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इरियावहिया पाठ पर व्याख्या
योगशास्त्र तृतीय प्रकाश श्लोक १२३ व्याख्या :- प्रभुमंदिर में विधि पूर्वक प्रविष्ट होकर श्रीजिनेश्वर भगवान् को तीन प्रदक्षिणा करनी चाहिए। श्रीजिनमंदिर की प्रवेश विधि इस प्रकार है - पुष्प, तांबूल आदि सचित्त द्रव्य तथा छुरी, पादुका, शस्त्र आदि चित् | पदार्थों का त्यागकर, उत्तरासंग (दुपट्टा) डालकर मंदिर जाये। वहां प्रभु के दर्शन होते ही अंजलि करके उस पर मस्तक | स्थापन कर मन को एकाग्र करके पांच अभिगम पूर्वक 'निसीहि निसीहि' करते हुए मंदिर में प्रवेश करे। यही बात अन्यत्र भी कही है कि - सचित्त वस्तुओं के त्याग पूर्वक, अचित्त वस्तुओं को रखकर अखंड वस्त्र का एक उत्तरासंग धारण करके आंखों से दर्शन होते ही मस्तक पर दोनों हाथ जोड़कर और मन की एकाग्रता पूर्वक प्रवेश करे। (भागवती २
यदि राजा हो तो भगवान् के मंदिर में प्रवेश करते समय वह उसी समय राजचिह्न का त्याग करता है। (विचार सार गा. ६६५) अतः कहा है कि 'तलवार, छत्र, पदत्राण (जूते ) मुकुट और चामर इन पांचों राजचिह्नों का मंदिर में प्रवेश करते ही त्याग करे । 'पुष्प' आदि से यहां मध्य का ग्रहण किया गया है। इसलिए मध्य ग्रहण से आदि और अंत का भी ग्रहण कर लिया जाता है। इस न्याय से नित्य और पर्व दिनों में विशेष प्रकार से स्नात्र पूर्वक पूजा करनी चाहिए। स्नात्र के समय पहले सुगंधित चंदन से जिनप्रतिमा के तिलक करना, उसके बाद कस्तूरी, अगर कपूर और चंदन - मिश्रित | सारभूत सुगंधियुक्त उत्तम धूप प्रभु के आगे जलाये। (अर्ह अभिषेक ३ / ७७) धूप रखने के बाद समस्त औषधि आदि द्रव्यों को जलपूर्ण कलश में डाल दे, बाद में कुसुमांजलि डालकर सर्व औषधि कपूर, केसर, चंदन, अगुरु आदि से युक्त जल से तथा घी, दूध आदि से प्रभु को स्नान करावे । उसके बाद चंदन घिसकर प्रभु के विलेपन करे। तत्पश्चात् सुगंधि चंपक, शतपत्र, कमल, मोगरा, गुलाब आदि की फूलमालाओं से भगवान् की पूजा करे। बाद में रत्न, सुवर्ण एवं मोतियों के आभूषण से अलंकृत वस्त्रादि से आंगी रचे । उसके बाद प्रभु के सम्मुख सरसों, शालि, चावल आदि से अष्टमंगल का आलेखन करे । तथा उनके आगे नैवेद्य, मंगलदीपक, दही, घी आदि रखे । भगवान् के भालस्थल पर गोरोचन से | तिलक करे । उसके बाद आरती उतारे । अतः कहा भी है- श्रेष्ठगंधयुक्त धूप, सर्व - औषधिमिश्रित जल, सुगंधित विलेपन, श्रेष्ठ पुष्पमाला, नैवेद्य, दीपक, सिद्धार्थक (सरसों), दही, अक्षत, गोरोचन आदि से सोने, मोती व रत्न के हार आदि उत्तम द्रव्यों से प्रभु-पूजा करनी चाहिए। क्योंकि श्रेष्ठसामग्री से की हुई पूजा से उत्तम भाव प्रकट होते हैं। | इसके बिना लक्ष्मी का सदुपयोग नहीं हो सकता। इस तरह श्री जिनेश्वर भगवान् की भक्तिपूर्वक पूजा करके ऐर्यापथिक प्रतिक्रमण सहित शक्रस्तव ( नमुत्थुणं) आदि सूत्रों से चैत्यवंदन करके उत्तम कवियों द्वारा रचित स्तवनों से भगवान् के गुणों का कीर्तन करना चाहिए। उत्तम स्तोत्र का लक्षण यह है - वह भगवान् के शरीर, क्रियाओं व गुणों को बताने वाला, गंभीर, विविध वर्णों से गुंफित, निर्मल आशय का उत्पादक, संवेगवर्द्धक, पवित्र एवं अपने पापनिवेदनपरक, | चित्त को एकाग्रकर देने वाला, आश्चर्यकारी अर्थयुक्त, अस्खलित आदि गुणों से युक्त, महाबुद्धिशाली कवियों द्वारा रचित स्तोत्र हो । उससे प्रभु की स्तुति करनी चाहिए, ( षोडशक ९/६७) परंतु निम्न प्रकार के दोषयुक्त स्तोत्र आदि नहीं बोलने चाहिए। जैसे कि
'ध्यानमग्न होने से एक आंख मूंदी हुई है और दूसरी आंख पार्वती के विशाल नितंब - फलक पर शृंगाररस के भार से स्थिर बनी हुई है। तीसरा नेत्र दूर से खींचे हुए धनुष की तरह कामदेव पर की हुई क्रोधाग्नि से जल रहा है। | इस प्रकार समाधि के समय में भिन्न रसों का अनुभव करते हुए शंकर के तीनों नेत्र तुम्हारी रक्षा करे।' तथा पार्वती ने शंकर से पूछा- आपके मस्तक पर कौन भाग्यशाली स्थित है? तब शंकर ने मूलवस्तु को छिपाकर उत्तर दिया| शशिकला । फिर पार्वती ने पूछा- उसका नाम क्या है? शंकर ने कहा- उसका नाम भी वही है। पार्वती ने पुनः कहाइतना परिचय होने पर भी किस कारण से उसका नाम भूल गये? मैं तो स्त्री का नाम पूछती हूं। चंद्र का नाम नहीं पूछती ! | तब शंकर ने कहा - यदि तुमको यह चंद्र प्रमाण न हो तो अपनी सखी विजया से पूछ लो कि मेरे मस्तक पर कौन बैठा | है ? इस तरह कपट से गंगा के नाम को छिपाना चाहते हुए शंकर का कपटभाव तुम्हारी रक्षा के लिए हो। तथा प्रणाम करते हुए कोपयमान बनी पार्वती के चरणाग्र रूप दशनख रूपी दर्पण में प्रतिबिंबित होते हुए दस और स्वयं मिलकर ग्यारह देहों को धारण करने वाले रूद्र नमन करो। तथा कार्तिकेय ने पार्वती से पूछा- मेरे पिता के मस्तक पर यह | क्या स्थित है? उत्तर मिला-चंद्र का टुकड़ा है। और ललाट में क्या है? तीसरा नेत्र है। हाथ में क्या है? सर्प है। इस