________________
नमोत्थुणं की व्याख्या
योगशास्त्र तृतीय प्रकाश श्लोक १२३ मोह के बिना नहीं हो सकते। अतः ये विकल्प मोहजन्य ही हैं और ऐसा मोह होने पर भी उनका मोक्ष है अथवा मोक्ष होने पर भी ऐसा मोह है; बलिहारी है ऐसे मोही ज्ञानियों की! ऐसा कहना अज्ञानजन्य कोरा मिथ्याप्रलाप है। इस तरह अप्रतिहत श्रेष्ठज्ञानदर्शन के धारक, एवं कर्म और संसार से मुक्त स्वरूप वाले भगवान् को स्तोतव्य सिद्ध करके स्तोतव्य संपदा के अंतर्गत साकार स्वरूप संपदा नामकी दो पद की सातवीं संपदा बता दी है।
अब 'भ्रान्तिमात्रमसद्विद्या' अर्थात् जगत् केवल भ्रांति रूप है, इस कारण असत् है और अविद्या रूप है; इस कथन से सभी भावों को केवल भ्रांति रूप मानने वाले अविद्यावादी श्रीअरिहंतदेव को भी परमार्थ से काल्पनिक असत् स्वरूप मानते हैं, उनका खंडन करते हुए कहते हैं-'जिणाणं जावयाणं' अर्थात् रागादि शत्रुओं को जीतने एवं जिताने वाले जिनेश्वर भगवान् को नमस्कार हो। जीवमात्र में रागद्वेष आदि अनुभवसिद्ध होने से वे भ्रांति रूप, असत् या काल्पनिक नहीं है। यदि कोई कहे कि राग आदि का अनुभव होता है, परंतु वह है भ्रम रूप ही; र है; क्योंकि स्वानुभव भी कल्पना रूप माना जाय, तो जीव का जो सुख-दुःख आदि का अनुभव होता है; वह भी भ्रम | रूप हो जायगा; और इससे मूल सिद्धांत ही खत्म हो जायगा। अतः राग-द्वेष आदि सत् है और उनको जीतने वाले | जिन है, वे भी सत् है, कल्पना रूप नहीं है। 'जावयाणं' अर्थात् रागादि को जिताने वाले भगवान् को नमस्कार हो। |जिनेश्वर भगवान् सदुपदेश आदि के द्वारा दूसरी आत्माओं को भी राग-द्वेष आदि शत्रुओं पर विजय प्राप्त करवाते हैं। प्रत्येक कार्य में काल को कारण मानने वाले अनंत के शिष्य भगवान् को भी वस्तुतः संसार-समुद्र से तिरे हुए नहीं मानते; वे कहते हैं-'काल एव कृत्स्नं जगदावर्तयति' अर्थात् काल ही सारे जगत् को सर्वभावों में परिवर्तित किया करता है; इसका खंडन करते हुए कहते हैं-'तिनाणं तारयाणं' अर्थात् स्वयं संसार से तरते (पार उतरते) हैं और दूसरे को संसार-समुद्र से तारते पार उतारते हैं; ऐसे भगवान् को नमस्कार हो। भगवान् सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र-रूपी नौका के द्वारा संसार-समुद्र से पार उतर चुके; इसलिए स्वयं तीर्ण है। इस कारण संसार से पार होने के बाद फिर उनका संसार में आना संभव नहीं है यदि वे वापिस संसार में आते हैं तो मुक्ति असिद्ध हो जायगी। अतः मुक्तात्मा फिर कभी संसारी नहीं बनते वे जिस तरह संसार से पार उतरते हैं, वैसे ही दूसरे को भी पार उतारते हैं, इस तरह भगवान् तारने वाले भी है। जो मीमांसक ज्ञान को प्रत्यक्ष नहीं, अपितु परोक्ष मानते हैं, वे तीर्थंकर को बोध-(ज्ञान) वान या बोधदाता नहीं मानते। वे कहते हैं-अप्रत्यक्षा हि नो बुद्धिः प्रत्यक्षोऽर्थः' अर्थात्-हमको वस्तु तो प्रत्यक्ष दिखती है, परंतु बुद्धि तो प्रत्यक्ष नहीं दिखती है। इसलिए बुद्धि आत्मा से परोक्ष है, यदि वह प्रत्यक्ष होती तो पदार्थ के समान वह भी दीखनी |चाहिए। इसका खंडन करने की दृष्टि से कहते हैं-'बुद्धाणं बोहयाणं' अर्थात स्वयं बोध-(ज्ञान) प्राप्त करने वाले और | दूसरों को ज्ञान कराने वाले भगवान् को नमस्कार हो। अज्ञान-निद्रा में सोये हुए इस जगत् में तीर्थंकर को जो जीव-अजीव आदि तत्त्वों का ज्ञान होता है, वह दूसरों के उपदेश बिना ही स्वसंविदित होता है; इससे वे 'बुद्ध' है। जिस ज्ञान से उस ज्ञान का ज्ञान न हो, उस ज्ञान से पदार्थ का ज्ञान भी नहीं हो सकता। जैसे दीपक स्वयं अदृष्ट रहे और दूसरे पदार्थ को बताये, ऐसा हो नहीं सकता। वस्तुतः दीपक जैसे अपना और दूसरे पदार्थ का, दोनों का ज्ञान कराता है; वैसे ज्ञान भी स्वयं का और अन्य का यानी स्व और पर का ज्ञान कराता है। जैसे इंद्रियां देखती नहीं है, फिर भी पदार्थ का ज्ञान | कराती है, उसी तरह ज्ञान परोक्ष होने पर भी पदार्थ का ज्ञान करा सकता है; क्योंकि पदार्थज्ञान कराने वाली, जो इंद्रियां हैं, वे तो भाव रूप हैं और भावेन्द्रिय ज्ञान रूप होने से आत्मा को प्रत्यक्ष है। कहा है कि-'अप्रत्यक्षोपलब्धस्य नार्थदृष्टिः प्रसिद्धयति' अर्थात् जिस ज्ञान की प्रत्यक्ष प्राप्ति नहीं होती, उससे पदार्थ का ज्ञान भी नहीं होता है। इस तरह भगवान् में बुद्धत्व भी सिद्ध होता है और परबोधकर्तृत्व (दूसरे को बोध कराना) भी। अतः भगवान् बोधक भी है। जगत्-कर्ता ब्रह्म में लीन हो जाना ही मुक्ति है; ऐसा मानने वाले संतपन के शिष्य तीर्थकर को भी वास्तव में मुक्त नहीं मानते; वे कहते हैं कि 'ब्रह्मवद् ब्रह्मसंगतानां स्थितिः' अर्थात् जैसी ब्रह्म की स्थिति है, वैसी ही ब्रह्म में मिलने वालों की स्थिति हो जाती है। उनके मत का खंडन करते हुए कहते हैं मुत्ताणं मोयगाणं अर्थात् कर्मबंधन से स्वयं मुक्त हुए और दूसरे को मुक्त कराने वाले भगवान् को नमस्कार हो। जिस कर्म का फल चार गति रूप संसार-परिभ्रमण रूप है,
266