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तीर्थंकरों के अन्वयार्थक नाम का तात्पर्य
योगशास्त्र तृतीय प्रकाश श्लोक १२३ (ध्यान) में स्थिर रहे और स्तुति पूर्ण होने पर भी सभी नमो अरिहंताणं कहकर काउस्सग्ग पूर्ण करें। उसके बाद इस अवसर्पिणीकाल के भरतक्षेत्र में चौबीस तीर्थंकरों की स्तुति करे। चूंकि ये चौबीसों तीर्थकर एक ही क्षेत्र में और वर्तमान अवसर्पिणी रूपी एक काल में हुए हैं। अतः आसन्न (निकट) उपकारी होने से उनकी स्तुति करना परम आवश्यक है। इस दृष्टि से उनकी स्तुति (चतुर्विशति-स्तव) करने के लिए लोगस्स का पाठ कहते हैंलोगस्स सूत्र अर्थ सहित :
लोगस्स उज्जोअगरे, धम्मतित्थयरे जिणे । अरिहते कित्तइस्सं, चउचीसपि केवली ॥१॥ लोक के उद्योत कर्ता, धर्मतीर्थ के संस्थापक, रागद्वेष आदि शत्रुओं के विजेता केवलज्ञानी चौबीस श्रीअरिहंतों (तीर्थंकरों) की स्तुति करूंगा ।।१।।
इस गाथा में 'अरिहंत' शब्द विशेष्य है। इसकी व्याख्या नमोत्थुणं सूत्र में कहे गये अर्थ के अनुसार समझ लेना। उन चौबीस अरिहंतों का 'कित्तइस्सं' में कीर्तन करूंगा। यानी नामोच्चारणपर्वक स्तति करूंगा। राजा आदि अवस्था में द्रव्य-अरिहंत कहलाते हैं, लेकिन यहां पर भाव-अरिहंत की स्तुति करनी है, इसलिए जिन्हें केवलज्ञान उत्पन्न हुआ हो. ऐसे भाव-अरिहंतों की स्तति करूंगा. ऐसा कहकर तीर्थंकरों का ज्ञानातिशय प्रकट किया गया है। उनकी संख्या बताने के लिए चउवीसंपि-चौवीस और अपि शब्द के प्रयोग से चौवीस के अलावा और भी जो अरिहंत तीर्थकर है, उनकी भी स्तुति करूंगा। वे अरिहंत कैसे है? इसे बताते हैं-लोगस्स उज्जोअगरे अर्थात् धर्मास्तिकाय आदि पांच अस्तिकाय रूप लोक को केवलज्ञान से प्रकाशित-उद्योतित करने वाले हैं। यहां शंका होती है कि केवलज्ञानी कहने से ही लोक-प्रकाशकत्व का समावेश हो जाता है', फिर 'लोक का उद्योत करने वाले, इस प्रकार अलग से कहने की क्या आवश्यकता थी? इसके उत्तर में कहते हैं-तुम्हारा कथन सत्य है, फिर भी विज्ञानाद्वैतवादी ऐसा मानते हैं किजगत् ज्ञान रूप है? ज्ञान के बिना और कोई भी तत्त्व सत्य नहीं है। जो दिखता है, वह सब भ्रांति रूप है। यहां इसका | खंडन करते हुए कहते हैं-प्रकाशक और प्रकाश्य दोनों अलग-अलग है। यानी जगत् प्रकाश्य है और ज्ञान प्रकाशक है। इस तरह प्रकाश करने वाला और प्रकाशित की जाने वाली वस क हैं। इसे बताने के लिए ही लोक को प्रकाशित करने वाले ऐसा कहा है। और लोक के उद्योतकर्ता की स्तुति करने वाले भक्तजन का इससे उपकार भी होता है। अर्थात् लोक-प्रकाशक के कारण वे लोकोपकारी होने से तथा लोक उनके द्वारा उपकृत होने से वे स्तुति करने योग्य हैं। अनुपकारी की स्तुति कोई नहीं करता, इसलिए उनका उपकारित्व बताने के लिए कहते हैं-धम्मतित्थयरे अर्थात् धर्मप्रधान तीर्थ को करने (रचने) वाले।' इसमें धर्म शब्द की व्याख्या पहले कर चुके हैं। तीर्थ उसे कहते हैं, जिसके द्वारा तरा जाय। अतः धर्म की प्रधानता वाला जो तीर्थ होता है, वह धर्मतीर्थ, धर्ममय या धर्म रूप तीर्थ कहलाता है। जहां नदियां इकट्ठी होती हैं, वह द्रव्यतीर्थ कहलाता है, ऐसे स्थान का तथा शाक्य आदि द्वारा स्थापित अधर्मप्रधान तीर्थ का निराकरण करने के लिए यहां धर्म शब्द का प्रयोग किया है। अर्थात् धर्म ही संसारसमुद्र से तरने के लिए पवित्र तीर्थ है। ऐसे धर्मतीर्थ के संस्थापक धर्मतीर्थकर कहलाते हैं। ऐसे अरिहंत भगवान् देवों, मनुष्यों और असुरों से भरी हुई पर्षदा (धर्म-सभा) में बैठकर अपनी-अपनी भाषा में सभी समझ सकें, इस प्रकार की पैंतीस गुणों से युक्त वाणी से धर्म समझाकर धर्मतीर्थ की स्थापना करते हैं। इस धर्मतीर्थकर विशेषण से अरिहंतों का पूजातिशय और वचनातिशय प्रकट | किया गया है। अब उनका अपायापगमातिशय बताते हैं-जिणे अर्थात् रागद्वेष आदि आभ्यंतर शत्रुओं को जीतने वाले की स्तुति करूंगा। उस स्तुति का रूप प्रकट करते हुए कहते हैं
उसभमजिअं च वंदे संभवमभिणंदणं च सुमइं च । पउमप्पहं सुपासं, जिणं च चंदप्पहं यंदे ॥२॥ सुविहिं च पुष्पदंतं, सीअल-सिज्जंस-वासुपुज्जं च । विमलमणंतं च जिणं, धम्म संतिं च बंदामि ॥३॥ कुंथु अरं च मल्लिं वंदे मुणिसुव्ययं नमिजिणं च । वंदामि रिट्ठनेमिं पासं तह वद्धमाणं च ॥४॥
श्री ऋषभदेव और अजितनाथ जिन को वंदन करता हूं तथा संभवनाथ, अभिनंदनस्वामी, पद्मप्रभु, सुपार्श्वनाथ और चंद्रप्रभस्वामी को मैं वंदन करता हूं ।।३।। सुविधिनाथ अथवा पुष्पदंत, शीतलनाथ, श्रेयांसनाथ, वासुपूज्य,
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