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नमोत्थुणं ( शक्रस्तव) की व्याख्या
योगशास्त्र तृतीय प्रकाश श्लोक १२३ है । समानजातीयों में उत्तमता ही वास्तविक होती है, निम्न-जातियों से उच्चजातीय में उत्तमता होने में कोई खास विशेषता नहीं होती । यों तो अभव्य की अपेक्षा सभी भव्यजीव उत्तम हैं ही, इस अपेक्षा से भगवान् की उत्तमतां बताने में कोई विशेषता नहीं है। इसलिए वे सजातीय भव्यजीवों में उत्तम है; ऐसा कथन यहां अभीष्ट है। क्योंकि समस्त | भव्यजीवों में सकल कल्याण के कारणभूत भव्यत्व नाम के भाव केवल भगवान् में ही रहते हैं। ऐसे लोक में उत्तम भगवान् को नमस्कार हो । लोगनाहाणं अर्थात् लोक के नाथ। योगक्षेम करने वाला नाथ होता है। अप्राप्त वस्तु को प्राप्त कराना योग है और प्राप्त वस्तु की रक्षा करना क्षेम है। इस दृष्टि से भगवान् लोक में धर्मबीज की स्थापना द्वारा अप्राप्त धर्म को प्राप्त कराते हैं और धर्म की रागादि उपद्रवों से रक्षा करते-कराते हैं; इसलिए वे भव्यजीवलोक के नाथ हैं। तथा | भगवान् को समस्त भव्यजीव रूपी लोक की अपेक्षा से यहां लोकनाथ नहीं कहा गया है; क्योंकि जो जाति (जन्मतः ) भव्य है, उनके योग-क्षेमकर्ता भगवान् नहीं हो सकते, यदि ऐसा होता तो समग्र जीवों का मोक्ष हो जाता। इसलिए यहां भगवान् उन भव्यजीवों के ही योगक्षेमकर्ता हो सकते हैं, जो मोक्ष के निकट हैं। ऐसे भव्यजीवों में भगवान् धर्मबीज की | स्थापना करके, धर्मांकुर का प्रादुर्भाव और उसका पोषण करने से योग करते हैं एवं रागद्वेषादि आंतरिक शत्रुओं के उपद्रव | से उनका रक्षण करके क्षेम करते हैं । अर्थात् उन विशिष्ट भव्यजीव रूप लोक के नाथ को नमस्कार हो ।
लोगहियाणं- अर्थात् लोक के हित करने वाले को नमस्कार हो। यहां 'लोक' शब्द से चौदह राज लोक में एकेन्द्रियजीव से लेकर पंचेन्द्रिय जीव तक सभी व्यवहारराशिगत जीव रूप लोक समझना। चूंकि भगवान् सम्यग्दर्शन | आदि मोक्षमार्ग का उपदेश देकर सभी जीवों को दुःख में पड़ने से बचाते हैं; इसलिए वे लोक-हितैषी है। लोगपईवाणंअर्थात् लोक-संसार में दीपक के समान प्रकाश करने वाले भगवान् को नमस्कार हो । यहां लोकशब्द से विशिष्ट संज्ञी | पंचेन्द्रियजींव रूप लोक समझना चाहिए, क्योंकि भगवान् विशिष्ट संज्ञीजीवों को अपने उपदेश रूपी ज्ञानकिरणों से | मिथ्यात्व - अज्ञान रूपी अंधकार मिटा करके ज्ञेयभाव का यथायोग्य प्रकाश करते हैं, इस कारण संज्ञीलोक के प्रकाशक | होने से वे प्रदीप रूप है। जैसे दीपक अंधे मनुष्य को प्रकाश नहीं दे सकता, वैसे ही भगवान् भी ऐसे महामिथ्यात्व रूप घोर अंधकार में मग्न संज्ञी जीवों को प्रतिबोध नहीं दे सकते। इसलिए भगवान् को विशिष्ट संज्ञी जीव रूप लोक में प्रदीप के समान कहा है। तथा लोगपज्जोअगराणं अर्थात् लोक में सूर्य के समान प्रद्योत करने वाले भगवान् को नमस्कार हो । | यहां लोकशब्द से विशिष्ट चौदह पूर्व के ज्ञानवाले ज्ञानी पुरुष ही समझना चाहिए; क्योंकि उनमें ही वास्तविक प्रद्योत | हो सकता है। और प्रकाश करने योग्य सात अथवा नौ जीवादि तत्त्वों को वे ही यथार्थ रूप से जान सकते हैं। पूर्वधर | ही विशिष्ट योग्यता संपन्न होते हैं । परंतु तत्त्वों को प्रकाशित करने में सभी पूर्वधर एक सरीखे नहीं होते। क्योंकि पूर्वधर भी योग्यता में परस्पर तारतम्ययुक्त - षट्स्थान - न्यूनाधिक होते हैं। प्रद्योत का अर्थ है - विशिष्ट प्रकार से नयनिक्षेपादि से संपूर्ण तत्त्वज्ञान के अनुभव का प्रकाश । ऐसी योग्यता विशिष्ट चतुर्दश- पूर्वधारी में ही होती है। अतः यहां विशिष्ट | चतुर्दश पूर्वधर रूपी लोक में प्रभु सूर्य के समान हैं। जैसे सूर्य से सूर्यविकासी कमल खिलते हैं, वैसे ही भगवत्सूर्य के | निमित्त से विशिष्ट पूर्वधरों को जीवादि तत्त्वों का प्रकाश हो जाता है । इस दृष्टि से भगवान लोकप्रद्योतकर हैं। इस प्रकार लोकोत्तम आदि पांच प्रकार से भगवान् परोपकारी हैं। इसलिए स्तोतव्यसंपदा की सामान्य उपयोग के नाम से चौथी | पंचपदी संपदा बतायी। अब विशिष्ट उपयोग संपदा बताने की दृष्टि से हेतुसंपदा नाम की पांचवीं संपदा बताते हैं'अभयदयाणं, चक्खुदयाणं, मग्गदयाणं, सरणदयाणं, बोहिदयाणं।' इसमें प्रथम 'अभयदयाणं' का अर्थ है
| अभय देने वाले भगवान को नमस्कार हो । भय मुख्यतया सात प्रकार का होता है । १. इहलोकभय, २. परलोकभय, ३. आदान-भय, ४. अकस्माद्भय, ५. आजीविकाभय, ६. मरणभय और ७. अपयशभय । भय का प्रतिपक्षी अभय है। जिसमें भय का अभाव होता है। अर्थात् विशिष्ट आत्म स्वास्थ्य के लिए संपूर्ण कल्याणकारी धर्म की भूमिका में कारणभूत पदार्थ अभय कहलाता है। कोई उसे धैर्य भी कहते हैं। इस प्रकार के अभय को देने वाले श्री तीर्थंकर भगवान् ही है, क्योंकि वे अपने गुणों के प्रकर्षयोग से अचिन्त्यशक्तिसंपन्न होते हैं; एवं एकांत परोपकारपरायण होने से भगवान् | अभयदाता = भयरहितकर्ता भी है। तथा चक्खुदयाणं चक्षु देने वाले को नमस्कार । भगवान् तत्त्वबोध के कारण रूप | विशिष्ट आत्मधर्म रूप चक्षु के दाता है। दूसरे लोग इसे श्रद्धा कहते हैं। जैसे चक्षु के बिना व्यक्ति दूसरे को देख नहीं
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