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संध्या का कार्यक्रम, गुरुवंदन विधि
योगशास्त्र तृतीय प्रकाश श्लोक १२८ से १२९ व्याख्या :- यहां जो अर्थोपार्जन की चिंता कही है, वह अनुवादमात्र समझना; क्योंकि यह बात प्रेरणा के बिना स्वतःसिद्ध है। उसका विधान इस प्रकार से समझना सद्गृहस्थ की अर्थचिन्ता धर्म से अविरोधी रूप में हो।' धर्म का अविरोध इस प्रकार समझना-यदि राजा हो तो उसे दरिद्र या श्रीमान्, मान्य हो या अमान्य, उत्तम हो अथवा नीच, किसी के प्रति पक्षपात रखे बिना न्याय करना चाहिए। और राजसेवक को राज्य और प्रजा की निष्ठापूर्वक यथार्थसेवा करनी चाहिए। तथा व्यापारी को चाहिए कि वह झूठे नाप-तौल (बांट-जग) छोड़कर पंद्रह-कर्मादान रूप व्यवसाय | रहित अर्थ का चिंतन करे ।।१२७।।। ।२९९। ततो माध्याह्निकी पूजा, कुर्यात् कृत्वाऽ च भोजनम् । तद्विद्भिः सह शास्त्रार्थं रहस्यानि विचारयेत् ॥१२८|| अर्थ :- तत्पश्चात् दिन की मध्यकालिनी प्रभु-पूजा करके फिर भोजन करे। यह आधे श्लोक का भावार्थ है,
मध्याह्न को ही भोजन हो, ऐसा कोई नियम नहीं है, जब तीव्र भूख लगी हो, उसी समय को भोजनकाल कहा है। यदि मध्याह्नकाल के पहले भी पच्चक्खाण पारकर देवपूजा करके भोजन करे तो दोष नहीं है। उसकी विधि इस प्रकार है-जिनपूजा, उचित दान, कुटुंब परिवार की सारसंभाल लेना, उनके योग्य उचित कर्त्तव्य का पालन करना, भूल हो तो समझाना अथवा उपदेश देना तथा स्वयं द्वारा किये हुए पच्चक्खाण का स्मरण करना। भोजन करने के बाद यथाशक्ति गंठसी, वेढसी, मुट्ठसी सहित कोई भी पच्चक्खाण कर लेना चाहिए। प्रमाद-त्याग के अभिलाषी आत्मा को एक क्षण भी प्रत्याख्यान के बिना | नहीं रहना चाहिए। प्रत्याख्यान करने के बाद शास्त्रों के अर्थ और तात्पर्य पर विचारविमर्श करने हेतु शास्त्रविज्ञों या धर्मगुरुओं का सत्संग करना चाहिए और गुरु-मुख से उस शास्त्र के रहस्यों को सुनने के बाद बार-बार उस पर परिशीलन, पर्याप्त चिन्तन-मनन आदि न किया जाय, तब तक वह पदार्थ
भलीभांति हृदयंगम नहीं हो सकता ।।१२८।। ||३००। ततश्च सन्ध्यासमये, कृत्वा देवार्चनं पुनः । कृतावश्यककर्मा च, कुर्यात् स्वाध्यायमुत्तमम्।।१२९।। अर्थ :- उसके बाद भोजन करके संध्या-समय फिर देव-पूजा करके प्रतिक्रमण आदि षट् आवश्यक क्रिया करे,
फिर उत्तम स्वाध्याय करे ॥१२९।। व्याख्या :- तत्पश्चात् यदि दो बार भोजन करता हो तो विकाल अर्थात् शाम के समय दो घड़ी पहले भोजन करे। बाद में तीसरी बार अग्रपूजा रूप देवार्चन करे। उसके बाद साधु-मुनिराज हों तो उनके दर्शन करे सामायिक, चतुर्विंशतिस्तव, वंदनक, प्रतिक्रमण, कायोत्सर्ग और प्रत्याख्यान-लक्षण छह आवश्यक करे। सामायिक का अर्थ हैआर्त्त-रौद्रध्यान का त्याग करके धर्मध्यान का आलंबन लेकर शत्रु-मित्र, तृण-स्वर्ण आदि में समभाव रखना। इसका स्वरूप पहले कह चुके हैं। बाद में चौवीस तीर्थंकर भगवंतों के नामोल्लेखपूर्वक गुणों का उत्कीर्तन करना। फिर कायोत्सर्ग में मन में ध्यान करना और कायोत्सर्ग पूर्ण कर प्रकट रूप में स्पष्ट अक्षरों में उस पाठ को बोलना। इसके |संबंध में भी पहले कह आये हैं।
तत्पश्चात् वंदनीय धर्माचार्य को पच्चीस आवश्यक-विशुद्ध; बत्तीस दोष-रहित नमस्कार रूप वंदन करना। इसमें पच्चीस आवश्यक इस प्रकार से जानना (आ. नि. १२१६) - वंदन में दो अवनमन; एक यथाजात, बारह आवर्त, चार मस्तक से, तीन गुप्ति से, दो प्रवेश और एक निष्क्रमण; ये पच्चीस अवश्य करने योग्य आवश्यक है। इसमें दो अवनमन हैं-स्वयं को वंदन करने की इच्छा और गुरुमहाराज को प्रकट रूप में निवेदन-इच्छामि खमासमणो! वंदिउं जावणिज्जाए निसीहिआए अर्थात् 'हे क्षमाश्रमण! मैं अपनी शक्ति-अनुसार निष्पाप रूप से आपको वंदन करना चाहता हूं। ऐसा कहते समय मस्तक और शरीर के उच्चभाग को कुछ नमाना; अवनत या अवनमन कहलाता है। १. फिर आवर्त करके पुनः वापिस आये, तब भी इच्छामि इत्यादि सूत्र बोलकर फिर इच्छा बताये, तब २. दूसरा यथाजात अर्थात् जन्म के समान, जन्म दो प्रकार का गिना जाता है-एक तो माता के उदर से जन्मग्रहण और दूसरा दीक्षा-ग्रहण करते समय। प्रसवकालिक मुद्रा के समान दो हाथ जोड़कर मस्तक पर रखे हों, उसी तरह दीक्षा-ग्रहण के समय भी रजोहरण मुखवस्त्रिका वाले दो हाथ जोड़कर जिस स्थिति में जन्म होता है, वही मुद्रा (स्थिति) गुरुमहाराज को वंदन करते समय
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