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नमोत्थुणं की व्याख्या
योगशास्त्र तृतीय प्रकाश श्लोक १२३ हैं-तित्थयराणं तीर्थ की स्थापना करने वाले। जिससे संसार समुद्र तरा जाये, वह तीर्थ कहलाता है। शासन के आधारभूत साधु-साध्वी-श्रावक-श्राविका रूप चतुर्विधसंघ अथवा प्रथम गणधर तीर्थस्वरूप है। भगवान् महावीर से पूछा गया-भगवन्! तीर्थ किसे कहें? भगवान् ने कहा-हे तीर्थ रूप गौतम! तीर्थकर तीर्थ है, इस नियम से अरिहंत तीर्थ है, चतुर्विध श्रीसंघ और प्रथम गणधर तीर्थ है। (भगवती २०/८) तीर्थ की स्थापना या रचना करने वाले तीर्थकर कहलाते हैं। संपूर्ण कर्मों का क्षय होने पर ही केवलज्ञान है, ऐसा नहीं बल्कि चार घातिकर्मों का संपूर्ण क्षय होते ही केवलज्ञान हो जाता है। केवली में चार अघातिकर्म शेष रहते हैं, वे उसके केवलज्ञान में बाधक नहीं होते। और केवलज्ञान तो ज्ञानावरणीय आदि ४ घातिकर्मों के क्षय होने से प्रकट होता है। अर्हत केवलज्ञानी ही तीर्थ की स्थापना कर सकते हैं। मुक्त केवलियों अथवा एक साथ आठों कर्मों को क्षय करके मक्ति प्रास करने वालों में तीर्थकरत्व नहीं हो सकता। इसलिए कहा-तीर्थ की स्थापना करने वाले तीर्थकर को नमस्कार हो। कई लोग कहते हैं-इन तीर्थंकरों को | भी सदाशिव की कृपा से बोध-ज्ञान होता है, इस विषय में उनके ग्रंथ का प्रमाण है-महेशानुग्रहात् बोध-नियमाविति अर्थात् महेश की कृपा से बोध-ज्ञान और (शौच संतोष, तप, स्वाध्याय, ध्यान) होते हैं। परंतु उनका यह कथन यथार्थ नहीं है, इसलिए कहा-सयंसंबुद्धाणं अर्थात् वे दूसरे के उपदेश बिना भव्यत्वादि सामग्री के परिपक्व हो जाने से स्वयं (अपने आप) ही संबुद्ध होते हैं-यथार्थ तत्त्व स्वरूप को जानते हैं। अतः स्वयं बोध प्राप्त किया है, उन्हें नमस्कार हो। यद्यपि दूसरे पूर्वभवों में बाकायादा गुरु-महाराज के उपदेश से वे बोध प्राप्त करते हैं, फिर भी तीर्थकर-भव में तो वे दसरों के उपदेश से निरपेक्ष ही होते हैं। वे स्वयं ही बोध-प्राप्त करते हैं। यद्यपि तीर्थकर के भव में लोकान्तिक देव 'भयवं तित्थं पवत्तेह' भगवन्! आप तीर्थ (स्थापन) में प्रवृत्त हों; ऐसे वचन से भगवान् दीक्षा अंगीकार करते हैं। तथापि जैसे कालज्ञापक-वैतालिक के वचन से राजा प्रवृत्ति या प्रयाण करता है, वैसे ही देवों की विनति से तीर्थकर स्वतः दीक्षा अंगीकार करते हैं; उनके उपदेश से नहीं। स्तोतव्य की सामान्य संपदा बताकर, अब विशेष संपदा बताते हैं___ 'पुरिसुत्तमाणं, पुरिससीहाणं, पुरिसवरपुंडरीयाणं पुरिसवरगंधहत्थीणं'-तात्पर्य यह है, पुरि यानी शरीर में शयन करता है, अतः इसे पुरुष कहते हैं। विशिष्ट पुण्यकर्म के उदय से उत्तम आकृति वाले शरीर में निवास करने वाले, उनमें भी उत्तम जीव होने से स्वाभाविक तथा भव्यत्वादि भावों में श्रेष्ठ होने से 'पुरुषोत्तम' कहलाते हैं। वे पुरुषोत्तम इस प्रकार से हैं-अपने संसार के अंत तक परोपकार करने के आदी होते हैं, अपने सांसारिक सुखों का स्वार्थ उनके लिए गौण होता है, सर्वत्र उचित क्रिया करते हैं, किसी भी समय में दीनता नहीं लाते; जिसमें सफलता मिले, उसी कार्य को आरंभ करते हैं, दृढ़ता से विचार करते हैं; वे कृतज्ञता के स्वामी, क्लेश रहित चित्त वाले होते हैं। देव-गुरु के प्रति अत्यंत आदर रखते हैं। उनका आशय गंभीर होता है। खान से निकला हुआ मलिन और अनघड़ श्रेष्ठ जाति का रत्न भी काच से उत्तम होता है। किन्तु जब उसे शान पर चढ़ाकर घड़ दिया जाता है तो वह और भी स्वच्छ हो जाता है, तब तो काच से उसकी तुलना ही नहीं हो सकती। वैसे ही अरिहंत परमात्मा के साथ किसी की तुलना नहीं हो सकती। वे सभी से बढ़कर उत्तम होते हैं। ऐसा कहकर बौद्ध जो मानते हैं कि नास्ति इह कश्चिदभाजनं सत्त्वः अर्थात् इस संसार में कोई भी प्राणी अपात्र नहीं है। जीव मात्र सर्वगुणों का भाजन होता है। इसलिए सभी जीव बुद्ध हो सकते हैं; इस बात का खंडन किया गया है। क्योंकि सभी जीव कदापि अरिहंत नहीं हो सकते; भव्य जीव ही अरिहंत हो सकते हैं। बाह्य अर्थ की सत्ता को सत्य मानने वाले व उपमा को असत्य मानने वाले संस्कृताचार्य के शिष्य यों कहते हैं कि 'जो स्तुत्य है, उन्हें किसी प्रकार की उपमा नहीं दी जा सकती, क्योंकि हीनाधिकाभ्यामुपमा मृषा यानी स्तुत्य को हीन या अधिक से उपमा देना, असत्य है। इस मत का खंडन करने के लिए कहा है-पुरिससीहाणं पुरुषों में सिंह समान कहा है। जैसे सिंह, शौर्य, क्रूरता, वीरता, धैर्य आदि गुण वाला होता है, वैसे अरिहंत भगवान् भी कर्म रूपी शत्रुओं के निवारण के लिए शूर, कर्मों का उच्छेदन करने में क्रूर, पराजित करने वाले क्रोध आदि को सहन नहीं करने वाले, रागादि से पराभूत न होने वाले महापराक्रमी, वीर्यवान और तपश्चरण में वीरता के लिए प्रभु प्रसिद्ध हैं ही तथा वे परिषहों की अवज्ञा करते हैं, उपसर्गों से डरते नहीं, इंद्रियों के पोषण की चिंता नहीं करते, संयममार्ग पर चलने में उन्हे खेद नहीं होता, वे सदा शुभध्यान में निश्चल रहते हैं। अतः इन गुणों के कारण अरिहंत भगवान् पुरुषों में सिंह
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