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स्त्री सिद्धि की सिद्धि
योगशास्त्र तृतीय प्रकाश श्लोक १२३ | पुरुषलिंग में ही होते है । ११. रजोहरण (ओघा) आदि द्रव्यलिंग रूप स्वलिंग में सिद्ध होते हैं, वे स्वलिंगसिद्ध कहलाते हैं । १२. परिव्राजक आदि अन्यलिंग - (वेश) में सिद्ध = मुक्त होते हैं; वे अन्यलिंगसिद्ध है । १३. मरुदेवी आदि गृहस्थलिंग में सिद्ध हुए हैं, वे गृहस्थलिंग सिद्ध होते हैं । १४. एक समय में एक ही सिद्ध हो, वहां एकसिद्ध और १५. एक समय में उत्कृष्ट १०८ सिद्ध हुए हों, वहां अनेकसिद्ध कहलाते हैं। इस तरह सिद्ध - (मुक्त) होने के विभिन्न १५ प्रकार है। इसलिए कहा भी है कि- एक से लेकर बत्तीस तक साथ में सिद्ध तो उत्कृष्ट आठ समय लगता है। तैंतीस | से अड़तालीस तक साथ में सिद्ध होने पर उत्कृष्ट सात समय में, उनचास से साठ तक साथ में सिद्ध होने वाले उत्कृष्ट छः समय में, इकसठ से बहत्तर तक सिद्ध होने वाले उत्कृष्ट पांच समय में, तिहत्तर से चौरासी तक सिद्ध होने वाले को उत्कृष्ट चार समय में, पंचासी से छियानवे तक सिद्ध होने वाले उत्कृष्ट तीन समय में, सतानवे से एक सौ दो तक साथ सिद्ध होने वाले उत्कृष्ट दो समय में और एकसौ तीन से एक सौ आठ तक साथ में सिद्ध होने वाले उत्कृष्ट एक समय में मोक्ष जाते हैं। उसके बाद निश्चय ही अंतर पड़ता है।
सिद्ध के जो १५ भेद कहे हैं, उनमें प्रथम तीर्थसिद्ध और बाद में अतीर्थसिद्ध कहा है, इन दोनों में शेष भेद समाविष्ट हो सकते हैं; क्योंकि तीर्थंकरसिद्ध आदि का तीर्थसिद्ध में अथवा अतीर्थसिद्ध में समावेश हो सकता है। फिर अन्य भेद की क्या आवश्यकता है? इसका उत्तर देते हैं, आपका तर्क उचित है, फिर भी दो ही भेद कहने से | सर्वसाधारण को अन्य भेदों का ज्ञान नहीं हो सकता; इसलिए दूसरे भेदों को बताना जरूरी है, मगर उन्हें उत्तरभेद कहा | जा सकता है। इस तरह सामान्य रूप से सर्वसिद्धों की स्तुति करके निकट उपकारी वर्तमान शासनाधिपति श्रीमहावीरस्वामी की स्तुति करते हैं
जो देवाण वि देवो, जं देवा पंजली नमंसंति । तं देवदेवमहिअं, सिरसा वदे महावीरं ॥२॥
अर्थ
जो देवों के भी देव हैं, जिनको देव दोनों हाथ जोड़कर नमस्कार करते हैं तथा जो इंद्रों से पूजित हैं, उन श्री महावीर स्वामी को मस्तक झुकाकर वंदन करता हूं ||२||
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- भगवान् महावीर स्वामी देवाण वि अर्थात् भवनपति आदि सभी देवों के भी पूज्य होने से देवो = देव हैं। जं देवा पंजली नम॑सति अर्थात् जिनको देव भी विनय पूर्वक हाथों की अंजली कर हाथ जोड़कर नमस्कार करते हैं। तं | देव-देव महियं वे देवों के भी देव इंद्रादि से पूजित महावीरं = भगवान् महावीर स्वामी को सिरसा वंदे अर्थात् मस्तक से | वंदन करता हूं। यह कथन अत्यंत आदरपूर्वक सत्कार बताने के लिए किया है। अब महावीर कैसे हैं? इसे विशेषण द्वारा | बताते हैं - सर्वथा कर्मों का नाश करने वाले अथवा जो विशेष पराक्रम से मोक्ष में जाते हैं, उन्हें वीर कहते हैं और उन वीरों में भी महान् वीर भगवान् महावीर है, ऐसा देवताओं ने नाम दिया; उनको मस्तक झुकाकर नमस्कार करता हूं। | इस प्रकार से स्तुति करके फिर परोपकार के लिए और अपने आत्मभावों की वृद्धि के लिए स्तुति का फल बताने वाली | गाथा कहते हैं
इक्को वि नमुक्कारो, जिणवरवसहस्स वद्धमाणस्स । संसारसाराओ, तारेड़ नरं व नारीं वा ॥३॥
अर्थ :- जिनवरों में उत्तम श्री वर्धमान स्वामी को किया हुआ एक बार भी नमस्कार, नर या नारी को संसार
सागर से तार देता है।
इक्को वि नमुक्कारो अर्थात् बहुत बार नमस्कार करने की बात तो दूर रही, केवल एक बार ही नमस्कार जो द्रव्य | से मस्तकादि झुकाने के रूप में शरीर को संकोच करने से और भाव से मन की एकाग्रता रूप नमन ( संकोचलक्षण) से |जिणवरवसहस्स= यहां 'जिन' कहने से श्रुतजिन, अवधिजिन आदि जिनों से भी बढ़कर केवली जिन और उनमें भी | वीर= श्रेष्ठ होने से जिनवर हैं, सामान्य केवलियों में भी तीर्थंकर नामकर्म के उदय वाले भगवान् उत्तम होते हैं। अतः जिनवरों में वृषभसमान। यों तो ऋषभदेव आदि सभी तीर्थंकर वृषभ के समान उत्तम हैं, इसलिए यहां पर विशेष नाम कहते हैं, वद्धमाणस्स अर्थात् श्री वर्धमान स्वामी को आदर पूर्वक किया हुआ एक बार भी नमस्कार। इस नमस्कार से | क्या होता है? संसार सागराओ तारेइ अर्थात् तिर्यंच, नारक, मनुष्य और देव रूप जीवों का परिभ्रमण संसरण ही संसार है, इस संसार में भवस्थिति एवं काय-स्थिति आदि अनेक प्रकार की अवस्था होने से समुद्र के समान उसका पार करना बड़ा कठिन होता है। अतः संसार ही सागर है, इस संसार सागर से तार देता है - पार उतार देता है । किसको ? नर |
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