________________
अरिहंत और भगवान् शब्द पर विवेचन
योगशास्त्र तृतीय प्रकाश श्लोक १२३ विद्यमान ऐसे आगारों से वह अविराधित होता है। अर्थात् कायोत्सर्ग का भंग नहीं होता है। वह कितने समय तक ? जाव अरिहंताणं भगवंताणं नमोक्कारेणं न पारेमि अर्थात् जब तक अरिहंत भगवान् को नमस्कार बोल करके - नमो अरिहंताणं | शब्दों का उच्चारण करके उसको न पार लूं । कायोत्सर्ग पूर्ण होने तक क्या करना है? इसे कहते हैं। ताव कायं ठाणेणं मोणेणं झाणेणं अप्पाणं वोसिरामि अर्थात् तब तक अपनी काया को स्थिर, निश्चल, मौन और ध्यान में एकाग्र करके | कायोत्सर्गमुद्रा में रखता हूं। भावार्थ यह है कि तब तक अपनी काया को स्थिर करके मौन और ध्यानपूर्वक मन में शुभ | चिंतन करने के लिए वोसिरामि अर्थात् अपने शरीर को अशुभ व्यापार (कार्य) से निवृत्त (अलग) करता हूं। कितने ही | साधक अप्पाणं पाठ नहीं बोलते। इसका अर्थ यह हुआ कि पच्चीस श्वासोच्छ्वास - काल- पर्यंत खड़ा होकर घुटने के दोनों और हाथ नीचे लटकाकर, वाणीसंचार रोककर श्रेष्ठध्यान का अनुसरण करता हुआ, मौन और ध्यानक्रिया से | भिन्न = अन्य क्रिया के अध्यास द्वारा त्याग करता हूं। लोगस्स उज्जोअगरे से लेकर चंदेसु निम्मलयरा तक २५ उच्छ्वास | पूर्ण होते हैं। इसके लिए पायसमा ऊसासा यह वचन प्रमाण है। कायोत्सर्ग संपूर्ण होने के बाद नमो अरिहंताणं इस प्रकार | बोलकर नमस्कारपूर्वक पारकर पूरा लोगस्स का पाठ बोले । यदि गुरुदेव हों तो उनके समक्ष प्रकट में बोले; और गुरुदेव न हों तो मन में गुरु की स्थापना करके ईर्यापथप्रतिक्रमण करके बाद में उत्कृष्ट चैत्यवंदन आरंभ करे । जघन्य और | मध्यम चैत्यवंदन तो ईर्यापथिक प्रतिक्रमण के बिना भी हो सकता है।
यहां नमस्कारपूर्वक णमो अरिहंताणं पद बोलना चाहिए और उत्तम कवियों द्वारा रचित काव्य बोलकर चैत्यवंदन करना चाहिए। उदाहरणार्थ - वीतरागप्रभो ! आपका शरीर ही आपकी वीतरागता बतला रहा है; क्योंकि जिस वृक्ष के कोटर में आग हो, वह वृक्ष हरा नहीं दिखाई देता । कई आचार्य कहते हैं - केवल प्रणाम करना जघन्य चैत्यवंदन है। | प्रणाम पांच प्रकार का है - १. केवल मस्तक से नमस्कार करना, एकांग प्रणाम है, २. दो हाथ जोड़ना, द्वयंग प्रणाम है, ३. दो हाथ जोड़ना और मस्तक झुकाना त्र्यंग प्रणाम है, ४. दो हाथ और दो घुटनों से नमन करना चतुरंग प्रणाम है | और ५. मस्तक, दो हाथ और दो घुटने, इन पांच अंगों से नमस्कार करना पचांग प्रणाम है। मध्यम चैत्यवंदन तो भगवत्प्रतिमा के आगे स्तव, दंडक और स्तुति के द्वारा होता है। इसके लिए कहा है- केवल नमस्कार से जघन्य चैत्यवंदन, दंडक और स्तुति से मध्यम चैत्यवंदन और विधिपूर्वक उत्कृष्ट चैत्यवंदन है। ये तीन प्रकार के चैत्यवंदन है । उत्कृष्ट चैत्यवंदन के इच्छुक सर्वविरति साधु, श्रावक अथवा अविरति सम्यग्दृष्टि या अपुनर्बन्धक यथाभद्रक भलीभांति प्रमार्जन और प्रतिलेखन की हुई भूमि पर बैठते हैं, फिर प्रभु की मूर्ति पर नेत्र और मन को एकाग्र करके | उत्कृष्ट संवेग और वैराग्य से उत्पन्न रोमांच से युक्त होकर आंखों से हर्षाश्रु बहाते हैं। तथा यों मानते हैं कि वीतराग प्रभु के चरण-वंदन प्राप्त होना अतिदुर्लभ है। 1 तथा योगमुद्रा से अस्खलित आदि गुणयुक्त होकर सूत्र के अर्थ का स्मरण करते हुए प्रणिपातदंडकसूत्र (नमोत्थुणं सूत्र ) बोलते हैं। इसमें तैंतीस आलापक पद हैं। ये आलापक , तीन, चार; तीन, पांच, पांच, दो, चार और तीन पद मिलकर कुल नौ संपदाओं ( रुकने के स्थान) में हैं। इन संपदाओं के नाम तथा प्रमाण, उनका अर्थ यथा-स्थान कहेंगे।
'नमोत्थुणं' पाठ की व्याख्या - नमोत्थुणं अरिहंताणं भगवंताणं - इसमें 'नमो' पद नैपातिक है। वह पूजा अर्थ में व्यवहृत होता है। पूजा द्रव्य और भाव से संकोच करके ( नम कर) करना चाहिए। जिसमें हाथ, सिर, पैर आदि शरीर के अवयवों को नमाना, द्रव्यसंकोच है और विशुद्ध मन को चैत्यवंदन आदि में नियुक्त करना, भावसंकोच है। अस्तु | का अर्थ है - 'हो' । इस प्रार्थना का आशय विशुद्ध होने से यह धर्मवृक्ष का बीज है। 'णं' वाक्यालंकार में प्रयुक्त किया गया है । जो अतिशय पूजा के योग्य हों, वे अहंत कहलाते हैं। कहा भी है-वंदन - नमस्कार करने योग्य, पूजा - सत्कार करने योग्य एवं सिद्धगति प्राप्त करने योग्य अहंत कहलाते हैं। (आ. नि. ९२१) अब दूसरी व्याख्या करते हैं | सिद्ध हैमशब्दानुशासन के सुद्विषार्हः सत्रिशत्रुस्तुत्ये ।।५।२।२६ । इस सूत्र से वर्तमानकाल में 'अतृश्' प्रत्यय लगता है। इस प्रकार 'अर्ह पूजायाम्' अर्ह धातु पूजा अर्थ में हैं, उसके आगे 'अत्' प्रत्यय लग जाने से 'अर्हत्' शब्द बना । अथवा 1. उत्कृष्ट चैत्यवंदन के इच्छुक को सीधा नमुत्थुणं बोलने का विधान किया है अतः उत्कृष्ट चैत्यवंदन की यह विधि वर्तमान में प्रचलित नहीं है।
258