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धनवान को धन का दान करना चाहिए
योगशास्त्र तृतीय प्रकाश श्लोक ११९ से १२० प्रकार का भोजन, तांबूल, वस्त्र-आभूषण आदि देकर उनकी भक्ति करनी चाहिए। यदि उन पर कोई विपत्ति आ पड़ी| हो तो अपना धन देकर उनका उद्धार करना चाहिए। अंतरायकर्म के उदय से कदाचित् उनका वैभव चला गया हो तो सहायता देकर या रोजगार-धंधे में लगाकर उनकी स्थिति सधार देनी चाहिए। धर्म में गिरते हए को पहले की तरह स्थिर कर देना चाहिए। धर्माचरण में प्रमाद करता तो तो उसे याद दिलाना, अनिष्टमार्ग में जाने से रोकना, प्रेरणा देना, बारबार प्रेरणा करना, धार्मिक अभ्यास कराना व उसकी शंका का समाधान करना; पढ़े हुए को दोहराना, उसके साथ विचार-विमर्श करना, धर्मकथा आदि में यथायोग्य लगाना और कोई विशिष्ट धर्मानुष्ठान या सामूहिक धर्म-क्रिया या सामूहिक धर्माराधना होती हो तो प्रत्येक स्थान पर उसे साथ में ले जाना पौषधशाला आदि बनाना चाहिए।
७. श्राविका क्षेत्र - सातवां श्राविका रूपी धर्मक्षेत्र है। श्रावक के समान श्राविकावर्ग की उन्नति या उत्कर्ष के लिए भी अपना धन लगाना चाहिए। श्रावक से श्राविका को जरा भी कम या अधिक नहीं समझना चाहिए। ज्ञान-दर्शनचारित्रसंपन्न, शील और संतोष गुण के युक्त, महिला चाहे सधवा हो अथवा विधवा, जिन-शासन के प्रति अनुराग रखती हो, उसे साधर्मिक बहन, माता या पुत्री माननी चाहिए। यहां यह शंका की जाती है कि 'स्त्रियां शील-पालन कैसे कर सकती है? और किस तरह वे रत्नत्रय युक्त हो सकती है? क्योंकि लोक और लोकोत्तर व्यवहार में तथा अनुभव से स्त्रियां दोष भाजन के रूप में प्रसिद्ध है। वास्तविक में स्त्रियां भूमि के बिना उत्पन्न हुई विषकंदली है, बादल के बिना उत्पन्न हुई बिजली है, बिना नाम की व्याधि है, अकारण मृत्यु है, गुफा से रहित सिंहनी और प्रत्यक्ष राक्षसी है। वे| असत्यवादिनी, साहसी और बंधु-स्नेह-विघातिनी एवं संताप की हेतु है। वे अविवेकता की महाकारणभूत होने से दूर | से ही त्याज्य है। फिर उन्हें दान देकर उनका सम्मान करना, उनके प्रति वात्सल्य करना किस तरह उचित है? इसके | उत्तर में कहते हैं कि 'स्त्रियों में अधिकांशतः दोष होते हैं, यह बात एकांतत ठीक नहीं है। पुरुषों में भी यह बात हो सकती है। उनमें भी क्रूर आशय वाले, नास्तिक, कृतघ्न, स्वामीद्रोही, देव-गुरु के भी वंचक इत्यादि पुरुष बहुत | दोषयुक्त पाये जाते हैं; उनको देखकर महापुरुषों की अवज्ञा करना योग्य नहीं है। इसी प्रकार वैसी स्त्रियों को देखकर | संपूर्ण स्त्रीजाति को बदनाम करना उचित नहीं है। कितनी ही स्त्रियां बहुत ही दोष वाली होती है और कितनी ही स्त्रियां बहुत गुण वाली होती है। श्री तीर्थकर परमात्मा की माता स्त्री ही होती है; फिर भी उनकी गुण-गरिमा के कारण इंद्र भी उनकी स्तुति करते हैं, और मुनिवर्य भी उनकी प्रशंसा करते हैं। लोक में भी कहा है कि 'जो युवती किसी उत्तम | गर्भ को धारण करती है, वह तीन जगत् में गुरुस्थान प्राप्त करती है।' इसी कारण विद्वान लोगों ने बगैर अतिशयोक्ति के मातृजाति की महिमा का गुणगान किया है। कितनी ही स्त्रियां अपने शील के प्रभाव से आग को जल के समान शीतल, सर्प को रस्सी के समान, नदी को स्थल के समान और विष को अमृत के समान कर देती है। चातुर्वर्ण्यचतुर्विध संघ में चौथा अंग गृहस्थ-श्राविकाओं का बताया है। स्वयं तीर्थंकर भगवान ने सुलसा आदि श्राविकाओं के गुणों की प्रशंसा की है। इंद्रों ने भी देवलोक में बार-बार उनके चरित्रों को अतिसम्मान पूर्वक कहा है और प्रबल मिथ्यादृष्टि देवों ने भी सम्यक्त्व आदि से उन्हें विचलित करने का प्रयत्न किया है। फिर भी वे विचलित नहीं हुई। उनमें से शास्त्रों में सुना है, कोई उसी भव में मोक्ष जाने वाली है, कोई दो या तीन भव करके मोक्ष में जाती है। इसलिए उसके प्रति माता के समान बहन के समान या अपनी पुत्री-समान वात्सल्य रखना चाहिए। यही व्यवहार युक्तियुक्त है।
पांचवें आरे के अंत में एक साधु, एक साध्वी, एक श्रावक और एक श्राविका रहेंगी। वह क्रमशः दुप्पसहसूरि, यक्षिणी साध्वी, नागिल श्रावक और सत्यश्री श्राविका होगी। अतः उस श्राविका को पापमयी वनिता के तुल्य बताकर क्यों बदनाम किया जाय? इसी कारण श्राविका (गृहस्थसन्नारी) का दूर से त्याग करना योग्य नहीं है, परंतु उसके प्रति वात्सल्यभाव रखना चाहिए अधिक क्या कहें? सिर्फ सात क्षेत्रों में ही धन लगाने से महाश्रावक नहीं कहलाता; परंतु निर्धन, अंधा, बहरा, लंगड़ा, रोगी, दीन दुःखी आदि के लिए जो भी अनुकंपा पूर्वक धन व्यय करता है; भक्तिपूर्वक नहीं; वही महाश्रावक है। सात क्षेत्रों में तो भक्ति पूर्वक यथोचित्त दान देने का कहा है। अतिदीन-दुःखीजनों के लिए तो पात्र-अपात्र का तथा कल्पनीय-अकल्पनीय का विचार किये बिना, केवल करुणा से ही अपना धन लगाना योग्य
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