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नमोत्थुणं (शक्रस्तव) पर व्याख्या
योगशास्त्र तृतीय प्रकाश श्लोक १२३ के जीवों को भी सुख उत्पन्न होता है, तथा गाढ़ अंधकाराच्छन्न नरक में भी प्रकाश हो जाता है। भगवान् के गर्भ में आने पर कुल में धन, समृद्धि आदि की वृद्धि होती है; नहीं झुकने वाले सामंत राजा भी झुकने लगते हैं। तथा दुर्भिक्ष महामारी आदि उपद्रव दूर होकर वैररहित राज्य-पालन होता है, एवं जनपद देश अतिवृष्टि अनावृष्टि आदि उपद्रवों से रहित होता है। उनके प्रभाव से आसन चलायमान होने से देव, असुर आदि उनके चरण-कमलों में नमस्कार करते हैं। इस तरह वे प्रभाव अतिशय वाले होते हैं। ३. यश - रागद्वेष, परिषह, उपसर्ग आदि को पराक्रम से जीतने से भगवान् को यश मिलता है, उनकी प्रतिष्ठा सर्वदा स्थायी होती है। जिस यश के देवलोक में सुर-सुंदरी और पाताल में नागकन्या गीत गाती है। उस यश की प्रशंसा नित्य देव और असुर करते हैं। ४. वैराग्य - अहँत भगवान् को देव
और राजा की ऋद्धि का उपभोग करते हुए भी उस पर जरा भी राग नहीं होता। जब दीक्षा अंगीकार करते हैं, तब समस्त भोगों और ऋद्धि-समृद्धि का त्याग करते हैं। फिर उस ऋद्धि से उन्हें क्या लाभ? जब कर्म क्षीण हो जाते हैं, तब सुखदुःख में, संसार और मोक्ष पर उनका उदासीनभाव होता है। इस तरह तीनों अवस्थाओं में प्रभु वै | यह बात हमने वीतरागस्तोत्र में भी कही है-हे नाथ! जब आप देव और नरेन्द्र की ऋद्धि भोगते जरा भी आनंद नहीं आता। उस समय भी आपकी रति विरक्तता में रहती है। कामभोग से विरक्त होने से आप में प्रचुर वैराग्य होता है तथा सुख-दुःख में या संसार-मोक्ष में समानभाव से आप औदासीन्य रखते हैं, उस समय भी तो आप वैराग्ययुक्त रहते हैं आप कौन-सी अवस्था में विरक्त नहीं हैं? आप तो सभी अवस्था में वैरागी रहते हैं। ५. मक्ति - समग्र क्लेशनाश रूप मुक्ति तो आपके सदा नजदीक रहती है। ६. रूप - तो आपका अतीव उत्तम है ही। कहा है किसभी देवताओं का सारभूत रूप ग्रहण करके उस रूप को सिर्फ अंगूठे में एकत्र करे; और उसकी तुलना प्रभु के चरण के अंगूठे से करे तो, देवों का रूप ऐसा दिखता है; मानो दहकते हुए अंगारे में कोयले हों। अतः भगवान का रूप | सर्वाधिक श्रेष्ठ है। ७. वीर्य - मेरुपर्वत को दंड और पृथ्वी को छत्र रूप बनाने का सामर्थ्य भगवान् में होता है। सुनते हैं-जन्म को अभी कुछ ही देर हुई थी कि श्री महावीरप्रभु ने इंद्र की आशंका को दूर करने के लिए बांये पैर के अंगूठे
को हिला दिया था। इतने वीर्यवान (शक्तिशाली) पराक्रमी भगवान होते हैं। ८. प्रयत्न- परमवीर्य से उत्पन्न
रूप प्रयत्न, जो एक रात्रि आदि की महाप्रतिमाओं व अभिग्रह के अध्यवसाय में हेतभत उन कर्मों को एक साथ नाश करने के लिए प्रयत्न कितना विराट था! तथा मन, वचन और काया का योग-निरोध और उसके योग में प्रकट किया हुआ उत्कृष्ट आत्मवीर्य, मेरुपर्वत के समान अडोल अवस्था; तथा शैलेशीकरण की अभिव्यक्ति रूप उत्कृष्ट आत्मवीर्य से हुआ प्रत्यन ९. इच्छा - जन्मांतर में देवभव में और तीर्थंकरभव में दुःख रूपी कीचड़ से लिप्त जगत को बाहर निकालने की तीव्र इच्छा होती है। १०. श्री - घातीकर्मों का नाश करके पराक्रम से प्राप्त की हुई संपूर्ण केवलज्ञान रूपी लक्ष्मी से आप परिपूर्ण होते हैं। यह सुखसंपदा भी अनुपम है। ११. धर्म - आप में अनाश्रव रूप महायोगात्मक धर्म है। समग्र कर्मों की निर्जरा रूप धर्माचरण तो और भी उत्तम है। १२. ऐश्वर्य - प्रभु के प्रति अतिभक्ति से इंद्र आदि देवों के द्वारा बनाया हुआ समवसरण तथा अष्ट-प्रातिहार्यादि रूप ऐश्वर्य तीर्थकर भगवान् के होते हैं। इस प्रकार बुद्धिमान लोगों द्वारा कही हुई ज्ञानादि बारह भेद से युक्त स्तुति करने योग्य होती है। इस तरह दो आलापक (पद) से 'नमुत्थुणं' सूत्र की प्रथम स्तोतव्य-संपदा जानना। यानी स्तुत्य कौन, क्यों और कैसे है? इस पर काफी कह दिया है। अब दूसरी हेतु-संपदा का वर्णन करते हैं
___ आइगराणं तित्थयराणं सयंसंबुद्धाणं। आइगराणं का अर्थ है-आदि करने वाले अर्थात् सब प्रकार की नीति और | श्रुतधर्म का प्रथम उपदेश देने वाले हैं। इस सामर्थ्य से श्रुतधर्म उनके पास से जाना जाता है। यद्यपि यह द्वादशांगी न कभी थी, न कभी होती है और न कभी होगी ऐसा है नहीं और द्वादशांगी थी, है और होगी इससे इसे शाश्वती कही है। फिर भी अर्थ की अपेक्षा से इसे नित्य कहा है, शब्द की अपेक्षा से अपने-अपने तीर्थकरों के शासन में द्वादशांगी की रचना होने से 'श्रुतधर्म की आदि करने वाले ऐसा कहने में कोई विरोध नहीं आता है। 'केवलज्ञान होते ही मोक्ष हो जाता है। ऐसा मानने वाले तीर्थंकर को नहीं मानते। वे कहते हैं कि-जब तक सभी कर्मों का क्षय नहीं होता, तब |तक केवलज्ञान नहीं होता। इस वचन से तीर्थंकर के होने का कारण नहीं रहता। अतः इसका खंडन करने हेतु कहते
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