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अरिहंत चेइयाणं के अर्थ
योगशास्त्र तृतीय प्रकाश श्लोक १२३ | देते हैं कि 'स्तुति आदि बार-बार कहने पर भी पुनरुक्तिदोष नहीं होता।' कहा भी है कि स्वाध्याय, ध्यान, तप, औषध, उपदेश, स्तुति, दान और विद्यमान गुणों का कीर्तन बार-बार करने पर भी पुनरुक्ति दोष नहीं माना जाता। इसी | प्रकार इस सूत्र में पुनरुक्ति दोष नहीं है। यह नमुत्थुणं - नमस्कार कराने वाला होने से नौ संपदाओं वाला होने से इसका दूसरा नाम प्रणिपातदंडक सूत्र भी है। श्री जिनेश्वर भगवान् तीर्थ स्थापना करते हैं, उससे पहले जन्मादि - कल्याणक के | समय में अपने विमान में बैठे हुए शक्र - इंद्र महाराज इस नमुत्थुणं सूत्र से तीर्थंकर - प्रभु की स्तुति करते हैं; इस कारण | इसे शक्रस्तव - सूत्र भी कहते हैं। इस सूत्र में अधिकतर भाव - अरिहंत को लेकर स्तुति की गयी है; फिर भी स्थापना| अरिहंत रूप तीर्थंकरदेव की प्रतिमा में भाव-अरिहंत का आरोपण करके प्रतिमा के सम्मुख यह सूत्र बोला जाय तो कोई | | दोष नहीं है । प्रणिपातदंडकसूत्र के बाद अतीत, अनागत और वर्तमान जिनेश्वर भगवान् को वंदन करने के लिए कितने ही लोग निम्नोक्त पाठ भी बोलते हैं
जे अ अइया सिद्धा, जे अ भविस्संति णागए काले । संपड़ अ वट्टमाणा, सव्ये तिविहेण वंदामि ॥१॥
अर्थात् :- जो भूतकाल में सिद्ध हो गये हैं, जो भविष्यकाल में सिद्ध होने वाले हैं और वर्तमानकाल में जो विचरण करते हैं, उन सभी अरिहंत भगवंतों को मन, वचन और काया से वंदन करता हूं।
इसके बाद जिनप्रतिमा के सम्मुख खड़े होकर वंदन करने के लिए जिनमुद्रा से अरिहंत चेइयाणं आदि सूत्र बोलना | चाहिए। उन भाव - अरिहंतों की प्रतिमा रूप चैत्य को अरिहंत चैत्य समझना । चैत्य का अर्थ प्रतिमा है । चित्त का अर्थ | है - अंतःकरण । चित्त के भाव को अथवा चित्त के कार्य को चैत्य कहते हैं। सिद्धहैमशब्दानुशासन के अनुसार वर्णाद् दृढ़ादित्वात् ट्यणि ॥ ७ । १ । ५९ । सूत्र से चित्त शब्द के ट्यण प्रत्यय लगने से चैत्य शब्द बना है । बहुवचन में चैत्यानि | (चेइयाइं) होता है। श्रीअरिहंत भगवान् की प्रतिमाएँ चित्त में उत्तम समाधिभाव उत्पन्न करती हैं, इसलिए इन्हें चैत्य कहा गया है। अरिहंत चेइआणं करेमि काउस्सग्गं अर्थात् उन अरिहंत के चैत्यों को वंदन करने के लिए काउस्सग्ग करता हूं। अब काउस्सग्ग शब्द का रहस्यार्थ प्रकट करते हैं- जब तक शरीर से काउस्सग्ग करता हूं, तब तक काया से निश्चेष्ट | होकर जिनमुद्रा की आकृति का वचन से और मौनपूर्वक मन से चिंतन करता हूं। सूत्र के अर्थ का आलंबन-रूप ध्यान करता हूं। और इससे भिन्न क्रियाओं का मैं त्याग करता हूं। यह काउस्सग्ग किसलिए किया जाता है? इसे बताते हैं| - वंदणवत्तियाए = वंदन-प्रत्ययार्थ अर्थात् मन, वचन और काया की प्रशस्त प्रवृत्ति रूप वंदन के लिए । 'काउस्सग्ग द्वारा वंदन हो । स्पष्टार्थ हुआ - वंदन करने की भावना से काउस्सग्ग करता हूं, ताकि मुझे वंदन का लाभ मिले। तथा | पुअणवत्तियाए= गंध, वास पुष्प आदि से अर्चना करना पूजा है; उस पूजा के निमित्त से काउस्सग्ग करता हूं। तथा सक्कारवत्तियाए अर्थात् श्रेष्ठ, वस्त्र, आभूषण आदि से अर्चना करना सत्कार कहलाता है । तथारूप सत्कार के लिए काउस्सग्ग करता हूं। यहां शंका होती है कि मुनि के लिए तो द्रव्यपूजा का अधिकार नहीं है । और यह गंधवास, वस्त्र, | आभूषण आदि द्रव्यपूजा है। फिर वे इस प्रकार की द्रव्यपूजा कैसे कर सकते है? और श्रावक तो विविध द्रव्यों से पूजन| सत्कार करते ही हैं, तो फिर काउस्सग्गपाठ से पूजन- सत्कार की प्रार्थना करना, उनके लिए निष्फल है। तब फिर वह क्यों की जाय ? इसका उत्तर देते हैं- साधु के लिए स्वयं द्रव्यपूजा करना निषिद्ध है, परंतु दूसरे के द्वारा कराने अथवा | अनुमोदन करने का निषेध नहीं है। उसका उपदेश देने एवं दूसरे के द्वारा श्री जिनेश्वर भगवान् की की हुई पूजा या | सत्कार - (आंगी) के दर्शन करने से व हर्ष से अनुमोदना होती है; इसका भी निषेध नहीं है। कहा है कि
सुव्यइ अ यइररिसिणा कारवणं पि अ अणुट्ठियमिमस्स । वायगगंथेसु तहा आगया देसणा चेव ॥१॥
महाव्रतधारी वज्रस्वामी ने द्रव्यस्तव कराने का कार्य स्वयं ने किया है तथा पू. वाचकवर्य श्री उमास्वातिजी महाराज के ग्रंथों में इस विषय पर देशना की गयी है। इस तरह साधु को द्रव्यस्तव कराने का तथा अनुमोदना का अधिकार है; परंतु स्वयं को करने का निषेध है। तथा श्रावक के लिए संसार बंधन तोड़ने हेतु इस प्रकार की द्रव्यपूजा करना उचित | है। श्रावक जब स्वयं पूजा - सत्कार करता है, तो उसके भावों में वृद्धि होती है। इस कारण अधिक फल प्राप्ति के लिए | काउस्सग्ग द्वारा वह पूजा - सत्कार की प्रार्थना करता है । इस दृष्टि से यह निष्फल नहीं है। अतः साधु-श्रावक को इसका | काउस्सग्ग करने में दोष नहीं है। तथा सम्माणवत्तियाए= सम्मान के लिए काउस्सग्ग किया जाता है। स्तुति-स्तवन आदि
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