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मूलदेव की कथा
योगशास्त्र द्वितीय प्रकाश श्लोक ७२ | इसे ही कलाविज्ञ का प्रमाणपत्र देना चाहिए। और नर्तकियों में श्रेष्ठ को प्रमाणपत्र के रूप में पताका दी जानी चाहिए। | राजा भी तदनुसार देने लगा। इस पर देवदत्ता ने कहा - 'यह मेरे गुरु है । मैं इनकी आज्ञा होने पर ही प्रमाणपत्रादि | स्वीकार करूंगी।' राजा ने भी कहा - 'महाभागे ! तुम इससे अनुमति लेने के बजाय, इसे अनुमति दो।' धूर्त मूलदेव ने | कहा - 'महाराज जैसी आज्ञा कर रहे है, वैसे ही करो।' उस समय धूर्तराज ने इतने आकर्षक ढंग से वीणा बजायी, मानो | यह कोई दूसरा देवगंधर्व हो । इसे देखकर विमलसिंह ने कहा- देव! हो न हो, यह प्रच्छन्नवेष में मूलदेव ही है। ऐसी | कला मूलदेव के सिवाय और किसी में नहीं हो सकती । निश्चय ही यह वही है, ऐसा मालूम होता है।' राजा ने धूर्तराज | को लक्ष्य करके कहा - यदि ऐसा है तो वह प्रकट हो जाये। मैं तो रत्न के समान मूलदेव के दर्शन करने को आतुर हूं। मूलदेव ने उसी समय अपने मुंह से जादूई गोली बाहर निकाली। इससे वह अपने असली रूप में बादलों से बाहर | निकलते हुए चंद्रमा के समान अति तेजस्वी मालूम होता था । 'अब मालूम हुआ कि तुम पूरे कलाविज्ञ हो ।' यों कहते | हुए विमलसिंह ने धूर्तसिंह का आलिंगन किया। तत्पश्चात् मूलदेव ने राजा को नमस्कार किया। राजा ने भी प्रसन्नता से | उसका सत्कार किया । पुरुवर के साथ उर्वशी के समान मूलदेव पर अनुरक्त देवदत्ता भी उसके साथ विषयसुखानुभव करती हुई जीवन व्यतीत कर रही थी । परंतु मूलदेव द्यूतक्रीड़ा के बिना रह नहीं सकता था । भवितव्यता के कारण उत्तम गुण वाले में भी कोई न कोई दोष लगा रहता है। देवदत्ता ने उससे सविनय निवेदन किया- 'प्राणेश्वर ! आप जुआ खेलना छोड़ दें।' किंतु बहुतेरा कहने पर भी मूलदेव उस दुर्व्यसन को छोड़ न सका। सच है, स्वभाव का त्याग करना अतिकठिन होता है।
उसी नगर में धनकुबेर के समान एवं रूप में साक्षात् कामदेव के समान अचल नाम का सार्थवाह रहता था; वह मूलदेव से पहले देवदत्ता से प्रेम करता था; और उसके साथ सुखानुभव करता था। वह मूलदेव के साथ ईर्ष्या करता | था और किसी न किसी बहाने से दोष ढूंढकर उपद्रव करना चाहता था । मूलदेव के कानों में इस बात की भनक पड़ी। वह भी किसी बहाने से इसके घर जाता रहता था । रागी पुरुषों का राग परवश होने पर भी प्रायः नहीं छूटता । एक | दिन देवदत्ता की माता ने उससे कहा- 'बेटी ! इस निर्धन जुआरी मूलदेव के पास अब क्या रखा है? इससे प्रेम करना छोड़ दे । प्रतिदिन द्रव्य देने वाले इस धनकुबेर अचल में ही रंभा की तरह दृढ़ अनुराग रख।' देवदत्ता बोली- 'माताजी ! मैं केवल धन की अनुरागिनी नहीं हूं, अपितु मैं गुणानुरागिनी हूं।' इस पर क्रूद्ध होकर माता ने कहा- 'भला, इस जुआरी में कोई गुण हो सकता है? सोच तो सही ।' देवदत्ता ने कहा- इसमें गुण क्यों नहीं है? यह धीर है, उदार है, | प्रियभाषी है। अनेक विद्याओं और कलाओं का विशेषज्ञ है, गुणानुरागी है, स्वयं गुणज्ञ है, इसलिए इसका आश्रय में कैसे छोड़ सकती हूं? मुझसे इसका त्याग नहीं होगा ।' तब से कपटकला प्रवीण कुट्टिनीमाता ने मूलदेव के प्रति अपनी पुत्री की प्रीतिभंग करने के विविध उपाय अजमाने शुरू किये। जब देवदत्ता उसके लिए पुष्पमाला मांगती तो वह उसे | मुर्झाए हुए वासी फूलों की माला दे देती, शरबत मांगती तो रंगीन पानी की बोतल उठाकर दे देती, ईख के टुकड़े मांगती | तो वह बांस के नीरस टुकड़े दे देती; चंदन मांगती तो कदंब का टुकड़ा दे देती । और ऊपर से उसे यों समझाती - 'बेटी! मैं जो कुछ कर रही हूं, उससे तुम बुरा मत मानना । जैसा देव (यक्ष) होता है, तदनुसार ही उसे बलि (भेंट) दी जाती है। जैसे कंटीले पेड़ का आश्रय लेकर बेल बड़े दुःख से रहती है, वैसे ही तूं इसका आश्रय क्यों लिये बैठी है? मेरी | समझ से अपात्र मूलदेव को तुम्हें सर्वथा छोड़ देना चाहिए। इस पर देवदत्ता झुंझलाकर बोली- 'बिना ही परीक्षा किये | किसे पात्र कहा जाय, किसे अपात्र ?' माता भी उत्तेजित स्वर में बोली- 'तो फिर परीक्षा क्यों नहीं कर लेती इनकी ?' | देवदत्ता ने हर्षित होकर अपनी दासी को आदेश देकर अचल को कहलवाया- 'आज देवदत्ता ईख खाना चाहती है, | अतः ईख भिजवा देना।' दासी ने जाकर अचल सार्थवाह से कहा तो उसने अपने आप को धन्य मानते हुए ईख का एक गाड़ा भरकर भेज दिया। गाडे को देखकर हर्षित कुट्टिनी ने अपनी पुत्री देवदत्ता से कहा- 'देख बेटी! अचल चिंतामणि की तरह कितना उदार और वांछित फल दायक है। जरा इसकी ओर विचार कर ।' खिन्न देवदत्ता ने माता से कहा- क्या मैं हथिनी हूं कि मूल और पत्ते सहित अखंड ईख मेरे खाने के लिए यहां गाड़ी भरकर डाल दी है।। अब आप मूलदेव को भी खाने के लिए ईख भेजने को कहलवाओ। फिर आपको मालूम हो जायेगा कि दोनों में क्या
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