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चैत्यवंदन के प्रकार
योगशास्त्र तृतीय प्रकाश श्लोक १२३ काउस्सग्ग करता हूं। इस प्रकार अन्वय करना है। उत्तरीकरणेणं का अर्थ है-इरियावहिय से पापशुद्धि करने के बाद विशेषशुद्धि के लिए। तात्पर्य यह है कि विराधना से पूर्व आलोचना-प्रतिक्रमण किया है; उसी के लिए फिर कायोत्सर्ग रूप कार्य उत्तरीकरण कहलाता है, उस कायोत्सर्ग से पाप-कर्मों का विनाश होता है। उत्तरीकरण प्रायश्चित्तकरण द्वारा होता है। अतः आगे कहा है-पायच्छित्तकरणेणं। अर्थात् प्रायः=अधिकृत, चित्त को अथवा जीव को जो शुद्ध करता | है या पाप का छेदन करता है, उसे प्रायश्चित्त कहते हैं। जिसके करने से आत्मा विशेष शुद्ध होती है। और वह काउस्सग्ग-प्रायश्चित्त भी विशुद्धि का कारण होने से कहते हैं-विसोहीकरणेणं अर्थात् अतिचारमलिनता (अपराध) को दूर करके आत्मा की विशुद्धि-निर्मलता करके। वह निर्मलता भी शल्य के अभाव में होती है। इसलिए कहा हैविसल्लीकरणेणं अर्थात् मायाशल्य, निदान-(नियाणा) शल्य और मिथ्यादर्शनशल्य, इन तीनों शल्यों से रहित होकर। वह किसलिए? पावाणं कम्माणं निग्घायणट्ठाए अर्थात् संसार के कारणभूत ज्ञानावरणीय आदि पापकर्मों का नाश करने के लिए, ठामि काउस्सग्गं, ठामि का अर्थ होता है-करता हूं। और काउस्सग्गं का अर्थ होता है-काया के व्यापारशारीरिक प्रवृत्तियों का त्याग। क्या सर्वथा त्याग करते हो? सर्वथा नहीं, किन्तु कुछ प्रवृत्तियां अपवादस्वरूप आगार (छूट) रूप में रखकर काउस्सग्ग करता हूं। ___. वे इस प्रकार-अन्नत्थ ऊससिएणं नीससिएणं अर्थात्-उच्छ्वास और निःश्वास को छोड़कर। मतलब यह है कि श्वासोच्छ्वास का निरोध करना अशक्य है, इसलिए श्वास खींचने और निकालने की छूट रखी गयी है। खासिएणं-खांसी आने से, छिएणं छींक आने से, जंभाइएणं जमुहाई आने से, उड्डुएणं डकार आने से, वायनिसग्गेणं अपानवायु खारिज होने से भमलीए अकस्मात् शरीर में चक्कर आ जाने से, पित्तमुच्छाए=पित्त के प्रकोप के कारण मूर्छा आ जाने से; सुहुमेहि अंगसंचालेहि-सूक्ष्म रूप से अंग का संचार होने से शरीर की बारीक हलनचलन से, सुहुमेहं खेलसंचालेहि सूक्ष्म कफ या थूक के संचार से, सुहुमेहि दिट्ठिसंचालेहि-सूक्ष्म रूप से नेत्रों के संचार से, पलक गिरने आदि से, अर्थात्-उच्छ्वास आदि बारह कारणों को छोड़कर शरीर की क्रिया का त्याग करता हूं। वह कायोत्सर्ग किस प्रकार का हो? एवमाइएहिं आगारेहिं अभग्गो अविराहिओ हुज्ज मे काउस्सग्गो अर्थात् इस प्रकार ये और इत्यादि प्रकार के पूर्वोक्त आगारों-अपवादों से अखंडित, विराधना-रहित मेरा कायोत्सर्ग हो। कुछ आकस्मिक कारण हैं, उन्हें भी ग्रहणकर लेना चाहिए। यानी जब कोई बिल्ली चूहे को पकड़कर खाने को उद्यत हो, तब चूहे की रक्षा के लिए, अकस्मात् बिजली गिरने की हो, भूकंप हो जाय या अग्नि-सादि का उपद्रव हो जाय, ज्योति का स्पर्श हो तब काँबल ओढ़ने के लिए ले-ले तो बीच में ही कायोत्सर्ग खोल लेने पर भी उसका भंग नहीं होता। ___ यहां प्रश्न होता है कि-नमो अरिहंताणं कहकर कायोत्सर्ग पूर्णकर काय-प्रवृत्ति करे तो उसका भंग कैसे हो जायगा? वस्तुतः ऐसा करने से कायोत्सर्गभंग नहीं होना चाहिए। इसके उत्तर में कहते हैं-प्रत्येक काउस्सग्ग प्रमाणयुक्त होता है। हालांकि जब तक नमो अरिहंताणं न कहे, तब तक काउस्सग्ग होता है; तथापि जितने परिमाण में लोगस्स या नवकारमंत्र का काउस्सग्ग करने का निश्चय किया हो, वह पूर्ण करके ही उच्च-स्वर से नमो अरिहंताणं बोला जाता है, तभी काउस्सग्ग अखंडित व पूर्ण रूप में होता है। काउस्सग्ग पूर्ण होने पर भी नमो अरिहंताणं न बोले तो काउस्सग्ग-भंग होता है। इसलिए कायोत्सर्ग पूर्ण होने पर नमो अरिहंताणं बोलना चाहिए। तथा बिल्ली चूहे पर झपट रही हो उसे बचाने के लिए खिसके या कायप्रवृत्ति करे तो काउस्सग्ग-भंग नहीं होता। तथा चोर, राजा अथवा एकांत स्थान में भय का कारण उपस्थित होने पर या खुद को अथवा अन्य साधु को सर्प ने काट खाया हो तो बीच में ही नमो अरिहंताणं का सहसा उच्चारण करके कायोत्सर्ग पार ले तो काउस्सग्ग-भंग नहीं होता। कहा भ फैलने से, जलने से, पंचेंद्रिय जीव बीच में से होकर निकल रहा हो या चोर, राजा आदि का उपद्रव हो अथवा सर्प के काटने से; इन आगारों से काउस्सग्ग भंग नहीं होता।
- आगार का व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ है-आक्रियन्ते आगृह्यन्ते इत्याकारः आगारः। जो अच्छी तरह से किया जाय या अच्छी तरह से ग्रहण किया जाय, उसे आगार कहते हैं। आगार का रहस्य है-कायोत्सर्ग में गृहीत अपवाद। ऐसे आगार न रहें तो कायोत्सर्ग सर्वथा भग्न विनष्ट नहीं हो तो भी देशतः भग्न (नष्ट) हो ही जाता है। जबकि कायोत्सर्ग में
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