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पंद्रह भेदे सिद्ध
योगशास्त्र तृतीय प्रकाश श्लोक १२३ अनंतसुख-युक्त सुख से रहती है, (आ. नि. ९७५) उन्हें मेरा नमस्कार हो। यहां शंका करते हैं कि 'जब सभी कमों। का क्षय हो जाता तब जीव की लोकाग्र तक गति किस तरह होती है? इसका उत्तर देते हैं कि पूर्व-प्रयोग आदि के योग से वे सिद्ध जीव गति करते हैं।' कहा है कि-पूर्वप्रयोग की सिद्धि से अर्थात् जैसे धनुष्य से छूटा हुआ बाण पूर्वप्रयोग से स्वयं अपने आप आगे जाता है; उसी तरह जीव कर्म से मुक्त होने पर अपने आप ऊर्ध्वगति करता है। फिर शंका होती है कि जीव सिद्धिक्षेत्र से आगे, ऊँचे, नीचे या तिरछे क्यों नहीं जाता? इसका समाधान करते हैं कि गुरुत्व अर्थात् कर्म का वजन समाप्त हो जाने से और नीचे जाने का और कोई कारण न होने से मुक्त जीव नीचे नहीं जाता है, मिट्टी से लिप्स तुंबा नीचे जाता है, परंतु मिट्टी दूर होते ही वह ऊर्ध्वगमन करता है; वैसे ही जीव कर्म से लिप्त हो, वहां तक नीचे रहता है, कर्मरहित होते ही वह ऊर्ध्वगमन करता है। जैसे पानी की सहायता के बिना पानी की सतह पर ऊंचाई में नौका नहीं जाती है वैसे ही जीव भी गति में सहायक धर्मास्तिकाय के न होने से लोकांत से ऊपर नहीं जाता है; अपितु ऊपर जाकर लोक के अंत-भाग में रुक जाता है। और तिरछीगति में कारण रूप योग अथवा उसका व्यापार (प्रवृत्ति) नहीं होने से, तिरछी गति भी नहीं करता है। अतः सिद्ध की लोक के अग्रभाग तक ही ऊर्ध्वगति होती है।
नमो सया सव्वसिद्धाणं अर्थात् जिनके सर्वसाध्य सिद्ध हो गये हैं अथवा जो तीर्थसिद्ध आदि अलग-अलग रूप में सिद्ध हुए हैं, उन सर्वसिद्धों को मैं सदैव नमस्कार करता हूं। सिद्ध (परमात्मा) के १५ प्रकार ये हैं-१. तीर्थसिद्ध, :. अतीर्थसिद्ध, ३. तीर्थंकरसिद्ध, ४. अतीर्थकर-सिद्ध, ५. स्वयंबुद्धसिद्ध, ६. प्रत्येकबुद्धसिद्ध, ७. बुद्धबोधितसिद्ध, ८. स्त्रीलिंगसिद्ध, ९. पुरुषलिंगसिद्ध, १०. नपुंसकलिंगसिद्ध, ११. स्वलिंग-सिद्ध, १२. अन्यलिंग-सिद्ध, १३. गृहस्थलिंगसिद्ध, १४. एकसिद्ध और १५. अनेकसिद्ध। ___१. तीर्थसिद्ध - तीर्थ-चतुर्विध श्रमण (साधु) संघ में रहते हुए जो सिद्ध हुआ हो, वह तीर्थसिद्ध है। २. तीर्थ का विच्छेद हो गया हो अथवा तीर्थ के बीच का अंतरकाल हो, जब साधुसंस्था का विच्छेद हो गया हो, तब जातिस्मरण आदि ज्ञान के योग से साधना करके मुक्त हुआ हो, अथवा मरुदेवी माता की तरह तीर्थ-स्थापना होने से पहले ही सिद्ध हो जाये अथवा अन्य तीर्थ में भी ज्ञानादि रत्नत्रय की साधना करके मक्त हो जाय. वह