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पौषधव्रत में सुदृढ़ चुलनीपिता श्रावक
योगशास्त्र तृतीय प्रकाश श्लोक ८६
चलनीपिता का संप्रदायगम्य दृष्टांत इस प्रकार है
श्रावकव्रतधारी चुलनीपिता की पौषध में दृढ़ता :
गंगानदी के किनारे विचित्र रचनाओं से मनोहर, पृथ्वी के तिलक - समान श्रेष्ठ वाराणसी नगरी में मनुष्यों में मूर्तिमान धर्म की तरह महासेठ नामक श्रेष्ठी रहता था। उसके यहां चुलनीपिता का जन्म हुआ। जगदानंददायी चंद्रमा की सहचारिणी जैसे श्यामा (रात्रि) है, वैसे ही उसके अनुरूप श्यामा नामकी उसकी रूपवती सहधर्मिणी थी। | चुलनीपिता के यहां कुल २४ करोड़ सोनैयों की संपत्ति थी - आठ करोड़ स्वर्णमुद्राएँ जमीन में खजाने के रूप में सुरक्षित | रखी हुई थी, आठ करोड़ मुहरें ब्याज के रूप में लगाई हुई थी और आठ करोड़ से उसका व्यवसाय चलता था। उसके | यहां दस-दस हजार के प्रत्येक गोकुल के हिसाब से ८ गोकुल थे। उसके घर में और भी अनेक प्रकार की संपत्ति थी। इस तरह वह काफी जमीन-जायदाद का मालिक था। एक बार वाराणसी के बाहर कोष्ठक उद्यान में चरमतीर्थंकर श्रमण भगवान् महावीरस्वामी विचरण करते हुए पधारें । भगवान् के चरणकमलों में वंदनार्थ सुरअसुर सहित इंद्र भी आये और नगरी का राजा जितशत्रु भी पहुंचा । चुलनीपिता ने जब यह सुना तो मन में आह्लादित होकर धर्मसभा के लिए उचित वस्त्राभूषण पहनकर पैदल चलकर वह भी त्रिलोकीनाथ भगवान् के चरणों में वंदनार्थ पहुंचा । भगवान् को वंदना | नमस्कार करके धर्मसभा में बैठकर परमभक्ति पूर्वक कर बद्ध होकर उसने भगवान् का प्रवचन सुना । प्रवचन समाप्त होने | पर चुलनीपिता ने विनयपूर्वक नमस्कार करके प्रभुचरणों में निवेदन किया- 'स्वामिन्! सूर्य जैसे केवल जगत् को प्रकाश | देने के लिए ही भ्रमण करता है, इसके सिवाय उसका कोई प्रयोजन नहीं है; वैसे ही आप भी मुझ सरीखे लोगों को | प्रतिबोध देने के लिए ही भूमंडल पर विचरण करते हैं। संसार में और सभी के पास तो जाकर याचना की जाती है, तब कोई देता है, कोई नहीं देता; परंतु आप तो बिना ही याचना किये निःस्पृहभाव से सम्मुख जाकर धर्मदेशना देते हैं। इसमें आपकी अहैतुकी कृपादृष्टि ही कारण है। मैं जानता हूं कि आपश्री के पास मुझे अनगारधर्म स्वीकार करना | चाहिए; लेकिन अभी इस अभागे में इतनी योग्यता, क्षमता और शक्ति नहीं कि इतना उच्च चारित्र का भार उठा सके; | वें धन्य हैं, जो पूर्ण चारित्र का भार उठाते हैं, दीक्षा लेते हैं। आपश्री से श्रावकधर्म ग्रहण करने की मेरी भावना है। | आपसे प्रार्थना है कि कृपया मुझे श्रावकधर्म प्रदान कीजिए । समुद्र जल से परिपूर्ण होता है, लेकिन घड़ा अपनी योग्यतानुसार ही उसमें से जल ले सकता है।
भगवान् ने उत्तर में कहा - 'देवानुप्रिय ! तुम्हें जैसा सुख हो, वैसा करो। परंतु धर्मकार्य में जरा भी विलंब मत करो।' तत्पश्चात् चुलनीपिता ने भगवान से १२ व्रत इस प्रकार ग्रहण किये। स्थूलहिंसा, स्थूल असत्य, स्थूल अदत्तादान | और अपनी पत्नी श्यामा के सिवाय तमाम स्त्रियों का त्याग किया, आठ करोड़ से अधिक स्वर्णमुद्राएं सूरक्षित निधि के रूप में, आठ करोड़ से अधिक व्यापार-धंधे में और आठ करोड़ से अधिक ब्याज के रूप में न रखने का नियम लिया । ५०० हलों से हो सके, इतनी खेती के लिए जमीन रखी । ५०० गाड़ियां परदेश में व्यापार के लिए, ५०० गाड़ियां भार | ढोने के लिए रखकर इससे अधिक का उस महामति ने त्याग किया। उसने ४ बड़े जलयान से अधिक न रखने का भी | नियम लिया। सातवें उपभोगपरिमाणव्रत में उसने २६ बोलों में से कुछ बोलों की मर्यादा इस प्रकार की - १. शरीर पोंछने के लिए सुगंधित काषायवस्त्र (तौलिया) के अतिरिक्त वस्त्र का, २. महुड़े के पेड़ के हरे दतौन से अतिरिक्त दतौन का, ३. आंवले के फल के सिवाय फल का, ४. सहस्रपाक और शतपाक तेल के सिवाय अन्य तेल लगाने का, ५. गंधाढ्य | के अलावा अन्य किसी वस्तु को शरीर पर मलने का, ६. आठ उष्ट्रिकाओं (मिट्टी के बड़े-बड़े घड़ों) से अधिक पानी | स्नान के लिए इस्तेमाल करने का, ७. दो सूती कपड़ों से अधिक वस्त्र का, ८. केसर, अगर और चंदन के अलावा किसी वस्तु के विलेपन का, ९. कमलजातीय पुष्प के अतिरिक्त पुष्पों की माला का, १०. काम के आभूषण और नामांकित | अंगूठी के सिवाय अन्य आभूषणों का, ११. तुरुष्क को छोड़कर अन्य धूप का, १२. इंधन से गर्म किये पेयपदार्थ के | अतिरिक्त अन्य पेय द्रव्यों का, १३. खाजा और घेवर के सिवाय अन्य खाद्यद्रव्यों का, १४. कलंबशाली (एक किस्म के | चावल ) ओदन के सिवाय अन्य सभी ओदनों का, १५. मटर, मूंग एवं उड़द की दाल के अलावा अन्य सभी दालों (सूप) का, १६. शरत्कालनिष्पन्न, गाय के घी के सिवाय अन्य सब घृतों का, १७. पालक और मंडूकी के शाक के सिवाय
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