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आलोचना पाठ के अर्थ
__ योगशास्त्र तृतीय प्रकाश श्लोक १२९ आशातना होती है। १३. आहार लाकर गुरु से पहले किसी छोटे साधु के पास आलोचना करे, बाद में गुरु के पास आलोचना करे। १४. इसी प्रकार आहार लाकर गुरु से पहले छोटे साधु को दिखाकर बाद में गुरु को दिखाए। १५. आहार लाकर गुरु को पूछे बिना ही छोटे साधु की इच्छानुसार यथेष्ट पर्याप्त आहार दे देना। १६. भिक्षा लाकर पहले किसी छोटे साधु को निमंत्रण देना, बाद में गुरु को निमंत्रण देना। १७. स्वयं भिक्षा लाकर उसमें से थोड़ा-सा गुरु को देकर बाकी का बढ़िया मनोज्ञ वर्ण-रस-गंध-स्पर्श वाला स्निग्ध स्वादिष्ट आहार, व्यंजन आदि स्वयं खाये। १८. रात्रि के | समय गुरुमहाराज जब आवाज दें कि 'आर्य! कौन जागता है? कौन सोता है? तब यह सुनने पर भी और जागने पर भी उत्तर नहीं दे तो।' १९. इसी प्रकार दिन को या किसी समय गुरुमहाराज के बुलाने पर भी उत्तर नहीं देना। २०. गुरु के बुलाने पर भी जहां पर बैठा हों, सोया हो, वहीं से उत्तर देना अथवा गुरु बुलाएँ, तब आसन या शयन से उठकर पास में जाकर 'मत्थएण वंदामि' कहकर गुरु की बात सुननी चाहिए; किन्तु ऐसा नहीं करे तो आशातना लगती है। २१. गुरु के बुलाने पर 'मत्थएण वंदामि' न कहकर, क्या है? इस प्रकार तुनककर बोलना। ६२. गुरुमहाराज को शिष्य अविनय पूर्वक रे तूं इत्यादि तुच्छ शब्दों से संबोधित करे। २३. रोगी, ग्लान आदि की वैयावृत्य (सेवा) के लिए गुरुमहाराज आज्ञा दें, कि तुम यह काम करो; तब शिष्य उलटे गुरु को कहे-तुम स्वयं क्यों नहीं कर लेते?' गुरु कहे'तुम प्रमादी हो।' तब उद्दण्डता से सामने बोले कि-'प्रमादी आप हैं।' इस तरह सामने उत्तर देना, तज्जातवचन नाम की आशातना है। २४. गुरुमहाराज को कठोर वचन कहे अथवा उनसे उच्च स्वर से बोले। २५. गुरुमहाराज उपदेश देते हों, तब बीच में बिना पूछे ही यह तो ऐसा है, इस प्रकार टोकना। २६. गुरुजी धर्मकथा करते हों, तब 'यह बात | आपको याद नहीं है, 'इसका अर्थ आप नहीं समझते; इस प्रकार शिष्य बीच में बोले। २७. गुरुदेव धर्मकथा सुनाते हों, तब उनके प्रति मन में पूज्यभाव नहीं होने से शिष्य चित्त में प्रसन्न नहीं होता, गुरु के वचन की अनुमोदना नहीं करता, 'आपने बहुत सुंदर कहा' ऐसी प्रशंसा नहीं करता; इससे उसे 'उपहतमनस्त्व' नाम की आशातना लगती है। | २८. जब गुरु धर्मकथा सुनाते हों, तब शिष्य कहे-अभी तो भिक्षा का समय हुआ है, या अब सूत्र पढ़ाने या आहार करने का समय है, इत्यादि कहकर सभाभेदन (भंग) करने की आशातना करे। २९. गुरुजी व्याख्यान करते हों, तब 'मैं व्याख्यान करूंगा' ऐसा कहकर गुरुजी की सभा और व्याख्यान को बीच में ही तोड़ना (भंग करना) कथा-छेदन आशातना है। ३०. आचार्य धर्मोपदेश देते हों, उस समय सभा उठने से पहले ही सभा में अपना चातुर्य बताने के लिए शिष्य व्याख्या करने लगे तो आशातना लगती है। ३१. गुरुजी से आगे, ऊंचे अथवा समान आसन पर शिष्य बैठे तो आशातना होती है। ३२. गुरु की शय्या या आसन के पैर लगाना, उनकी आज्ञा के बिना हाथ से स्पर्श करना; इन अपराधों के हो जाने पर भी क्षमा न मांगना, आशातना है। कहा भी है कि 'गुरु अथवा उनके कपड़े आदि वस्तुओं का शरीर से स्पर्श हो जाय अथवा आज्ञा बिना स्पर्श कर ले तो मेरे अपराध क्षमा करें, कहकर शिष्य क्षमा मांगे और आयंदा
करूंगा' यों कहे। (दशवै. ९/२-१) ३३. गरु की शय्या. संथारा, आसन आदि पर खडे होने, बैठने या सोने से, उपलक्षण से उनके वस्त्र-पात्र आदि किसी भी वस्तु का स्वयं उपयोग करे तो आशातना लगती है।
इस प्रकार ये तैंतीस आशातनाएँ पूर्ण हुई। अब पुरओपक्खासन्ने इत्यादि छह गाथाएँ शास्त्र में कही है, उसमें तैंतीस | आशातनाओं का विधान है, उसका अर्थ उपर्युक्त विवेचन में आ गया है, इसलिए पुनः नहीं लिखते। यद्यपि ये
आशातनाएँ साधु के लिए कही है फिर भी श्रावकवर्ग को भी ये आशातनाएँ लगनी संभव है; क्योंकि प्रायः साधु की क्रिया के अनुसार ही श्रावक की अधिकांश प्रवृत्तियाँ-क्रियाएँ होती है। सुना जाता है कि कृष्ण वासुदेव ने द्वादशावर्त वंदन से अठारह हजार साधुओं को वंदन किया था। इस कारण साधु की तरह श्रावक के लिए भी ये आशातनाएँ | यथासंभव समझ लेनी चाहिए।
. इस प्रकार वंदन कर अवग्रह में स्थित होकर अतिचार की आलोचना करने का इच्छुक शिष्य शरीर को कुछ नमाकर गुरु से इस प्रकार निवेदन करे-इच्छाकारेण संदिसह (भगवन्) देवसियं आलोएमि अर्थात् आपकी इच्छा हो तो आज्ञा दीजिए कि मैं दिन में लगे हुए अतिचारों को आपके सामने प्रकट करूं। यहां दिनसंबंधी और उपलक्षण से रात्रिक, पाक्षिक, चातुर्मासिक और सांवत्सरिक अतिचार भी आलोएमि-आ अर्थात् मर्यादा=विधिपूर्वक अथवा सब प्रकार
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