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अरिहंत और भगवान् शब्द पर विवेचन
योगशास्त्र तृतीय प्रकाश श्लोक १२३ जहां अरिहंत रूप हो, वहां अरि यानी शत्रु, उनके हन्ता (हननकर्ता) होने से अरिहंत कहलाता है। वे शत्रु हैं-मिथ्यात्व मोहनीय आदि साम्परायिक कर्म जो बंधन के हेतुभूत हैं। अनेक भवों में जन्म-मरण के महादुःख को प्राप्त कराने में कारणभूत मिथ्यात्व आदि कर्मशत्रुओं को नष्ट करने से वे अरिहंत कहलाते हैं। तीसरी व्याख्या - रज को हरण करने से अरहंत। यहां रज से मतलब चार घातिकर्मों से है। जैसे सूर्य बादल में छिपा होने पर भी प्रकट रूप में प्रकाश नहीं दिखता, उसी तरह आत्मा चार घातीकर्म रूपी रज के ढका हुआ होने से ज्ञानदर्शनादिगुण रूप स्वभाव होने पर भी नहीं दिखता है। इसलिए आत्मगुणों को ढकने वाले घातिकर्म रूपी धूल को नाश करने से वे अरहंत कहलाते हैं। चौथी व्याख्या – उनसे कोई भी रहः यानी गुप्त नहीं होने से भी अरहंत कहलाते हैं। इसी तरह भगवान् के जो ज्ञानदर्शन गुण हैं, उन्हें प्राप्त करने में ज्ञानावरणीय आदि कर्मों की पराधीनता है, उनका सर्वथा नाश करके संपूर्ण, अनंत, अद्भुत, अप्रतिपाति, शाश्वत केवलज्ञान-केवलदर्शन उत्पन्न हुआ है, इन दोनों से वे संपूर्ण जगत् को सदा एक साथ जानते और देखते हैं। इस कारण उनसे कोई भी बात छिपी नहीं रहती, अतः वे अरहंत कहलाते हैं। इन तीनों व्याख्याओं में व्याकरण के "पृषोदरादयः सूत्र' से अर्हत् शब्द की सिद्धि तीन प्रकार से होती है। अथवा 'रहः' का अर्थ एकांत रू देश, पर्वतगुफा, स्थान, देश का अंत या मध्यभाग होता है। 'अ' शब्द अविद्यमान अर्थ का द्योतक है। यानी सर्वज्ञ एवं संपूर्णज्ञ होने से जिनके लिए कोई देश या स्थानादि एकांत या गुप्त नहीं रहे, इस कारण कोई बात छिपी न रहती हो वे अरहोऽन्तर कहलाते हैं। अथवा अरहदभ्यः रूप भी होता है। जिसका अर्थ है-राग क्षीण होने से जिसकी किसी भी पदार्थ में आसक्ति नहीं है। अथवा रागद्वेष का हेतुभूत इच्छनीय अथवा अनिच्छनीय पदार्थगत विषयों का संपर्क होने पर भी अपने वीतरागादि स्वभाव का त्याग नहीं करते; इस कारण वे अरहंत कहलाते हैं। अथवा 'अरिहंताणं' ऐसा पाठांतर भी है। उसका अर्थ है-कर्म रूपी शत्रु का नाश करने वाले, कहा भी है कि 'आठ प्रकार के कर्म सभी जीवों के शत्रु रूप हैं। उन कर्म आदि शत्रुओं का हनन करने से अरिहंत कहलाते है।' (आ. नि. ९२९) अरूहंताणं (अरोहद्भ्यः ) पाठांतर भी है। जिसका भावार्थ है-कर्मबीज क्षीण होने से जिसके संसार रूपी अंकुर फिर उगते नहीं। अथवा संसार में जिनका फिर जन्म नहीं होने वाला है, वे भी अरुहंत कहलाते हैं। इसलिए कहा भी है कि बीज सर्वथा जल जाने पर से अंकुर प्रकट नहीं होता, वैसे ही कर्मबीज सर्वथा जल जाने पर भव रूपी अंकुर प्रकट नहीं होता, यानी जन्म-मरण नहीं होता। (तत्त्वार्थ करिका ८) वैयाकरणों ने 'अर्हत्' शब्द के प्राकृत भाषा में तीन रूप माने हैं-१. अर्हत, २. अरिहंत और ३. अरुहंत। हमने भी सिद्धहैमव्याकरण के उच्चाहति ।।८।२।११।। सूत्र से तीन रूप सिद्ध किये हैं। 'उन अहंतों को नमस्कार हो।' ऐसा संबंध जानना।
'नमोत्थुणं' नमोऽस्तु में नमः शब्द के योग में चतुर्थी विभक्ति हुआ करती है, लेकिन चतुर्थ्याः षष्ठी ।।।८।३।।१३१।। इस सूत्र से प्राकृतभाषा में चतुर्थी के स्थान में षष्ठी विभक्ति का प्रयोग होता है। तथा जो एक ही परमात्मा को मानने वाले हैं; उनका खंडन करने के लिए बहुवचन का प्रयोग किया है, अद्वैतवादियों के एक ही परमात्मा मत वालों का खंडन करके व अनेक अरिहंत परमात्मा है, ऐसा सिद्ध करने के लिए तथा एक के बदले अनेकों को नमस्कार करने से अधिक फल मिलता है; यह बतलाने के लिए भी बहुवचन का प्रयोग किया है। और उन अरिहंत भगवान् के नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव से अनेक भेद हैं। यहां भाव-अरिहंत को मेरा नमस्कार हो, ऐसा बतलाने के लिए 'भगवंताणं' विशेषण का प्रयोग किया है। भगवंताणं में 'भग' शब्द के चौदह अर्थ होते हैं। वे इस प्रकार हैं१. सूर्य, २. ज्ञान, ३. माहात्म्य, ४. यश, ५. वैराग्य, ६. मुक्ति, ७. रूप, ८. वीर्य, ९. प्रयत्न, १०. इच्छा, ११. श्री, १२. धर्म, १३. ऐश्वर्य और १४. योनि। इनमें से भग के सूर्य और योनि इन दो अर्थों को छोड़कर शेष बारह अर्थ यहां मान्य | है। जिसमें भग-ज्ञान, वैराग्य आदि हो, उसे भगवान् कहते हैं।
... भगवान् के जीवन में 'भग' शब्द में निहित अर्थों की व्याख्या करते हैं-१. ज्ञान - गर्भ में आये, तब से लेकर दीक्षा तक भगवान् में मति, श्रुत और अवधि ये तीन ज्ञान होते हैं और दीक्षा लेने के बाद से घातिकर्म के क्षय होने तक चौथा मनःपर्यवज्ञान भी रहता है। तथा घातिकर्म के क्षय होने के बाद अनंतवस्तुविषयक समग्रभावप्रकाशक केवलज्ञान प्राप्त हो जाता है। २. माहात्म्य का अर्थ है - प्रभाव अतिशय। भगवान् के सभी कल्याणकों के समय नरक
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