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वंदनविधि की आगमोक्त गाथाओं का अर्थ
योगशास्त्र तृतीय प्रकाश श्लोक १२९ पूरे दिन में की हुई ज्ञानादि लाभ की होने वाली आशातना की हो, उन अपराधों का मैं प्रतिक्रमण करता हूं। कितनी आशातनाएँ? उसे कहते है-तित्तीसन्नयराए अर्थात् गुरु महाराज की तैंतीस आशातनाएँ होती है, उनमें से दो, तीन या इससे अधिक आशातनाएँ लगती है। संपूर्ण दिन में अनेक आशातनाएँ लगने की संभावना होने से यहां पर सभी आशातनाओं का उल्लेख किया है। इन आशातनाओं पर आगे विवेचन करेंगे। इस संबंध में कुछ विशेष कहते हैं-जं किं चि मिच्छाए अर्थात् जो कोई मिथ्याभाव से यानी उसके निमित्त से विपरीत भावों से किया हो, मणदुक्कडाए, वयदुक्कडाए, कायदुक्कडाए अर्थात् दुष्ट मन से या प्रद्वेष के कारण, दुष्ट असभ्य कठोर वचन बोलकर, काया की दुष्टता अथवा अत्यंत सटकर बैठकर या साथ चलते शरीर की कुचेष्टा द्वारा आशातना की हो। उनमें भी कोहाए. माणाए. मायाए, लोभाए क्रोध-सहित, मान-सहित, माया-सहित या लोभ-सहित। अर्थात् क्रोधादि करने से या किसी प्रकार के विनयभंग आदि से होने वाली आशातनाएँ दिन में की हों। इसी प्रकार पक्खी, चौमासी, संवत्सरी-संबंधी काल में हुई हो तथा इस जन्म से पूर्व जन्मों में अथवा भूतकाल या भविष्यकाल में जो आशातना हुई हों, साधक उन सबका ग्रहण करके निवेदन करता है-सव्वकालियाए-अर्थात् सर्वकालविषयक आशातना। भविष्यकाल की आशातना किस तरह से होती है? इसका उत्तर देते हैं कि 'कल गुरु का इस तरह अनिष्ट या नुकसान करूंगा' इस प्रकार विचार करने से, इसी तरह आगामी जन्मों या भूतकाल में भी उनके वध आदि का निदान करना संभव हो सकता है, इस प्रकार तीनों काल-संबंधी आशातनाओं से सव्वमिच्छोवयाराए अर्थात् सर्व दंभ-कपट या माया से पूर्ण गलत प्रवृत्ति रूप असत्क्रिया की आशातनाओं से तथा सव्वधम्माइक्कमणाए आसायणाए अष्ट-प्रवचनमाता का पालन, सामान्य रूप से संयम में करने योग्य सर्वकार्य रूप सर्वधर्मों में जो अतिक्रमण-विराधना रूप सर्वधर्मों की इत्यादि गुरु की आशातनाओं से, जो मे अइआरों कओ=मैंने जो कोई अतिचार अपराध किया हो, तस्स खमासमणो! पडिक्कमामि हे क्षमाश्रमण! मैं उन अतिचारों का आपकी साक्षी से प्रतिक्रमण करता हूं, अर्थात् फिर नहीं करने का संकल्प करके अपनी आत्मा को अपराधों से पीछे हटाता हूं। तथा निंदामि, गरिहामि, अप्पाणं वोसिरामि अर्थात् संसार से विरक्त में भूतकाल की अपनी पापयुक्त आत्मा की प्रशांतचित्त से वर्तमानकाल के शुद्ध अध्यवसायों से निंदा करता हूं, आपकी साक्षी से दुष्टकार्य करने वाली मेरी आत्मा की गर्दा करता हूं और आत्मा की अशुद्ध प्रवृत्ति के अनुमोदन का त्याग करता हूं। इस प्रकार गुरुवंदन-सूत्र बोलकर फिर उसी प्रकार अवग्रह के बाहर खड़ा होकर इच्छामि खमासमणो से लेकर वोसिरामि तक दूसरी बार संपूर्ण पाठ बोले। परंतु इसमें इतना विशेष समझे कि दूसरी बार के गुरुवंदन में अवग्रह से बारह निकले बिना ही आवस्सियाए पद छोड़कर शेष सारा सूत्रपाठ बोले। ___ अब वंदनक-विधि बताने वाली आगमोक्त गाथा का भावार्थ यहां प्रस्तुतकर रहे हैं___ आचार का मूल विनय है। वह गुणवान की सेवा करने से होता है। तथा विधिपूर्वक गुरु को वंदन करने से होता है, और उस द्वादशावर्त वंदन की विधि इस तरह जानना ।।१।। गुरुवंदन करने का इच्छुक साधक यथाजात अवस्था (जन्म समय की मुद्रा) में स्थित होकर अवग्रह के बाहर संडासा का प्रमार्जन कर उत्कटिकासन में बैठकर मुखवस्त्रिका का प्रतिलेखन करके शरीर के ऊपर के आधे भाग का प्रमार्जन करे ।।२।। बाद में खड़ा होकर कमर पर कुहनी से चोलपट्टे को दबाकर (पहले चोलपट्ट पर डोरी नहीं बांधते थे) शरीर को नमाकर युक्तिपूर्वक पीछे का भाग धर्म की निंदा न हो, इस प्रकार से ढक ले ।।३।। दाहिने हाथ की अंगुलियों से मुहपत्ती और दोनों हाथों में रजोहरण पकड़कर पूर्वोक्त बत्तीस दोषों से रहित निर्दोष वंदन के लिए गुरुमहाराज के सामने इस प्रकार उच्चारणपूर्वक बोले।।४।। इच्छामि खमासमणो मे निसीहिआए तक बोलकर बाद में गुरु का छंदेण उत्तर सुनकर अवग्रह की याचना करने के लिए ।।५।। अणुजाणह मे मिउग्गहं बोले और गुरु अणुजाणामि कहे, तब अवग्रहभूमि में प्रवेश करके संडासा प्रमार्जनकर नीचे बैठे ।।६।। इसके बाद रजोहरण की दशियों का प्रमार्जन कर मस्तक से स्पर्श कराना उपयोगी होगा, ऐसा मानकर भूमि पर स्थापन करे उसके बाद प्रथम ।।७।। बांये हाथ से एक ओर से पकड़ी हुई मुहपत्ती से बांये कान से लेकर दाहिने कान तक का और ललाट का प्रमार्जन करे ।।८।। और सिकोड़े हुए बांये घुटने पर प्रमार्जन करके उस पर मुहपत्ती रखे तथा ओघे के मध्यभाग में गुरु के चरण-युगलों की कल्पना (स्थापना) करे ।।९।। तदनंतर दोनों हाथ लंबे करके दोनों जांघों
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