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आगम स्तुति (पुक्खवरीदवड्डे की स्तुति)
योगशास्त्र तृतीय प्रकाश श्लोक १२३ पर प्रसन्न हो। इस गाथा में प्रयुक्त शब्दों के विशेष वर्णन करने के लिए कहते हैं - विहुअरयमला रज और मल रूपी कर्मों को जिन्होंने दूर किया है। बंधते हुए कर्मों को रज और पहले बंधे हुए कर्मों को मल कहते हैं। अथवा बद्धकम को रज और निकाचित कर्मों को मल कहते हैं। अथवा गमनागमन आदि क्रिया से वीतरागदशा में बंधते हुए कर्मों को रज और सराग अवस्था में कषाय के उदय से बंधते हुए कर्मों को मल समझना । अतः रज और मल रूप कर्मों को जिन्होंने नष्ट कर दिया है और इससे ही पहीण - जरमणा अर्थात् कर्म रूपी कारण के अभाव में जिनके जरा-मरण आदि | दुःख नष्ट गये हैं। वे चउवीसंपि अर्थात् ऋषभ आदि चौवीस और अपि शब्द से अन्य भी जिणवरा अर्थात् जिनेश्वर | भगवान्। यानी श्रुतकेवली आदि जिनों में उत्कृष्ट केवलज्ञानी होने से मुख्य और तित्थयरा अर्थात् तीर्थ की स्थापना करने वाले तीर्थंकर देव 'मे' अर्थात् मुझ पर पसीयंतु प्रसन्न हो । यद्यपि तीर्थंकर भगवान् राग-द्वेष से रहित हैं, इसलिए उनकी स्तुति करने से वे तुष्ट अथवा निंदा करने से रुष्ट नहीं होते फिर भी स्तुति करने वाले को स्तुति का फल और निंदा करने वाले को निंदा का फल अवश्य मिलता है। जैसे चिंतामणि रत्न, मंत्र आदि में राग-द्वेष नहीं होने पर भी उनकी आराधना करने से लाभ और विराधना करने से हानि के रूप में फल अवश्य मिलता है। ऐसा ही श्रीवीतराग | केवली भगवान् आदि के लिए समझना चाहिए। हमने श्री वीतराग स्तोत्र में कहा है- जो प्रसन्न नहीं होते उनकी ओर | से फल किस तरह से मिल सकता है? यह कल्पना करना उचित नहीं । क्या जड़ चिंतामणि आदि फल नहीं देते? तो यहां फिर शंका की जाती है कि यदि स्तुति करने से तीर्थंकर प्रसन्न नहीं होते तो फिर प्रसन्न हो ऐसी प्रार्थना करना व्यर्थ है; ऐसा व्यर्थ प्रलाप क्यों किया जाय? इसके उत्तर में कहते हैं- ऐसी बात नहीं है, क्योंकि भक्तिवश ऐसा कहने में दोष नहीं है। कहा भी है- क्षीणक्लेश वाले वीतराग भगवान् चाहे प्रसन्न न होते हों, फिर भी उनकी स्तुति करना निष्फल नहीं है, क्योंकि स्तुति करने से भावों की शुद्धि तो होती ही है, कर्मों की निर्जरा भी होती है। अतः स्तोता का अपना प्रयोजन सफल होता है । तथा
कित्तिय-वंदिय-महिया, जे ए लोगस्स उत्तमा सिद्धा । आरुग्गबोहिलाभं समाहिवरमुत्तमं दिंतु ॥६॥
जो लोक में सर्वोत्तम सिद्ध हो गये हैं, उन तीर्थंकर भगवान् की मैं मन, वचन और काया से स्तुति करता हूं। कीर्तन-वंदन - स्तवन से वे मुझे आरोग्य, बोधिलाभ और उत्तम समाधि प्रदान करें ।। ६ ।।
कित्तिय अर्थात् प्रत्येक का नाम पूर्वक कीर्तन करने से, वंदिय अर्थात् तीनों योग (मन, वचन और काया) से सम्यक् प्रकार से स्तुति करने से महिया अर्थात् पुष्पादि से पूजा करने से, किसी स्थान पर मइया ऐसा पाठांतर है, उसका संस्कृत में रूप होता है - मयका - मया अर्थात् मेरे द्वारा, कीर्तित, वंदित और स्तुत (स्तुति किये हुए) ऐसे कौन? उसे कहते हैं - जे ए लोगस्स उत्तमा अर्थात् जो कर्ममल नष्ट हो जाने से सर्व जीव लोक में उत्तम हैं और सिद्धा अर्थात् सिद्ध हो चुके हैं, कृतकृत्य हो गये हैं। वे आरूग्ग-बोहिलाभं अर्थात् आरोग्य स्वरूप मोक्ष और इसका कारणभूत बोधिलाभ अरिहंत-प्रणीत सम्यग्धर्म प्राप्ति मुझे दें। ऐसा धर्म किसी भी सांसारिक पौद्गलिक सुख की अभिलाषा के बिना केवल मोक्ष प्राप्ति के लिए ही किया जाता है। वही वास्तव में धर्म माना जाता है। अतः मोक्ष के लिए बोधिलाभ की प्रार्थना करना और उसके लिए 'समाहिवर' अर्थात् परम स्वस्थ चित्त रूप भावसमाधि अर्थात् आत्मा का समभाव, उत्तमं वह भी अनेक भेद वाले तारतम्यभाव से रहित सर्वोत्कृष्ट समाधि दिंतु अर्थात् प्रदान करें; ऐसी वीतराग प्रभु के प्रसन्न न होने पर भी भक्ति से प्रेरित होकर ऐसी प्रार्थना करना युक्तियुक्त है। कहा भी है- क्षीणरागद्वेष वाले श्रीवीतराग समाधि | अथवा बोधिबीज नहीं देते; फिर भी भक्ति से इस तरह की प्रार्थना करना; असत्यामृषा रूप व्यवहारभाषा है। जगत् में सभी व्यवहारों में व्यवहारभाषा बोली जाती है। इसलिए यह प्रार्थना भक्ति रूप होने लाभदायक है। तथा
चंदेसु निम्मलयरा, आइच्चेसु अहियं पयासयरा । सागरवरगंभीरा, सिद्धा सिद्धिं मम दिसंतु ॥७॥ अर्थ :चंद्रों से भी अधिक निर्मल, सूर्यो से भी अधिक प्रकाश कर्त्ता स्वयंभूरमण समुद्र से भी अधिक गंभीर सिद्ध भगवान् मुझे सिद्धिपद दें ।।७।।
चंदे
में पञ्चम्यास्तृतीया । । ८ । । ३ । १३६ । । इस सूत्र से प्राकृतभाषा में पंचमी विभक्ति के अर्थ में सप्तमी प्रयुक्त हुई
| है। इसलिए चंदेसु के स्थान पर संस्कृत में चंद्रेभ्यः जानना । निम्मलयरा = अतिनिर्मल अर्थात् सारे कर्ममल नाश हो जाने
से अनेक चंद्रों से भी अतिनिर्मल । कहीं चंदेहिं ऐसा पाठांतर भी है। आइच्चेसु अहियं पयासयरा अर्थात् अनेक सूर्यो
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