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आगम की स्तुति
योगशास्त्र तृतीय प्रकाश श्लोक १२३
के प्रकाश से भी अधिक प्रकाशकर्त्ता । सूर्य सीमित क्षेत्रों में प्रकाश करते हैं; जबकि अरिहंत केवलज्ञान रूपी सूर्य के | प्रकाश से लोकालोक के सभी पदार्थों को प्रकाशित करते हैं। कहा भी है- चंद्रमा, सूर्य और ग्रहों की प्रभा परिमितक्षेत्र में प्रकाश करती है; किन्तु केवलज्ञान की प्रभा तो लोक- अलोक को सर्वथा प्रकाशित करती है। ( आ. नि. ११२) तथा सागरवरगंभीरा अर्थात् परिषहों, उपसर्गों आदि से क्षुब्ध न होने वाले, स्वयंभूरमणसमुद्र के समान गंभीर, सिद्धा अर्थात् | कर्मरहित होने से कृतकृत्य हुए सिद्धभगवान् सिद्धिं मम दिसंतु अर्थात् परमपद - मोक्ष मुझे दें।
इस तरह चौबीस जिनेश्वर भगवंतों की स्तुति करके सारे जगत् में विद्यमान तीर्थंकर प्रतिमाओं को वंदन आदि करने के लिए, कायोत्सर्ग करने के हेतु सव्वलोए अरिहंत-चेइआणं करेमि काउस्सग्गं से लेकर अप्पाणं वोसिरामि तक का पाठ बोले, इसका अर्थ, अरिहंत चेइआणं और अन्नत्थसूत्र में पहले कह आये हैं। केवल सव्वलोए शब्द का अर्थ नहीं कहा गया था । सव्वलोए का अर्थ है- ऊर्ध्वलोक, अधोलोक और तिर्यक्-लोक । इन तीनों लोकों में से अधोलोक में चमरेन्द्र आदि के भवन हैं, तिर्यक्लोक में द्वीप, पर्वत और ज्योतिष्क विमान हैं और ऊर्ध्वलोक में सौधर्म देवलोक | आदि के विमान है, जहां शाश्वत जिनप्रतिमाएँ हैं। प्रत्येक मंदिर में मूल प्रतिमा समाधि का कारण रूप होने से, सर्वप्रथम | मूलनायक की स्तुति करके, तत्पश्चात् सभी अरिहंतों के गुण एक सरीखे होने से, समग्र लोक के समस्त तीर्थंकरों की सर्वप्रतिमाओं का ग्रहण करके काउस्सग्ग करना। उसके बाद नमो अरिहंताणं कहकर सर्वतीर्थंकरों की साधारण स्तुति | बोलना। क्योंकि काउस्सग्ग किसी और का किया जाय और स्तुति किसी अन्य की बोली जाय तो अतिप्रसंग दोष होता है; जो उचित नहीं माना जाता। इसलिए सभी तीर्थंकर भगवंतों की साधारण (Common) स्तुति करनी चाहिए।
अब जिससे उन अरिहंतों और उनके द्वारा कहे हुए भावों को स्पष्ट रूप से जान सकें, ऐसे दीपक के समान | सम्यक् श्रुत की स्तुति करनी चाहिए। उस श्रुत के वक्ता आप्तपुरुष अरिहंत भगवान् की सर्वप्रथम स्तुति करते हैंपुक्खरवरदीवढे धायइसंडे अ जंबूदीये अ । भरहेरवय - विदेहे धम्मा गरे नम॑सामि ॥१॥ अर्थ :
पुष्करवद्वीप के अर्धद्वीप में, धातकीखंड और जंबूद्वीप में विद्यमान भरत, ऐरावत और महाविदेह रूप कर्मभूमियों में श्रुत धर्म की आदि करने वाले श्री तीर्थंकरों को नमस्कार करता हूं ॥१॥ व्याख्या :- • भरहेरवयविदेहे - अर्थात्, भरतक्षेत्र, ऐरावतक्षेत्र और महाविदेह क्षेत्र में यहां समाहारद्वंद्व समास करने और भीमसेन का भीम की तरह संक्षिप्त रूप करने से भरतैरावतविदेह शब्द बना है। धम्मा यानी श्रुत धर्म के आइगरे | अर्थात् सूत्र में आदि करने वाले तीर्थंकर भगवान् को नम॑सामि=नमस्कार करता हूं। उक्त क्षेत्र कहां-कहां है? इसे कहते। | हैं - पुक्खरवरदीवड्ढे = उसे पुष्करवर इसलिए कहा है कि वह पद्मकमल से भी श्रेष्ठ है। यह जंबूद्वीप से तीसरा द्वीप है। | उसके अंदर आधेभाग में मानुषोत्तर पर्वत है, इसलिए उसे पुष्करवरद्वीपार्ध कहा है, उसमें दो भरत, दो ऐरावत और | दो महाविदेह क्षेत्र, यों छह क्षेत्र हैं। धायईसंडे अर्थात् धातकी नाम के वृक्षों का खंड । उस वन में धातकीवृक्षों का बाहुल्य | होने से उसका नाम धातकीखंड है। उसमें दो भरत, दो ऐरावत, दो महाविदेह ऐसे छह क्षेत्र है तथा जंबूदीवे=जंबू नाम के वृक्षों की प्रधानता होने से इसका नाम जंबूद्वीप है। एक भरत, एक ऐरावत और एक महाविदेह ऐसे तीन क्षेत्र है। सभी | मिलाकर ६+६ + ३ = १५ कर्मभूमियां हैं; शेष अकर्मभूमि है। इसलिए कहा है- भरतेरावतविदेहाः कर्मभूमयोऽन्यत्र देवकुरूत्तरकुरुभ्यः (तत्त्वार्थ सूत्र ३-१६) अर्थात् देवकुरु और उत्तरकुरु के सिवाय भरत, ऐरावत और महाविदेह - क्षेत्र कर्मभूमियां हैं। यहां पर पहले पुष्करवर बाद में धातकीक्षेत्र और उसके बाद जंबूद्वीप इस तरह व्यूत्क्रम से जो कहा है; वह उन क्षेत्रों की विशालता व मुख्यता बताने की दृष्टि से कहा है। भगवद्वचनों को जो अपौरुषेय व अनादि मानते हैं; उनके मत का खंडन धम्माइगरे (धर्म के आदिकर्ता ) शब्द से किया गया है, उस पर तर्क-वितर्क हम पहले कर चुके हैं, वहीं से समझ लेना । प्रश्न है - तीर्थंकर धर्म की आदि करने वाले हैं; यह कैसे कह सकते हैं? क्योंकि तप्पुव्विआ अरहया अर्थात् उस श्रुतज्ञान के वचन पूर्वक ही अरिहंत होते हैं, इससे सिद्ध हुआ कि श्रुतज्ञान अरिहंत भगवान् के | पहले से अनादि से था। इसका उत्तर देते हैं ऐसा नहीं है; श्रुतज्ञान और तीर्थंकर भगवान् कारणकार्यसंबंध से बीज और अंकुर के समान है। जैसे बीज से अंकुर और अंकुर से बीज होता है; वैसे ही भगवान् भी पहले तीसरे भव (जन्म) में श्रुतधर्म के अभ्यास से तीर्थंकरत्वप्राप्ति और तीर्थंकरत्व से श्रुतधर्म के आदि करने वाले हैं। ऐसा कहने में कोई आपत्ति नहीं है। श्रुतज्ञानपूर्वक ही अर्हन्त होते हैं, ऐसा नियम नहीं है, क्योंकि मरुदेवी आदि के श्रुतधर्म के अभाव में भी
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