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पांचवें (परिग्रहपरिमाण) व्रत के अतिचार और उनके लगने के कारण
योगशास्त्र तृतीय प्रकाश श्लोक ९४ आदि की और सोना-चांदी आदि परिग्रह की जो मर्यादा (परिमाण) निश्चित की हो, उससे अधिक रखना,
ये पाचवें व्रत के क्रमशः पांच अतिचार हैं ॥९४।।। व्याख्या :- श्रावकधर्मोचित परिग्रह-परिमाणव्रत में सद्गृहस्थ ने जो संख्या या मात्रा नियत की हो, उस संख्या या मात्रा का उल्लंघन करने पर अतिचार लगता है। सर्वप्रथम यहां धन और धान्य का स्वरूप बताते हैं। धन चार प्रकार का कहा गया है-गणिम, धरिम, मेय और परीक्ष्य। जायफल, सुपारी आदि जो चीजें गिनकर दी जाती हैं, वे गणिम कहलाती है; कुंकुम, गुड़ आदि जो चीजे तौलकर दी जाती हैं, वे धरिम कहलाती है और तेल, घी आदि जो चीजें नापकर (नापने के बर्तन से) दी जाती हैं, वे मेय कहलाती है; कपड़ा आदि चीजें भी गज आदि से नापी जाती है, इसलिए वे भी मेय के अंतर्गत है; और चौथा धन परीक्ष्य है-रत्न, गहने, मोती आदि इन्हें परीक्षा करके दिया जाता है। इन चारों प्रकारों में सभी वस्तुएँ आ जाती है, जिनकी श्रावक उसी तरह से मर्यादा करता है। धान्य १७ प्रकार का है-१. चावल, २. जौ, ३. गेहूँ, ४. चना, ५. जुआर, ६. उड़द, ७. मसूर, ८. अरहर, ९. मूंग, १०. मोठ, ११. चौंला (राजमा), १२. मटर (कुलथ), १३. तिल, १४. कोदो, १५. रागून (रौंगी) और १६. सन धान्य। अन्य ग्रंथों में २४ प्रकार के धान्य भी बताये हैं। धन और धान्य दोनों की जितनी मर्यादा निश्चित हो; उससे अधिक स्वयं रखना या दूसरे के यहां रखना, प्रथम धन्य-धान्यप्रमाणातिक्रम अतिचार है। बाह्य परिग्रह नौ प्रकार का है। यहां पर दो-दो प्रकार एकत्रित करके पांच अतिचार बताये हैं। दूसरा अतिचार कुप्यप्रमाणातिक्रम है। इसका अर्थ है-सोनेचांदी के सिवाय हल्की किस्म की धातुएँ–कांसा, तांबा, लोहा, शीशा, जस्ता, गिलट आदि धातुओं के बर्तन, चारपाई, पलंग, कुर्सी, सोफासेट, | अलमारी, रथ, गाड़ी, मोटर, हल, ट्रेक्टर आदि खेती के साधन और अन्य गृहोपयोगी सामान (फर्नीचर) कुप्य के
अंतर्गत आते हैं। ये और इन जैसी अन्य गृहोपयोगी सामान (फर्नीचर) कुप्य के अंतर्गत आते हैं। ये और इन जैसी अन्य गृहोपयोगी सामग्री की जितनी मर्यादा निश्चित हो, उसका उल्लंघन करना दूसरा कुप्यप्रमाणातिक्रम अतिचार है। तीसरा है-द्विपद-चतुष्पद-प्रमाणातिक्रम। दो पैर वाले द्विपद में मनुष्य, पुत्र-स्त्री, दास, दासी, नौकर आदि आते हैं, चतुष्पद में गाय, बैल, भैंस, बकरी, भेड़, गधा, ऊंट, हाथी, घोड़ा आदि जितने भी चौपाये पालतू जानवर है, वे आते हैं। इसी प्रकार तोता-मैना, हंस, मयूर, मुर्गा, चकोर आदि पक्षीभी इसी के अंतर्गत आते हैं। इनके रखने की जितनी संख्या नियत की हो, उससे अधिक रखना, द्विपद-चतुष्पदप्रमाणातिक्रम नामक तीसरा अतिचार है। चौथा हैक्षेत्रवास्तुप्रमाणातिक्रम। क्षेत्र (खेत) तीन प्रकार का होता है-सेतु, केतु और उभय क्षेत्र। सेतुक्षेत्र उसे कहते हैं, जो खेत (खेती की जमीन) कुंआ, बावड़ी आदि जलाशय, रेहट, कोश या पंप आदि द्वारा पानी खींचकर सींचा जाय और धान्य उगाया जाय। केतुक्षेत्र वह है-जिस खेत (खेती की भूमि) में केवल बरसात के पानी से सिंचाई होकर अनाज पैदा किया जाय। और उभय (सेतुकेतु) क्षेत्र उसे कहते हैं-जिस कृषिभूमि में पूर्वोक्त दोनों प्रकार से सिंचाई करके अन्नउत्पादन किया जाय। वास्तु कहते हैं-मकान को। इसका तात्पर्य खासतौर से रहने के मकान-घर से है। वास्तु तीन प्रकार का होता है-खात, उच्छ्रित और खातोच्छ्रित। जमीन के अंदर (भूगर्भ में) जो मकान हो, वह तलघर खात कहलाता है। तथा जो घर, दूकान, हवेली आदि जमीन के ऊपर हो, वह उच्छ्रित कहलाता है, तलघर के ऊपर मकान | बना हो यानी भूमिगृह और ऊपर का गृह दोनों नीचे-ऊपर हों वह खातोच्छ्रित कहलाता है। इसी तरह बाग, बगीचा, नौहरा, अतिथिगृह, कार्यालय, दूकान, राजा आदि के गांव या नगर; ये सब वास्तु के अंतर्गत है। यानी खुली और ढकी हुई जमीन तथा जायदाद सब क्षेत्र-वास्तु में शुमार है। इन दोनों की निश्चित की हुई संख्या का अतिक्रमण क्षेत्रवास्तु प्रमाणातिक्रम अतिचार है। ५. हिरण्य-सुवर्णप्रमाणातिक्रम नामक अतिचार है। हिरण्य का अर्थ-रजत (चांदी) है। सुवर्ण का अर्थ है-सोना। चांदी और सोना या चांदी या सोने के बने हुए सिक्के, गहने आदि सब हिरण्य-सुवर्ण के अंतर्गत है। इनकी जो मात्रा निश्चित की है, उसका अतिक्रम करना-हिरण्य-सुवर्णप्रमाणातिक्रम है। इन पांचों में व्याकरण की दृष्टि से समाहार-द्वंद्व-समास है। इसलिए इन पांचों (जोड़ों) के विषय में व्रत लेते समय चौमासेभर के | लिए या जिंदगीभर के लिए जितनी मात्रा, वजन, नाप, किस्म (प्रकार) या संख्या (गिनती) निश्चित की हो, उस परिमाण
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