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जिन मंदिर प्रवेश-दर्शन-पूजन विधि एवं दोष युक्त स्तोत्र
योगशास्त्र तृतीय प्रकाश श्लोक १२२ से १२३ __व्याख्या :- रात्रि के कुल पंद्रह मुहूर्त होते हैं। उसमें चौदहवाँ मुहूर्त ब्राह्म कहलाता है, उसमें निद्रा का त्यागकर, परममंगल के लिए, दूसरे को सुनाई न दे, इस तरह अरिहंत सिद्ध आदि पंचपरमेष्ठी पद का 'नमो अरिहंताणं' इत्यादि नवकार-मंत्र के पाठ से अत्यंत आदरपूर्वक मन ही मन स्मरण करे। अतः कहा है कि 'शय्या में पड़े-पड़े भी या बैठेबैठे भी पंचपरमेष्ठि-नमस्कार-मंत्र का मन में चिंतन करना चाहिए। क्योंकि इस प्रकार मन में स्मरण करने से मंत्र का अविनय नहीं होता। यह मंत्र अत्यंत प्रभावशाली और सर्वोत्तम है। पलंग पर अथवा शय्या में बैठे-बैठे इस मंत्र का उच्चारण करना अविनय है। अन्य किसी आचार्य का मत है कि स्पष्ट उच्चारण करने में भी कोई हर्ज नहीं है। ऐसी कोई अवस्था नहीं है, जिसमें पंच नमस्कार-रूप-मंत्र गिनने का अधिकार न हो। केवल नमस्कार-मंत्र बोलना, इतना ही नहीं, परंतु मेरा कौन-सा धर्म है? मैंने किस कुल में जन्म लिया है? और मैंने कौन-कौन से व्रत अंगीकार किये हैं? इन सभी भावों को स्मरण करते हुए जाग्रत होना चाहिए। उपलक्षण से-द्रव्य से मेरे गुरु कौन हैं? क्षेत्र से, मैं किस गांव या नगर का निवासी हूं? काल से, यह प्रभातकाल है या सांयकाल है? भाव से, जैनधर्म, इक्ष्वाकुकुल, अणुव्रतादि व्रतस्मरण करता हुआ धर्म के विषय में विचार करे और उसके विपरीत-चिंतन का त्याग करे।।१२१।। ।२९३। शूचिपुष्पामिष-स्तोत्रैर्देवमभ्यर्च्य वेश्मनि । प्रत्याख्यानं यथाशक्ति कृत्वा देवगृहं व्रजेत् ॥१२२।। • अर्थ :- उसके बाद स्नानादि से पवित्र होकर अपने गृहमंदिर में भगवान् की पुष्प, नैवेद्य एवं स्तोत्र आदि से पूजा
करे, फिर अपनी शक्ति के अनुसार नौकारसी आदि का पच्चक्खान करके बड़े जिनमंदिर में जाये।।१२२।। व्याख्या :- शौच जाना, दतौन करके मुख शुद्धि करना, जीभ पर से मैल उतारना, कुल्ला कर मुंह धोना, स्नान आदि से शरीर को पवित्र करना; यह पवित्र होने की बाह्यशुद्धि की बात शास्त्रकार नहीं कहते; इसलिए यह लोकप्रसिद्ध मार्ग होने से इनका अनुवाद मात्र किया है। लोकसिद्ध बातों के उपदेश देने की आवश्यकता नहीं रहती। अप्राप्त पदार्थ बताने में ही शास्त्र की सफलता है। मलिन शरीर वाले को स्नान करना, भूखे को भोजन करना इत्यादि कार्य बताने में शास्त्र की जरूरत नहीं होती। विश्व में धर्ममार्ग बताने में ही शास्त्र की उपयोगिता है। अप्राप्त दुर्लभ वस्तुएँ प्राप्त करने में और स्वाभाविक मोहांधकार में जो ज्ञान-प्रकाश से वंचित है, उन लोगों के लिए शास्त्र ही परमचक्षु है। इस प्रकार आगे भी अप्राप्त विषय में उपदेश सफल है, ऐसा समझ लेना चाहिए और सावद्यकार्य में शास्त्रवचन अनुमोदन रूप नहीं हो सकते। अतः कहा भी है कि 'सावध अर्थात् सपाप और पाप-रहित वचनों के अंतर को जो नहीं जानता, उसे (शास्त्र के विषय में) बोलना भी योग्य नहीं है तो फिर उपदेश देने का अधिकार तो होता ही कहां से? इसलिए शुचित्व की बात यहीं छोड़कर अब गृह-मंदिर रूप मंगलचैत्य में अरिहंत भगवान् की पूजा की बात पर आइए। यहां पूजा के भेद बताते हैं-पुष्प, नैवेद्य और स्तोत्र से पूजा करे। यहां पुष्प कहने से समस्त सुगंधित पदार्थ जानना। जैसे विलेपन, धूप, | गंधवास और उपलक्षण से वस्त्र, आभूषण आदि भी समझ लेना चाहिए। आमिष अर्थात् नैवेद्य और पेय, जैसे पक्कान; फल, अक्षत, दीपक, जल, घी से भरे हुए पात्र आदि रखे। स्तोत्र में शक्रस्तव (नमुत्थुणं) आदि सद्भूतगुणों के कीर्तन रूप काव्य बोले। उसके बाद प्रत्याख्यान का उच्चारण करे। जैसे नमस्कारसहित अथवा नौकारसी पोरसी आदि तथा अद्धा रूप गंठिसहियं आदि संकेत-प्रत्याख्यान यथाशक्ति करे। बाद में भक्ति-चैत्य रूप संघ के जिनेश्वर-मंदिर में जाये। वहां स्नान, विलेपन व तिलक करे। ऋद्धिमान के लिए शस्त्र आभूषण अलंकार आदि धारण करना, रथादि सवारी में बैठना इत्यादि स्वतःसिद्ध होने से उपदेश देने की जरूरत नहीं है। प्राप्तवस्तु के बताने में ही शास्त्र की सार्थकता है, यह पहले कहा जा चुका है। मंदिर में प्रवेश की विधि इस प्रकार है-यदि राजा हो तो समस्त ऋद्धिपूर्वक सर्व-सामग्री, सर्व-धृति, सर्वसैन्य-परिवार, सर्व-पराक्रम इत्यादि प्रभावना से बड़े वैभवपूर्ण ठाठ-बाठ के साथ जाये। यदि सामान्य वैभवसंपन्न हो तो मिथ्याडंबर किये बिना लोगों में हास्यपात्र न हो, इस तरह से जाय ।।१२२।। उसके बाद।२९४। प्रविश्य विधिना तत्र, त्रिः प्रदक्षिणयेज्जिनम् । पुष्पादिभिस्तमभ्यर्च्य, स्तवनैरुत्तमैः स्तुयात्।।१२३।। ___ अर्थ :- जिनमंदिर में विधि पूर्वक प्रवेश करके प्रभु को तीन बार प्रदक्षिणा देकर पुष्प आदि से उनकी अर्चना करके
उत्तम स्तवनों से स्तुति करे ।।१२३।।
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