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गुरु वंदन सुत्र के अर्थ
योगशास्त्र तृतीय प्रकाश श्लोक १२९
इच्छामि खमासमणो! वंदिउं जावणिज्जाए निसीहिआए अणुजाणह मे मिउग्गहं, निसीहि, अहो काय काय संफासं खमणिज्जो भे । किलामो, अप्पकिलंताणं बहुसुभेण भे! दिवसो यड़कंतो? जत्ता भे! जयणिज्जं च भे! खामेमि खमासमणो! देवसियं वड़क्कमं, आवस्सियाए, पडिक्कमामि खमासमणाणं देवसिआए, आसायणाए, तित्तीसन्नयराए जं किंचि मिच्छाए मणदुक्कडाए, वयदुक्कडाए, कायदुक्कडाए, कोहाए, माणाए, मायाए, लोभाए, सव्वकालिआए, सव्यमिच्छोवयाराएं सव्यधम्माइक्कमणाए आसायणाए जो मे अइआरो कओ, तस्स खमासमणो पडिक्कमामि, निंदामि, गरिहामि अप्पाणं वोसिरामि ।
सूत्र - व्याख्या : - यहां पर द्वादशावर्त वंदन की इच्छा से शिष्य खमासमण रूप लघुवंदन पूर्वक संडासा प्रमार्जन | करके बैठे-बैठे पहले कहे अनुसार पच्चीस बोल से मुहपत्ती और पच्चीस बोल से शरीर का पडिलेहण करे, उसके | बाद परम विनय पूर्वक स्वयं मन-वचन-काया से शुद्ध होकर गुरुमहाराज के आसन से (अपने शरीरप्रमाणभूमि रूप) साड़े तीन हाथ अवग्रह के बाहर खड़े होकर कमर से ऊपर के भाग को धनुष्य की तरह जरा नमाकर ओघा - मुहपत्ति | हाथ में लेकर वंदन करने के लिए इस प्रकार से बोले - इच्छामि अर्थात् मैं चाहता हूं। किसी के दबाव या बलात्कार से वंदन नहीं करता, अपितु अपनी इच्छा से वंदन करता हूं। खमासमणो = हे श्रमाश्रमण ! इसमें क्षम् धातु के स्त्रीलिंग का आ प्रत्यय लगने से क्षमा शब्द बनता है। इसका अर्थ सहन करना होता है। तथा श्रम् धातु के कर्त्ता के अर्थ में अन् प्रत्यय लगने से श्रमण रूप बनता है। इसका अर्थ होता है-संसार के विषय में उदासीन होकर जो तप करता है अथवा | ज्ञान- दर्शन - चारित्र के बारे में या आत्म साधना में जो स्वयं श्रम (पुरुषार्थ) करता है, उसे श्रमण कहते हैं। इसका प्राकृत | भाषा के संबोधन में खमासमणो बनता है। क्षमा ग्रहण करने से मार्दव, आर्जव आदि गुणों का भी ग्रहण हो जाता है। | इसका अर्थ है-क्षमा आदि प्रधान गुणों से युक्त श्रमण = क्षमाश्रमण। यहां सूचित किया गया है कि - ऐसे क्षमादि गुणों से 'युक्त होने से वास्तव में वे वंदनीय है; अब क्या करने की इच्छा है? वंदिउं अर्थात् आपको वंदन करना है। वह किस तरह? जावणिज्जाए निसीहिआए इसमें निसीहिआए विशेष्य और जावणिज्जाए विशेषण है, निसीहिआए अर्थात् जिसमें | प्राणातिपात आदि पाप नहीं है, ऐसी जावणिज्जाए = सशक्त काया से । इस संपूर्ण वाक्य का अर्थ इस प्रकार है - हे क्षमादि | गुणों से युक्त श्रमण ! वंदन करने में हिंसा आदि न हो, इस तरह सशक्त काया से मैं आपको वंदन करना चाहता हूं। यहां पर थोड़ा-सा रुकना चाहिए। इस वंदन के समय गुरु आदि दूसरे कार्य में लगे हो अथवा कोई विघ्नवाला कार्य हो तो गुरु महाराज कह दे कि थोड़े समय के बाद करना, अभी रहने दे कारण कहने योग्य हो तो कहें, नहीं कहने योग्य हो तो न भी कहें, ऐसा चूर्णिकार का मत है। टीकाकार का मत है कि ऐसे समय में मन, वचन और काया तीनों | से वंदन करने का निषेध है, अतः शिष्य संक्षिप्त वंदन कर ले। और यदि गुरु दूसरे कार्य में रुके न हो और वंदन करने की आज्ञा दे दें और कहें कि -छंदेन=अभिप्रायेण= तुम्हारी इच्छा हो तो मुझे वंदन करो। मुझे आपत्ति नहीं; खुशी से वंदन करो। तब वंदन करने हेतु साढ़े तीन हाथ दूर खड़े होकर कहे - अणुजाणह मे मिउग्गहं आप मुझे अवग्रह में प्रवेश करने | की आज्ञा दीजिए। यहां पर चारों दिशा में अपने शरीर के प्रमाण में साढ़े तीन हाथ भूमि का आचार्य महाराज का अवग्रह होता है, उसमें उनकी अनुमति बिना प्रवेश नहीं कर सकता; कहा भी है-चारों दिशा में अपने शरीर के प्रमाणानुसार | स्थान गुरु का अवग्रह होता है, गुरु की आज्ञा बिना उसमें प्रवेश करना कदापि कल्पनीय नहीं है। तत्पश्चात् गुरु महाराज | कहें - अणुजाणामि यानी 'मैं प्रवेश करने की अनुज्ञा देता हूं', तब शिष्य भूमि का प्रमार्जन कर निसीहि कहकर अवग्रह में प्रवेश करे। गुरु महाराज के पास जाने के समय निसीहि का अर्थ है - सर्व अशुभ व्यापारों का त्याग करता हूं। बाद में संडासा के प्रमार्जन पूर्वक नीचे बैठे और गुरुमहाराज के चरणों के पास जमीन पर ओघा रखकर उस ओघे की दशियों (फलियों) के मध्य भाग में कल्पना से गुरु चरण-युगल की स्थापना करके दाहिने हाथ से मुहपत्ति पकड़कर, दाहिने कान से बांये कान तक ललाट को तथा दाहिने घुटने को तीन बार प्रमार्जन कर मुहपत्ती बाएँ घुटने पर स्थापित करे। उसके बाद अकार उच्चारण करते ही रजोहरण को स्पर्श करके, होकार का उच्चारण करे, उस समय ललाट का | स्पर्श करे, उसके बाद 'का' अक्षर के उच्चारण करते समय फिर उसी तरह हाथ से ओघे की दशियों का स्पर्श करना और 'यं' बोलते समय दूसरी बार ललाट के मध्य में स्पर्श करना, उसके बाद फिर 'का' बोलते वक्त ओघे और 'य'
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