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इरियावहिया पाठ पर व्याख्या
योगशास्त्र तृतीय प्रकाश श्लोक १२३
तरह क्रमशः पूछते-पूछते शिवजी के दिगंबर होने के संबंध में पूछने पर कार्तिकेय को बांये हाथ से रोकती हुई। | पार्वतीदेवी का मधुर हास्य तुम्हारी रक्षा करे। और भी देखिए - सुरतक्रीड़ा के अंत में शेषनाग पर एक हाथ को जोर से | दबाकर खड़ी हुई और दूसरे हाथ से वस्त्र को ठीक करके बिखरे हुए केश की लटों को कंधों पर धारण करती हुई उस | समय मुखकांति से द्विगुणित शोभाधारी, स्नेहास्पद कृष्ण द्वारा आलिंगित एवं पुनः शय्या पर अवस्थित आलस्य से | सुशोभित बाहु वाला लक्ष्मी का शरीर तुम्हें पवित्र करे । [ ऐसे श्लोक भगवान के सामने नहीं बोलने हैं]
इन श्लोकों में संपूर्ण वंदनविधि समझाई गयी है। उसका भाषांतर - १. तीन स्थान पर निसीहि, २. तीन बार | प्रदक्षिणा, ३. तीन बार नमस्कार, ४. तीन प्रकार की पूजा, ५. जिनेश्वर की तीन अवस्था की भावना करना, ६ . जिनेश्वर को छोड़कर शेष तीनों दिशाओं में नहीं देखना, ७. तीन बार पैर और जमीन का प्रमार्जन करना, ८. वर्णादि तीन का आलंबन करना, ९ तीन प्रकार की मुद्रा करना और १०. तीन प्रकार से प्रणिधान करना। ये दस 'त्रिक' कहलाते हैं। इसमें पुष्प से अंगपूजा, नैवेद्य से अग्रपूजा और स्तुति से भावपूजा; इस तरह तीन प्रकार की जिनपूजा बतायी है । तथा | इस समय जिनेन्द्रदेव की छद्मस्थ, केवली और सिद्धत्व इन्हीं तीनों अवस्थाओं का चिंतन करना होता है। चैत्यवंदनसूत्रों का पाठ, उनका अर्थ और प्रतिमा के रूप का आलंबन लेना; यह वर्णादित्रिक का आलंबन कहलाता है। मन| वचन काया की एकाग्रता करना यह तीन प्रकार का प्रणिधान कहलाता है। स्तवन बोलते समय योगमुद्रा, वंदन करते | समय जिनमुद्रा तथा प्रणिधान - (जय वीयराय) सूत्र बोलते समय मुक्ताशुक्ति मुद्रा, ये तीन मुद्राएं कही है। नमस्कार पांच अंगों से होता है - दोनों घुटने, दोनों हाथ और पांचवां मस्तक ये पांचों अंग जमीन तक नमाना, पंचांग प्रणाम कहलाता है। दोनों हाथों की दसों अंगुलियां एक दूसरे के बीच में रखकर कोश जैसी हथेली का आकार बनाकर, दोनों हाथों की | कोहनी पेट के ऊपर स्थापन करने से योगमुद्रा होती है, दोनों चरणतलों के बीच में आगे के भाग में चार अंगुल और पीछे कुछ कम चार अंगुल का फासला रखकर दोनों पैर समान रखकर खड़े होना तथा दोनों हाथ नीचे लंबे लटकते | रखना यह जिनमुद्रा है। और दोनों हाथों की अंगुलियाँ एक दूसरे के आमने-सामने रखनी होती है और बीच में से | हथेली खाली रखकर दोनों हाथ ललाट पर लगाना अथवा अन्य आचार्य के मतानुसार ललाट से थोड़े दूर रखने से मुक्ताशुक्तिमुद्रा होती है। (पंचा. ३/१७-२१)
इरियावहिय सूत्र का अर्थ - इसके बाद ऐर्यापथिक-प्रतिक्रमणपूर्वक चैत्यवंदन करना चाहिए। यहां ऐर्यापथिक सूत्र | की व्याख्या करते हैं - इस सूत्र में 'इच्छामि पडिक्कमिडं' से लेकर 'तस्स मिच्छा मि दुक्कडं' तक संपूर्ण सूत्र है, इसमें 'इच्छामि पडिक्कमिउं इरियावहियाए विराहणार' अर्थात् जाने-आने में जिन जीवों की विराधना (पापक्रिया) हुई हो | उससे निवृत्त होने की अभिलाषा करता हूं। इसका भावार्थ यह है कि ईर्या-अर्थात् गमन करना, चलना, फिरना। उसके लिए जो मार्ग है, वह ईर्यापथ कहलाता है, उसमें जीवहिंसादि रूप विराधना ईर्यापथ-विराधना है। उस पाप से पीछे हटना या बचना चाहता हूं। इस व्याख्या अनुसार गमनागमन की विराधना से हुए पाप की शुद्धि के लिए ईर्यापथिक प्रतिक्रमण किया जाता है। किन्तु निद्रा से जागने के बाद अथवा अन्य कारणों से भी ईरियावहिय पाठ बोला जाता है, | इसलिए उसकी व्याख्या दूसरे प्रकार से करते हैं- ईर्यापथ अर्थात् साधु का आचार। यहां पर कहा है कि 'ईर्यापथो मौनध्यानादिकं भिक्षुव्रतम्।' अर्थात् ईर्यापथ मौन, ध्यानव्रत आदि साधु का आचरण है। इस दृष्टि से ईर्यापथविराधना का | अर्थ हुआ - साधु के आचरण के उल्लंघन रूप कोई विराधना हुई हो तो उस पाप से पीछे हटने अथवा उसकी शुद्धि करना चाहता हूं। साधु के आचार का उल्लंघन करने का अर्थ है - प्राणियों के प्राण का वियोग करना, असत्य, चोरी, अब्रह्मचर्य, | परिग्रह इत्यादि अठारह पापस्थानों में से किसी भी पाप का लगना । इसमें प्राणातिपात का पाप सबसे बड़ा पाप है, शेष | पापस्थानकों का उसी में समावेश हो जाता है। ईर्यापथिक विराधना संबंधी पाठ में प्राणातिपात -संबंधी विराधना विस्तार से कही है। विराधना किस कारण से होती है? इसे कहते हैं-गमणागमणे अर्थात् जाने या वापस आने के प्रयोजनवश बाहर जाना और प्रयोजन पूर्ण होने पर अपने स्थान पर आना, गमनागमन कहलाता है। इस गमनागमन के करने में कैसे-कैसे विराधना होती है? उसे कहते हैं- पाणक्कमणे, बीयक्कमणे हरियक्कमणे प्राण अर्थात् द्वीन्द्रिय से लेकर | पंचेन्द्रिय तक सर्वजीवों को पैर से पीड़ा देना, प्राण का अतिक्रमण करना । तथा बीज अर्थात् सर्व-स्थावर एकेन्द्रिय जीवों
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