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चतुर्विंशतिस्तव (लोगस्स) सूत्रपाठ और उस पर विवेचन
योगशास्त्र तृतीय प्रकाश श्लोक १२३ करना सम्मान कहलाता है। अन्य आचार्य मानसिक प्रीति को सन्मान कहते हैं। यह वंदन-पूजन-सत्कार-सम्मान किसलिए किया जाता है? इसे बताते हैं बोहिलाभवत्तियाए अर्थात् अरिहंत भगवान् द्वारा कथित धर्म की प्राप्ति रूप बोधिलाभ के लिए काउस्सग्ग करता है। यह बोधिलाभ भी किसलिए? इसे कहते हैं-निरुवस्सगवत्तिआए अर्थात् जन्मादि-उपसर्ग से रहित मोक्ष की प्राप्ति के लिए बोधि का लाभ हो। यहां शंका होती है कि साधु और श्रावक को तो बोधिलाभ पहले से प्राप्त होता ही है; फिर उसकी प्रार्थना किसलिए? और बोधिलाभ का फल मोक्ष है; जो (मोक्ष) उससे होने ही वाला है; फिर उसकी प्रार्थना किसलिए की जाय? इसके उत्तर में कहते हैं किसी भयंकर कर्मोदय के कारण प्राप्त हुई बोधि का नाश भी हो सकता है। इसलिए उसका नाश न हो, इस हेतु से बोधिलाभ की प्रार्थना करना लाभदायक है और जन्मांतर में मोक्ष प्राप्ति हो, इसके लिए भी प्रार्थना करना हितकारी है। और इसके लिए काउस्सग्ग करना उचित है।
इस प्रकार कायोत्सर्ग करने पर भी उनके साथ श्रद्धा आदि गुणों की वृद्धि न हो तो ईष्टकार्य की सिद्धि नहीं हो सकती। इसलिए कहते हैं-सद्धाए, मेहाए, धिइए, धारणाए, अणुपेहाए, वड्डमाणीए ठामि काउस्सग्गं अर्थात् श्रद्धा से, मेघा से, धृति से, धारणा से, अनुप्रेक्षा से, इन सबकी वृद्धि के लिए कायोत्सर्ग करता हूं। क्रमशः विश्लेषण इस प्रकार है-सद्धाए=श्रद्धा से। अर्थात् मिथ्यात्व-मोहनीयकर्म के क्षयोपशम आदि से आत्मा में प्रकट होने वाली और जल को निर्मल करने वाले जलकांत मणि के समान चित्त को निर्मल करने वाली श्रद्धा से या श्रद्धा के हेतु से काउस्सग्ग करता हूं। जबरन अथवा अन्य कारणों से नहीं करता; परंतु मेहाए कुशल बुद्धि से। मेघा का अर्थ है-उत्तमशास्त्र समझने में कुशल, पापशास्त्रों को छोड़ने वाली और ज्ञानावरणीय कर्म के क्षयोपशम से प्रकट हुई बुद्धि-दूसरों को समझाने की शक्ति। उस मेघा-बुद्धिपूर्वक काउस्सग्ग करता हूं; न कि जड़ता से अथवा मर्यादा पूर्वक न कि मर्यादा रहित और धिइए धृत्ति से। अर्थात् मन की समाधि रूप धीरता से काउस्सग्ग करता हूं; न कि रागद्वेषादि से व्याकुल बनकर तथा धारणाए अर्थात् श्री अरिहंत भगवान् के गुणों को विस्मरण किये बिना धारणा पूर्वक (गुण स्मरण पूर्वक) करता हूं; न कि शून्य मन से तथा अणुप्पेहाए अर्थात् अरिहंत भगवान् के गुणों का बार-बार चिंतन करते हुए करता हूं, न कि अनुप्रेक्षा से रहित। तथा वड्डमाणीए अर्थात् इस प्रकार की वृद्धि के लिए काउस्सग्ग करता हूं। यहां श्रद्धा आदि पांचों परस्पर संबंधित होकर लाभदायक है। श्रद्धा हो तो मेघा होती है, मेघा हो तो धीरता होती है, धीरता से धारणा और धारणा से अनुप्रेक्षा होती है; इस तरह क्रमशः वृद्धि होती है तथा ठामि काउस्सग्गं अर्थात् काउस्सग्ग करता हूं। यहां फिर प्रश्न होता है कि-सूत्र के प्रारंभ में करेमि काउस्सग्गं कहा था, तो फिर ठामि काउस्सग्गं कहने की क्या आवश्यकता थी? इसका उत्तर देते हैं-आपका कहना सत्य है, परंतु शब्दशास्त्र के न्याय से जो निकट (आसन्न) भविष्य में करना हो, उसके लिए अभी करता हूं। इस प्रकार का वर्तमानकाल का प्रयोग किया जाता है। सत्सामीप्ये सद्वद् ।।५।४।१।। सिद्धहैमशब्दानुशासन के इस सूत्र के अनुसार वर्तमानकाल समीप में हो तो वह वर्तमानकाल का रूप गिना जाता है। इस न्याय से प्रारंभ में करेमि काउस्सग्गं कहा गया है। ऐसा कहकर पहले वहां भंते! आज्ञा दीजिए, अब कायोत्सर्ग करता हूं; इस प्रकार काउस्सग्ग करने की आज्ञा मांगी गयी है। वह आज्ञा रूप क्रियाकाल है और अंत में जो पाठ है, वह अभी काउस्सग्ग करता हूं। इस प्रकार क्रिया की समाप्ति का काल है। इन दोनों में कथंचित् एक रूपता होने से वर्तमान में उसका प्रारंभ बताने के लिए काउस्सग्ग करता हूं; ऐसा कहा है
यहां सवाल उठता है कि क्या काउस्सग्ग में शरीर का सर्वथा (सब प्रकार से) त्याग किया जाता है? इसका उत्तर यह है-ऐसी बात नहीं है। पहले अन्नत्थ सूत्र में बताये गये श्वासोच्छ्वास, खांसी आदि कारणों (आगारों) के सिवाय अन्य काया के व्यापारों का त्याग करता हूं; यह बताने के लिए अन्नत्थ ऊससिएणं आदि सूत्र बोलकर उसी तरह काउस्सग्ग करना। काउस्सग्ग आठ श्वासोच्छ्वास का ही होता है तथा उसमें नवकारमंत्र ही गिनना चाहिए, ऐसा एकांत नियम नहीं है; अपितु यह लक्ष्य रूप है। चैत्य-वंदन करने वाला अकेला ही हो तो वह काउस्सग्ग के अंत में 'नमो अरिहंताणं' कहकर काउस्सग्ग पूर्ण करके जिन तीर्थंकरप्रभु के सम्मुख उसने चैत्यवंदन किया है, उनकी स्तुति बोले। यदि चैत्यवंदन करने वाले बहुत से लोग हों तो एक व्यक्ति काउस्सग्ग पारकर स्तुति बोले, शेष व्यक्ति काउस्सग्ग
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