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देववंदन के बाद श्रावक की दिनचर्या का वर्णन
योगशास्त्र तृतीय प्रकाश श्लोक १२४ से १२७ कुल के आचार का उल्लंघन करना; अर्थात् व्यवहार के विरुद्ध चलना, उद्धत वेश धारण करना तथा स्वयं द्वारा किये | हुए दान, तप, यात्रा आदि की अपने मुंह से बड़ाई करना; इसे भी कितने ही आचार्य लोकविरुद्ध मानते हैं तथा साधुपुरुषों पर संकट आया हो तो उसे देखकर खुश होना एवं सामर्थ्य होने पर भी संकट से बचाने का प्रयत्न न करना, इत्यादि बातें भी लोकविरुद्ध समझी जाती हैं। प्रभो! ऐसे कार्यों का मैं त्याग करूं! (पंचा. २/८-१०) तथा गुरुजणपूआ गुरुजनों की उचित सेवा रूप पूजा करना। यद्यपि धर्माचार्य ही गुरु कहलाते हैं; तथापि यहां माता-पिता, कलाचार्य आदि को भी गुरुजन (बड़े) समझ लेना चाहिए। योगबिन्दु (गाथा ११०) में कहा है-माता-पिता, कलाचार्य, विद्यागुरु, उनके संबंधी, वृद्ध तथा धर्मोपदेशक इन सभी को सत्पुरुष गुरु-तुल्य मानते हैं। परत्थकरणं च=मर्त्यलोक | में सारभूत दूसरे जीवों की भलाई का कार्य परोपकार करना। वास्तव में यह धर्मपुरुषार्थ का चिह्न है। इस प्रकार से पूर्वोक्त गुणों की प्रासि से साधक जीवन में लौकिक सुंदरता प्राप्त करता है और वही लोकोत्तर धर्म का अधिकारी बनता है। इसलिए कहते हैं-सुहगुरुजोगो विशिष्ट चारित्रवान्, पवित्र शुभगुरुओं साधु-साध्वियों एवं धर्माचार्यों का संयोग-निश्रा मिले, तव्वयणसेवणा=उन सद्गुरुओं के वचनानुसार आचरण करना। ऐसे सद्गुरु भगवंत कभी अहितकर उपदेश नहीं देते। इसलिए उनके वचनों की सेवा आभवमखंडा अर्थात् जब तक संसार में परिभ्रमण करना पड़े, वहां तक संपूर्ण रूप में प्राप्त हो। यह प्रार्थना खास कर त्याग की अभिलाषा रूप होने से (नियाणा) निदान रूप नहीं है; और वह भी अप्रमत्तसंयम नामक सातवें गुणस्थानक के पहले ही होता है। अप्रमत्त गुणस्थानक से आगे जीव को संसार या मोक्ष की अभिलाषा नहीं रहती, उनके लिए शुभ-अशुभ सभी भाव समान होते हैं। इस तरह शुभफल की प्रार्थना रूप जय वीयराय की दो गाथा तक उत्कृष्ट चैत्यवंदन की विधि जानना ।।१२३।।
अब इसके आगे के कर्तव्य के संबंध में कहते हैं।२९५। ततो गुरूणामभ्यर्णे, प्रतिपत्तिपुरस्सरम् । विदधीत विशुद्धात्मा, प्रत्याख्यानप्रकाशनम् ।।१२४।। अर्थ :- देव-वंदन करने के बाद गुरु या धर्माचार्य देववंदन करने पधारे हुए हों अथवा स्नात्रादि-महोत्सव के
दर्शन करने या धर्मोपदेश देने पधारे हों अथवा विहार करते हुए पधारे हों, तो उनके पास जाकर साढ़े तीन हाथ दूर खड़े होकर विनयपूर्वक वंदन करे, उनका व्याख्यान सुने। बाद में देवसमक्ष किया हुआ प्रत्याख्यान दंभरहित व निर्मलचित्त होकर गुरु-समक्ष प्रकट करे। क्योंकि प्रत्याख्यान की विधि तीन की
साक्षी से होती है-१. आत्मसाक्षी, २. देवसाक्षी और ३. गुरुसाक्षी से ।।१२४।। पूर्वोक्त श्लोक में-प्रतिपत्तिपूर्वक कहा है। अतः गुरुप्रतिपत्ति (विनय) को दो श्लोकों में कहते हैं।२९६। अभ्युत्थानं तदा लोकेऽभियानं च तदागमे । शिरस्यञ्जलिसंश्लेषः स्वयमासनढौकनम् ॥१२५।। ।२९७। आसनाभिग्रहो भक्त्या, वन्दना पर्युपासनम् । तद्यानेऽनुगमश्चेति, प्रतिपत्तिरियं गुरोः ॥१२६।। अर्थ :- गुरु महाराज को देखते ही आसन छोड़कर आदर पूर्वक खड़े हो जाना, उनके सामने जाना, वे आ गये
हो तो मस्तक पर अंजलि करके हाथ जोड़कर 'नमो खमासमणाणं वचन बोलना, यह कार्य स्वयं करना, दूसरे से नहीं कराना और स्वयं आसन प्रदान करना, गुरु-महाराज के आसन पर बैठ जाने के बाद, स्वयं दूसरे आसन पर बैठना, बाद में भक्ति पूर्वक पच्चीस आवश्यक की विशुद्धि पूर्वक वंदन करना। गुरुदेव को कहीं जाना न हो और किसी कार्य में रुके न हो तो पर्युपासना-सेवा करना, उनके जाने पर कुछ दूर
तक अनुगमन करना, इस प्रकार गुरु की प्रतिपत्ति (धर्माचार्य का उपचार-विनय) जानना ।।१२५-१२६ ।। उसके बाद गुरुमहाराज से धर्मदेशना सुनकर।२९८। ततः प्रतिनिवृत्तः सन्, स्थानं गत्वा यथोचितम् । सुधीधर्माविरोधेन, विदधीतार्थचिन्तनम् ॥१२७।। ___ अर्थ :- मंदिर से वापिस आकर अपने-अपने उचित स्थान पर (अर्थात् राजा हो तो राजसभा में, मंत्री आदि हो
तो न्यायालय में, व्यापारी हो तो दूकान में) जाकर जिससे धर्म को आंच न आये, इस प्रकार बुद्धिशाली
श्रावक धनोपार्जन का चिंतन करे ।।१२७।। 1. यहां प्रणिधान त्रिक का विधान नहीं दिया। एवं जयवीयराय की दो गाथा तक उत्कृष्ट चैत्यवंदन कहा आज यह विधि प्रचलित नहीं है।
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