स्पर्श न हो, इस प्रकार दोनों हाथों से ओघे की दशियों का स्पर्श करते अकार का उच्चारण करे ।।१०।। | उसके बाद दोनों हाथों को मुख की ओर घुमाकर ललाट का स्पर्श करते हुए होकार का उच्चारण करे ।।११।। फिर दोनों हाथों से ओघे का स्पर्श करते हुए 'का' बोले और 'यं-कार' बोलते हुए फिर ललाट का स्पर्श करे ।।१२।। किर 'का के उच्चारण करते समय तीसरी बार ओघे का स्पर्श करे और य-कार बोलते हुए फिर ललाट का स्पर्श करे ।।१३।। बाद 'संफासं पद बोलते हुए रजोहरण को दो हाथ और मस्तक से नमस्कार कर मस्तक ऊँचा करके दोनों हाथ जोड़कर सुखसाता (कुशलमंगल) पूछने के लिए ।।१४।। खमणिज्जो भे किलामो अप्पकिलंताणं बहुसुभेण भे दिवसो (दिवसो, पक्खो, वरिसो वा) वइक्कंतो यों बोलकर क्षणभर मौन रहे ।।१५।। जब गुरुमहाराज 'तहत्ति' कहे, तब फिर संयमयात्रा
और यापनिका (इंद्रिय और मन की निराबाधता) पूछे; उस समय भी पूर्ववत् दूसरी बार तीन आवर्त करना और उसमें स्वर का योग करना ।।१६।। यहां प्रश्न उठता है कि मंदबुद्धि शिष्य पर अनुग्रहउपकार करने के लिए उस स्वरयोग को किस तरह स्थापन करना चाहिए? इसका उत्तर देते हैं कि 'जघन्य, उत्कृष्ट और मध्यम स्वर (आवाज) से युक्ति से उच्चारण करके स्थापन करना ।।१७।। उसमें जघन्य (अनुदात्त) स्वर से रजोहरण पर, उत्कृष्ट (उदात्त) स्वर से ललाट पर और मध्यम (स्वरित) स्वर से दोनों के बीच में स्थापन करना।।१८।। अनुदात्त स्वर से 'जकार', स्वरित स्वर से 'त्ता' और उदात्त स्वर से 'भे' अक्षर बोले और 'ज-व-णि' ये तीनों अक्षर भी इसी तरह अनुदात्त आदि स्वर से बोले।।१९।। तीसरी बार 'ज्ज' अनुदात्त से 'च' स्वरित स्वर से और 'भे' उदात्त स्वर से बोलना। इसी तरह रजोहरण पर मध्य में तथा ललाट पर स्पर्श करते हुए यथायोग्य स्वर से बोलना चाहिए ।।२०।। प्रथम के तीन आवर्त क्रमशः दो-दो अक्षर और बाद के तीन आवर्त क्रमशः तीन-तीन अक्षरों के कहे हैं ।।२१।। इस तरह आवर्त का स्वरूप जानकर जब दूसरे
धि बताते हैं-दो हाथों से रजोहरण का स्पर्श करते हए 'जकार' मध्य में 'त्ता और ललाट में 'भेकार' कहकर बाद में गुरु के वचन सुनना ।।२२।। गुरु जब तुब्भं पि वट्टए कहें, तब शेष दो आवर्त साथ में करके जब तक गुरु एवं' न बोले तब तक मौन रहे ।।२३।। गुरु के एवं कहने के बाद शिष्य रजोहरण पर दो हाथों से अंजलि बनाकर
कर विनय पूर्वक खामेमि खमासमणो देवसियं वइक्कम आदि बोले ।।२४।। बाद में जब गुरु 'अहमवि खामेमि तुमं' यों कहकर क्षमायाचना की सम्मति दे, तब शिष्य आवस्सिआए कहकर अवग्रह में से निकल जाये ।।२५।। बाद में शरीर झुकाकर सभी अपराधों की क्षमायाचना करके सर्व दोषों की निंदा, गर्हा और त्याग करे। इस तरह से प्रतिक्रमण-प्रायश्चित्त करे ।।२६।। इसी प्रकार विनयपूर्वक तीन गुप्ति से गुस (रक्षित) होकर प्रथम क्षमायाचना करे, फिर उसी तरह दूसरी बार वंदन करे, उसमें भी अवग्रह की याचना, प्रवेश आदि सब पहले की तरह करे, इनमें दो वंदन, दो अवनत और दो प्रवेश होते हैं ।।२७।। वंदन के प्रथम प्रवेश में छह आवर्त और दूसरे प्रवेश में छह आवर्त होते हैं। वहां अ हो आदि अक्षर अलग-अलग बोलने से बारह आवर्त समझना ।।२८।। प्रथम प्रवेश में दो बार सिर झुकाना
और दूसरे में भी उसी तरह दो बार सिर झुकाना होता है। इससे चार सिर कहा है और एक निष्क्रमण कहा है।।२९।। तथा एक यथाजात और तीन गुस सहित चार होते हैं। इन चारों को शेष में मिलाने से कुल पच्चीस आवश्यक होते हैं।।३०।।
गुरु की तैतीस आशातनाएँ-तित्तीसन्नयराए-वंदनसूत्र में पहले आ चुका है। गुरुसंबंधी उन तैंतीस आशातनाओं को विस्तार से समझाते हैं-१. शिष्य गुरु के आगे-आगे निष्प्रयोजन चले तो विनयभंग रूप आशातना लगती है। यदि मार्ग बताना हो या किसी वृद्ध, अंध आदि की सहायता करने के लिए आगे चले तो यह दोष नहीं लगता।।२।। गुरुजी के साथ दाहिने या बांये चलने से। ३. तथा गुरु के एकदम पीछे चलने से। इससे निःश्वास, छींक, श्लेष्म आदि गुरु के शरीर पर पड़ना संभव होने से आशातना लगती है। ४-५-६. इसी तरह आगे, पीछे, बराबर बहुत पास में सटकर खड़े रहने से ये तीन आशातनाएँ लगती हैं। ७-८-९. इसी प्रकार आगे, पीछे, बराबर, साथ में, एकदम सटकर पास में बैठने से भी ऐसी तीन आशातनाएँ लगती हैं। १०. गुरु या आचार्य के साथ शिष्य स्थंडिलभूमि गया हो, वहां पहले स्वयं जावे और प्रथम देह शुद्ध करे तो आचमन नाम की आशातना लगती है। ११. गुरु के साथ कोई बात करता हो, उससे गुरु से पहले शिष्य ही बातें करे; वह पूर्वालापन आशातना है। १२. आचार्य के साथ बाहर गया हो, किन्तु वापि पेस आचार्य के पहले जल्दी लौटकर गमनागमन की आलोचना करे तो गमनागमन की आलोचना नामक
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