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नमोत्थुणं की व्याख्या
योगशास्त्र तृतीय प्रकाश श्लोक १२३ कदापि निष्फल नहीं जाता; प्रत्युत भलीभांति सफल होता है; क्योंकि भगवान् जीव की योग्यतानुसार उपदेश देते हैं। अतः भगवान् सच्चे धर्मोपदेशक है। तथा 'धम्मनायगाणं' अर्थात् धर्म के नायक (स्वामी) भगवान् को नमस्कार हो। पहले कहे अनुसार चारित्रधर्म के स्वामी भगवान् ही हैं; क्योंकि उन्होंने धर्म को आत्मसात् किया है। उन्होंने उस धर्म का पूर्ण रूप से उत्कृष्ट पालन किया है, एवं उसका उत्तम फल भोग रहे है। उनके जीवन में धर्म का विघात या विरह | कभी नहीं होता; इस कारण वे ही धर्म के नायक है। तथा धम्मसारहीणं अर्थात् धर्म के सारथी भगवान् को नमस्कार हो। भगवान् चारित्रधर्म में सम्यक्प्रवृत्ति और उसका पालन स्वयं करते हैं और दूसरों से करवाते हैं तथा इंद्रियों का स्वयं दमन करते हैं और दूसरों से कराते हैं, इसलिए वे धर्म रूपी रथ के वास्तविक सारथी है। तथा 'धम्मवरचाउरंतचक्कवट्टीणं' अर्थात् श्रेष्ठ चातुरंत धर्मचक्रवर्ती श्री अरिहंत भगवान् को नमस्कार हो। यहां धर्म का अर्थ चारित्रधर्म समझना। वह धर्म कष, छेदन और ताप से अत्यंत शुद्ध होता है। बौद्ध आदि द्वारा कथित धर्म चक्र की अपेक्षा से ठीक है, चक्रवर्ती का चक्र केवल इस लोक का ही हितकारी है, जब कि यह विरति रूप धर्मचक्र तो दोनों लोक में हितकारी है। इस कारण से यह धर्मचक्र सर्वश्रेष्ठ है तथा नरक, तिथंच, मनुष्य और देव रूप चार गति रूप संसार का अंत करने वाला होने से वह चातुरंत है। फिर यह विरतिधर्म रौद्रध्यान, मिथ्यात्व आदि भावशत्रुओं का नाश करने वाला होने से चक्र के समान है। इस तरह भगवान् श्रेष्ठ चातुरंत धर्मचक्र के प्रवर्तक धर्मचक्रवर्ती हैं। इस प्रकार 'धर्मदाता' आदि पांच प्रकार से भगवान् की विशेष उपयोगिता बताकर स्तोतव्य-संपदा की विशेष उपयोगी नाम की उनकी यह छट्ठी संपदा कही। अब बौद्धों की इस मान्यता का खंडन करते हैं कि सर्वज्ञ सभी पदार्थों का ज्ञाता नहीं होता, केवल ईष्ट तत्त्वों का ही ज्ञाता होता है। वे कहते हैं-जगत् की सभी वस्तुओं को अथवा उसके भावों या पर्यायों को जाने या न जाने, सिर्फ इष्टतत्त्वों को जान लेना ही सर्वज्ञ के लिए बस है। ऐसे सर्वज्ञ को कीड़ों की संख्या के परिज्ञान से क्या मतलब है? उनका खंडन करने की दृष्टि से कहते हैं. 'अप्पडिहय-वरनाणदसणधराणं' अर्थात् अप्रतिहत (खंडित न होने वाले) ज्ञान-दर्शन के धारक भगवान् को नमस्कार हो। यहां पर किसी भी द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव में खंडित न होकर सर्वदा स्थायी एवं अप्रतिबन्धित होने से, इन्हें 'अप्रतिहत' कहा है। तथा समस्त कर्मों के आवरणों का क्षय हो जाने से क्षायिक भाव प्रकट हुआ; उससे प्रत्येक सर्वश्रेष्ठ विशेष-बोध रूप केवलज्ञान और सामान्य बोध रूप केवलदर्शन को धारण करते हैं, वे अप्रतिहतज्ञानदर्शनधारक कहलाते हैं। भगवान् ज्ञानदर्शन के आवरणों से सर्वथा मुक्त होते हैं और उनसे सभी विषयों का ज्ञान
और दर्शन उन्हें होता है। इसमें भी पहले ज्ञान और फिर दर्शन होता है; इस कथन का कारण यह है कि जीव को समस्त लब्धियां जब साकार (ज्ञान) का उपयोग होता है। तभी प्रकट होती हैं. इसलिए ज्ञान को प्रार्थी दी है। ऐसे ज्ञान-दर्शनयुक्त ईश्वर को भी कई दार्शनिक 'छद्मस्थ' (संसारी) मानते हैं। उनका कहना है-धर्मतीर्थ के रचयिता ज्ञानी-पुरुष परमपद मोक्ष को प्राप्त हो जाने पर तीर्थ-(धर्म) रक्षा के लिए फिर संसार में लौट आते हैं। 'जिनका कर्म रूपी इंधन जल गया है तथा जो संसार का नाश कर चुके हैं; वे पुनः संसार में जन्म लेते हैं और स्वयं द्वारा स्थापित धर्म-तीर्थ का कोई नाश कर देगा, इस भय से मोक्ष में गये हुए भी वे वापिस लौट आते हैं।' इस दृष्टि से तो उनका | मोक्ष भी अस्थिर है और स्वयं मुक्त भी है और संसारी भी है। फिर भी दूसरों को मोक्ष देने में शूरवीर है। अहो भगवन्! आपके शासन से भ्रष्ट लोगों पर ऐसा विसंवाद रूप मोहराज्य का चक्कर चल रहा है! इस मान्यता का खंडन करने के | हेतु कहा-'विअट्टछउमाणं' अर्थात् आत्मा के ज्ञानादि गुणों को ढकने वाले ज्ञानावरणीय आदि कर्म तथा उस कर्मबंधन के योग्य जो अशुद्ध संसारी अवस्था-छद्म अवस्था है, वह छद्म-अवस्था उनकी खत्म हो गयी है, अतः उन्हें 'विअट्टछउमाणं' कहते हैं। जिनकी छद्मावस्था चली गयी; उन भगवंतों को नमस्कार हो। जब तक संसार (छद्मावस्था) | नष्ट न हो, तब तक मोक्ष नहीं होता और मोक्ष होने के बाद उन्हें पुनः जन्म लेने का कोई कारण नहीं रहता। कोई कहते हैं कि जब अपने द्वारा स्थापित धर्मतीर्थ को कोई नष्ट करता हो, उसकी तौहीन करता हो, तब उसका पराभव करने के लिए वे पुनः जन्म लेते हैं; ऐसा लूलालंगड़ा बचाव करना भी अज्ञान रूप है; क्योंकि मोह-ममता के बिना तीर्थ पर मोह (आसक्ति) तथा उसके पराभव को सहन नहीं करने से द्वेष एवं उसके रक्षण आदि के विकल्प राग-द्वेष
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