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धर्मार्थी साधक द्वारा की जाने वाली प्रार्थना एवं उस पर विवेचन
योगशास्त्र तृतीय प्रकाश श्लोक १२३ उज्जिंतसेलसिहरे, दिखा नाणं निसीहिया जस्स । तं धम्मचक्कयटिं, अरिट्ठनेमिं नमसामि ॥४॥ चत्तारि अट्ठ दस दोअ वंदिया जिणवरा चउवीसं । परमट्ठनिट्टिअट्ठा, सिद्धा सिद्धिं मम दिसंतु ॥५॥ अर्थ :- उज्जयंत शैल अर्थात् गिरनार (रैवतकगिरि) पर्वत के शिखर पर जिनके दीक्षा, केवलज्ञान और निर्वाण
कल्याणक हुए हैं, उन धर्म-चक्रवर्ती श्री अरिष्टनेमि-नेमिनाथ भगवान् को मैं नमस्कार करता हूं ।।४।। चार, आठ, दस और दो इस प्रकार चौवीस जिनवर, जिन्होंने परमार्थ से अपना लक्ष्य (मोक्षसुख) सिद्ध
(प्राप्त) कर लिया है, वे सिद्ध भगवंत मुझे सिद्धि प्रदान करें ।।५।। ऐसा कहने के बाद संचित-पुण्य-पुंज वाले उचित कार्यों में उचित प्रवृत्ति करते हैं, यह बताने के लिए निम्नोक्त पाठ बोलना चाहिए-वेयावच्चगराणं, संतिगराणं सम्मदिद्विसमाहिगराणं करेमि काउस्सग्गं अर्थात् श्रीजैनशासन की सेवा-रक्षा रूप वैयावृत्य करने में तत्पर गोमुखयक्ष, अप्रतिचक्रा, चक्रेश्वरी देवी, यक्ष-यक्षिणी आदि सर्वलोक में शांति करने वाले, सम्यग्दृष्टि जीवों को समाधि में सहायता करने वाले, समस्त सम्यग्दृष्टि-शासनदेवों के निमित्त से काउस्सग्ग करता हूं। यहां सप्तमी विभक्ति के अर्थ में षष्ठी विभक्ति का प्रयोग हुआ है। इसके बाद वंदण-वत्तिआए आदि | नहीं बोलकर अन्नत्थ सूत्र बोलना चाहिए; क्योंकि देव अविरति होते हैं, उनको वंदन-पूजन आदि करना योग्य नहीं | है।' इस प्रकार करने से ही उनके भावों में वृद्धि हो जाती है और वे स्मरणकर्ता के लिए उपकार-दर्शक बनते हैं। अन्नत्थ सूत्र की व्याख्या पहले की जा चुकी है। वहीं से समझ लेना। यहां केवल वेयावच्च करने वाले देवों की स्तुति करना। बाद में उसी विधि से नीचे बैठकर पूर्ववत् प्रणिपातदंडक-(नमुत्थुणं) सूत्र कहकर मुक्ताशक्तिमुद्रा पूर्वक प्रणिधानप्रार्थनासूत्र बोले। वह इस प्रकार है
जय वीयराय! जगगुरु! होउ ममं तह पभावओ भयवं! भवनिव्येओ, मग्गाणुसारिआ इट्ठफलसिद्धी ॥१॥
लोगविरुद्धच्चाओ, गुरुजणपूआ पत्थकरणं च । सुहगुरुजोगो तब्बयणसेवणा आभवमवंडा ॥२॥ अर्थ :- हे वीतराग! हे जगद्गुरु! आपकी जय हो! भगवन्! आपके प्रताप से मुझे संसार के प्रति वैराग्य उत्पन्न
हो, मोक्षमार्ग पर चलने की शक्ति प्राप्त हो और इष्टफल की सिद्धि हो ।।१।। प्रभो! निंदाजनक, लोकविरुद्ध किसी भी कार्य में मेरी प्रवृत्ति न हो, धर्माचार्य तथा में माता-पिता आदि बड़ों के प्रति परिपूर्ण रूप से आदरभाव और दूसरों का भला करने में तत्पर बनूं और प्रभो! मुझे सद्गुरु का योग मिले तथा उनकी आज्ञानुसार चलने की शक्ति प्रास हो। यह सब जहां तक मुझे संसार में परिभ्रमण करना पड़े,
वहां तक अखंड रूप से प्राप्त हो ।।२।। जय वीयराग! जगगुरु! अर्थात् हे वीतराग! हे जगद्गुरो! आपकी जय हो, इस प्रकार भगवान् श्री त्रिलोकनाथ को बुद्धि में स्थापित करने के लिए आमंत्रण किया है, होउ मम मुझे मिले, तुह पभावओ आप के प्रभाव से-सामर्थ्य से, भयवं-भगवान्! दूसरी बार यह संबोधन देकर अपनी भक्ति का अतिशय प्रकट किया गया है। क्या मिले? उसके लिए कहते हैं-भवनिव्वेओ अर्थात् जन्म-मरण आदि दुःख रूप संसार से निर्वेद-विरक्ति (वैराग्य)। भव से डरे बिना कोई भी मोक्ष के लिए प्रयत्न नहीं करता। संसार में राग रखकर मोक्षमार्ग का प्रयत्न करे, तो वह वास्तविक प्रयत्न नहीं समझा जाता; क्योंकि वह क्रिया जड़ के समान है। तथा मग्गाणुसारिआ अर्थात् दुराग्रह का त्यागकर तत्त्वभूत सत्य मार्ग के अनुसार तथा इट्ठफलसिद्धी ईष्टफलसिद्धि। इस भव के इष्ट प्रयोजन की प्राप्ति होने से चित्त में स्वस्थता होती है |
और वह व्यक्ति आत्मकल्याण के कार्यों में प्रवृत्ति कर सकता है। इस आशय से इस लोक के इष्टफल की सिद्धि के लिए प्रार्थना करना अनुचित नहीं है। लोगविरुद्धच्चाओ सभी लोगों में निंदा आदि हो; ऐसे लोकविरुद्ध कार्य का त्याग करना; पंचाशक में कहा है-किसी की भी निंदा नहीं करनी चाहिए, विशेषतः गुणवान् की तो कदापि नहीं करनी चाहिए, | क्योंकि वह लोकविरुद्ध है तथा धर्म-आराधना में सरल मनुष्य की कहीं भूल हो जाय तो उसका हास्य करना, लोगों| में माननीय-पूजनीय का अपमान करना, जिसके बहुत विरोधी हों, उनकी सोहबत (संगत-मैत्री) करना, देश काल और 1. चतुर्थ स्तुति का प्रारंभ हो जाने के बाद की यह रचना होने से यह वर्णन दिया है। और यहां संचित-पुण्य-पुंज वाले उचित कार्यों में
उचित प्रवृत्ति करते हैं। यह लिख कर श्रावकों को बोलने का लिखा है। यह भी विचारणीय तो है ही। 2. अंतिम दो गाथा पर एवं वैयावच्चगराणं पर कोई विवेचन नहीं किया यह भी विचारणीय तो है ही।
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