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तीर्थंकर के मुक्त होने के बाद की स्थिति का स्तुतिमूलक वर्णन
योगशास्त्र तृतीय प्रकाश श्लोक १२९ | क्योंकि सामान्य और विशेष रूप धर्म और उसके आधारभूत पदार्थ रूप धर्म एकांतः भिन्न ही हैं, ऐसा नहीं है। इस कारण | गौण रूप में जिनमें सामान्यसत्ता समान है, ऐसे सभी पदार्थों को आत्मा ज्ञान से विशेष रूप में जानता है और गौण रूप | में जिनमें विशेषता है, ऐसे सभी पदार्थों को वही आत्मा दर्शन से सामान्य रूप में देखता है; इस तरह ज्ञान भी सर्वपदार्थ का ज्ञायक है और दर्शन भी सर्वपदार्थ का दर्शक है। इस तरह भगवान् संपूर्ण- ज्ञान - दर्शन - गुणयुक्त हैं। इस कारण वे सर्वज्ञ और सर्वदर्शी है।
ऐसा होने पर भी आत्मा को सर्वगत (व्यापक) मानने वाले मुक्त होने के बाद भी आत्मा को सर्वगत मानते हैं; वे यह नहीं मानते कि मुक्तात्मा किसी नियत स्थान पर रहता है। उनका कहना है- 'मुक्ताः सर्वत्र तिष्ठन्ति व्योमवत्तापवर्जिताः' अर्थात् मुक्त आत्माएँ आकाश के समान ताप रहित होकर सर्वत्र व्यापक रूप में रहती है। उस म | का खंडन करने हेतु कहते हैं-सिवमयलमरुयमणंतमक्खयमव्वाबाहमपुणरावित्ति- सिद्धिगइ-नामधेयं ठाणं संपत्ताणं | इसमें प्रथम शब्द है 'शिवं' अर्थात् सर्व उपद्रव रहित, 'अयलं' यानी अपने स्वभाव से अथवा किसी भी प्रयोग से जो चलायमान न हो, ऐसा अचल है। 'अरुयं' अर्थात् रोगरहित है, क्योंकि व्याधि और वेदना के कारणभूत शरीर और मन का वहां अभाव है। 'अनंतं' अर्थात् वहां रही हुई आत्माएँ ज्ञानादि अनंतचतुष्टय से युक्त है। 'अक्खयं' अर्थात् कभी नाश नहीं होने वाला यह शाश्वत स्थान है, 'अव्वाह' अर्थात् कर्म नहीं होने से बाधा - पीड़ा से रहित स्थान है। 'अपुणरावित्ति' अर्थात् जिस स्थान से फिर इस संसार में आना अथवा अवतार लेना नहीं होता। 'सिद्धिगई नामधेयं' | अर्थात् जिनका संपूर्ण कार्य सिद्ध हो गया है, जो कृतकृत्य हो चुके हैं, जिन जीवों का प्रयोजन समाप्त हो गया है, उनका | वह स्थान चौदहवें राज लोक के ऊपर अनंतवें भाग में लोक के अग्रभाग पर स्थित सिद्धिगति नाम से पुकारा जाता है, | कर्म से मुक्त आत्माओं का उस स्थान पर गमन होने से सिद्धिगति, नाम वाला उत्तम 'ठाणं' अर्थात् शुद्धात्माओं के स्थिर रहने का स्थान, व्यवहारनय से 'सिद्धिक्षेत्र' कहा जाता है। जैसा कि कहा है- इह बोर्दि चइत्ताणं तत्थ गंतूण | सिज्झइ अर्थात् इस मनुष्यलोक के अंतिम शरीर का त्याग करके, सिद्धक्षेत्र में जाकर सदा के लिए सिद्ध स्थिर हो जाते। | हैं। निश्चयनय से तो आत्मा अपने मूल स्वरूप में ही रहता है और अपने स्वरूप में ही आनंद मानता है, सर्वभाव | आत्मभाव में रहते हैं, कोई द्रव्य अपने मूल स्वरूप को नहीं छोड़ता है। पहले कहे अनुसार शिवं, अचलं आदि विशेषण | मुक्तात्माओं के लिए है, फिर भी स्थान और स्थानी के अभेद से उपचार द्वारा वहां रहने वाले स्थानी का लक्षण स्थान में भी घटा देते हैं। संपत्ताणं इस प्रकार के स्थान को प्राप्त करने वाले अर्थात् संपूर्ण रूप से कर्मक्षय रूप संसारी अवस्था से रहित होने से स्वाभाविक आत्म-स्वरूप प्रकट होने से सिद्ध आत्मा अपना शुद्ध स्वरूप प्राप्त करता है। उस आत्मा | को विभु-व्यापक मानें तो ऊपर कहे अनुसार व्यवहार और निश्चयनय से उसे सिद्धि-स्थान प्राप्त नहीं हो सकता, क्योंकि | सर्वगत-व्यापक मानने से सदा सर्वत्र एक-स्वरूप में एक सरीखी स्थिति में रहते हैं कोई भी स्थान नहीं बदलते हैं और | उससे उनका भाव स्वरूप नष्ट नहीं होता है, वे नित्य हैं। व्यापक आत्मा के लिए ऐसा एकांतः घटित नहीं होगा। | इसलिए उनकी संसारी अवस्था नष्ट हो गयी और वे अपने स्वरूप में रहते हैं उनसे हेरफेर नहीं होता है, इससे यह | निश्चय हुआ कि जो क्षेत्र से सर्वव्यापक नहीं है, वे ही संसारी अवस्था - त्याग रूप मोक्ष अथवा सिद्धिगति नामक स्थान को प्राप्त कर सकते हैं। इसलिए ही कायाप्रमाणमात्मा अर्थात् - आत्मा अपने शरीर - प्रमाण नाप वाला होता है; ऐसा जो | कहा है वह यथार्थ वचन है। ऐसे भगवान् को नमस्कार हो । बुद्धिमान् आत्माओं को ऐसे भगवंतों को नमस्कार करने
| चाहिए।
इस सूत्र में आदि और अंत में नमस्कार किया है। इससे मध्य में रहे सभी पदों में नमस्कार का संबंध जोड़ना | चाहिए। और भय को जितने वाले भी अरिहंत भगवान् ही हैं ऐसा प्रतिपादन करते हुए उपसंहार करते हैं नमो जिणाणं |जिअभयाणं अर्थात् श्री जिनेश्वर भगवान् को नमस्कार हो तथा जिन्होंने समस्त भयों को जीत लिया है, उन अरिहंत भगवान् को नमस्कार हो। इस तरह सव्वन्नूणं सव्वदरिसीणं से लेकर नमो जिणाणं जिअभयाणं तक इन तीनों वाक्यों | से ज्ञानदर्शनादि मुख्य गुण जो कभी क्षय न होंगे, ऐसे मोक्ष रूप प्रधानफल की प्राप्ति नाम की नौंवीं संपदा जानना। यहां | शंका करते हैं कि क्या एक ही प्रकार के विशेषणों से बार-बार स्तुति करने से पुनरुक्तिदोष नहीं लगता? इसका उत्तर
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