अतीर्थसिद्ध कहलाता है। ३. तीर्थंकर-पद प्राप्त करके सिद्ध हुए भगवान् तीर्थंकरसिद्ध कहलाते हैं। ४. शेष सामान्य केवली होकर जो सिद्ध हुए हों, वे सभी अतीर्थंकरसिद्ध हैं। ५. अपने आप बोध (ज्ञान) प्राप्त करके सिद्ध हुए हों, वे स्वयंबुद्धसिद्ध है। ६. जो प्रत्येकबुद्ध होकर सिद्ध हुए हों, वे प्रत्येकबुद्धसिद्ध है। स्वयंबुद्ध और प्रत्येकबुद्ध में बोध-(ज्ञान) की प्राप्ति में, उपधि में, श्रुतज्ञान में और वेष में परस्पर अंतर होता है। स्वयंबुद्ध किसी बाह्य निमित्त या उपदेश के बिना ही बोधित होता है, और प्रत्येकबुद्ध जैसे करकंडु राजा को बैल की वृद्धावस्था देखकर बोध हुआ था, वैसे किसी न किसी बाह्य निमित्त से विरक्ति | जनक बोध होता है। स्वयंबुद्ध पात्र आदि बारह प्रकार की उपधि (धर्मोपकरण) रखता है, जबकि प्रत्येकबुद्ध तीन प्रकार
के वस्त्र छोड़कर शेष नौ प्रकार की उपधि रखता है। स्वयंबुद्ध को पूर्वजन्म में पढ़े हुए पूर्वो का ज्ञान वर्तमानकाल में | रहे ही, ऐसा नियम नहीं। जबकि प्रत्येकबुद्ध को वह ज्ञान अवश्य रहता है। स्वयंबुद्ध साधुवेश को प्राप्त कर गुरुमहारा के सानिध्य में भी दीक्षा ग्रहण करता है, जबकि प्रत्येकबद्ध को नियम से देवता साधवेश देता है. इस प्रक में अंतर है। ७. ज्ञानी आचार्य आदि के उपदेश से बोध प्राप्त करें और मक्त हों. वे बद्धबोधितसिद्ध इन सभी प्रकार से कितनी ही स्त्री-रूप में सिद्ध होती हैं. वे स्त्रीलिंगसिद्ध कहलाते हैं। ९. पुरुष रूप में जो मक्त होते हैं, वे पुरुषलिंगसिद्ध होते हैं। १०. नपुंसक रूप में जो मोक्ष प्राप्त करते हैं, वे नपुंसकलिंगसिद्ध होते हैं। यहां शंका होती है कि 'क्या तीर्थकर भी स्त्रीलिंग में सिद्ध हो सकते हैं?' इसका उत्तर देते हैं कि 'हां, हो सकते हैं;' सिद्धपाहुड | (सिद्धप्राभृत) में बताया है कि सबसे कम स्त्रीलिंग तीर्थकर सिद्ध होते हैं, स्त्रीतीर्थकर के शासन में अतीर्थकरसिद्ध | असंख्यातगुने होते हैं, उनसे स्त्री-तीर्थंकर के तीर्थ में अतीर्थकर स्त्रीत्व रूप में सिद्ध असंख्यातगुने हैं और इनसे तीर्थंकर के तीर्थ में अतीर्थकरसिद्ध संख्यातगुने होते हैं अर्थात् तीर्थकर भी स्त्रियों में सिद्ध होते हैं और उनके तीर्थ में सामान्य केवली अतीर्थंकर और स्त्री रूप में अतीर्थकर आदि भी सिद्ध होते हैं। परंतु उन दोनों में अतीर्थकर स्त्री सिद्धों की संख्या | अधिक होती है, यानी असंख्यातगुनी ज्यादा होती है। तीर्थकरसिद्ध नपुंसकलिंग में नही होते हैं। तथा प्रत्येक बुद्ध सिद्ध
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