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कायोत्सर्ग, उसके आगार
योगशास्त्र तृतीय प्रकाश श्लोक १२३ की विराधना की हो, हरियक्कमणे-सर्वप्रकार की हरी वनस्पति जो सजीव होती है; की विराधना की हो। तथा 'ओसाउत्तिंग-पणग-दग-मट्टी-मक्कडा-संताणा-संकमणे।' ओस का जल, (यहां ओस का जल इसलिए ग्रहण किया है कि वह बहुत सूक्ष्म बिंदु रूप होता है। उस सूक्ष्म अप्काय की भी विराधना नहीं होनी चाहिए) 'उत्तिंग' अर्थात् गर्दभाकार जीव, जो जमीन में छिद्र बनाकर रहते हैं अथवा कीडियों का नगर, पणग अर्थात् पांच रंग की काई (लीलण-पुलणसेवाल)। दगमट्टी अर्थात् जहां लोगों का आना-जाना नहीं हुआ हो उस स्थान का कीचड़ अथवा दग शब्द से सचित्त अप्काय का ग्रहण करना और मट्टी शब्द से पृथ्वीकाय ग्रहण करना। मक्कडा अर्थात् मकड़ी का समूह और संताण अर्थात् उसका जाल संकमणे अर्थात् उस पर आक्रमणविराधना की हो। इस प्रकार नामानुसार जीवों को कहां तक गिनाएँ? अतः कहते हैं-जे मे जीवा विराहिया अर्थात् जिन किन्हीं जीवों की विराधना करके मैंने उन्हें दुःख दिया हो; वे कौन से जीव? एगिंदिया अर्थात् जिसके स्पर्शेन्द्रिय का ही शरीर हो, वह एकेन्द्रिय जीव है, जैसे पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पतिकाय वाले। बेइंदिया अर्थात् स्पर्श और जीभ हो वह द्वीन्द्रिय जीव है। जैसे केंचुआ शंख आदि। तेइंदिया अर्थात् जिसके स्पर्श, जीभ और नासिका हो वह त्रीन्द्रिय जीव है; जैसे चींटी, खटमल आदि चउरिदिया अर्थात् जिसके स्पर्श, जीभ, नासिका और आंखें हो वह चतुरिन्द्रिय जीव है; जैसे भौंरा, मक्खी आदि, पंचिंदिया अर्थात् जिनके स्पर्श, जीभ, नासिका, आंख और कान हो वे नारक, तिथंच, मनुष्य और देव पंचेन्द्रिय जीव है। जैसे पशु-पक्षी, चूहा आदि तिर्यंचजीवों की विराधना की हो। उस विराधना के दस भेद कहते हैं-अभिहया अर्थात् सम्मुख आते हुए पैर से ठुकराया हो या पैर से उठाकर फेंक दिया हो, वत्तिया अर्थात् एकत्रित करना अथवा ऊपर धूल डालकर ढक देना, लेसिया अर्थात् उन्हें आपस में चिपकाना, जमीन के साथ घसीटना या जमीन में मिला देना, संघाइया अर्थात् परस्पर एक दूसरे पर इकट्ठे करना, एक में दूसरे को फंसा देना; संघट्टिया अर्थात् स्पर्श करना अथवा आपस में टकराना। परियाविया अर्थात् चारों तरफ से पीड़ा दी हो; किलामिया अर्थात् मृत्यु के समान अवस्था की हो। उद्दविया अर्थात् उद्विग्न, भयभ्रांत कर दिया हो; ठाणाओ ठाणं संकामिया अर्थात् अपना स्थान छुड़ाकर दूसरे स्थान पर रखे हो, जीवियाओ ववरोविया अर्थात् जान |से खत्म कर दिया हो, तस्स अर्थात् अभिहया से लेकर दस प्रकार से जीवों को दुःखी किया हो, उस विराधना के पाप से मेरा आत्मा लिस हुआ हो तो उस पाप की शुद्धि के लिए मिच्छा मि दुक्कडं अर्थात् वह मेरा पाप मिथ्या निष्फल हो अथवा नष्ट हो। ___ मिच्छा मि दुक्कडं पद की उसमें गर्भित अर्थों सहित व्याख्या आवश्यक-नियुक्ति कर्ता पूर्वाचार्य प्रत्येक शब्द का | | पृथक्करण करते हुए इस प्रकार करते हैं
मित्ति मिउमद्दवत्थे छत्तिय दोसाण छायणे होई । मिति अमेराए ठिओ दुत्ति दुगुंछामि अप्पाणं ॥१॥ कत्ति कुडं मे पावं डत्ति डेवेमि तं उवसमेणं । एसो मिच्छा-दुक्कड-पयक्खरत्थो समासेणं ॥२॥ अर्थ :- मि-च्छा-मि-दु-क्क-डं -ये छह अक्षर है। उनमें प्रथम 'मि' में गर्भित अर्थ है-मार्दव अथवा नम्रता,
शरीर और भाव से, दूसरा अक्षर 'च्छा' है, जिसका गर्भित अर्थ है-जो दोष लगे हैं, उनका छेदन करने के लिए और पुनः उन दोषों को नहीं करने की इच्छा करना। तीसरा अक्षर 'मि' है, मर्यादा - चारित्र की आचार मर्यादाओं में स्थिर बनकर, चौथा शब्द 'दु' है।उसका गर्भित अर्थ है-दुगुंछा करना, अपनी पापमयी आत्मा की निंदा करना, पांचवां शब्द 'क' अर्थात् अपने कृत पापों की कबूलात के साथ और छट्ठा शब्द 'ड' अर्थात् डयन-उपशमन करता हूं। इस तरह 'मिच्छा मि दुक्कडं' पद के अक्षरों में गर्भित
अर्थ संक्षेप में होता है। इस प्रकार आलोचना एवं प्रतिक्रमण रूप दो प्रकार के प्रायश्चित्त का प्रतिपादन करके, अब कायोत्सर्ग रूप प्रायश्चित्त की इच्छा से निम्नोक्त सूत्रपाठ कहा जाता है।
तस्स उत्तरीकरणेणं पायच्छित्त करणेणं विसोहीकरणेणं विसल्लीकरणेणं पावाणं कम्माणं निग्घायणट्ठाए ठामि काउस्सग्गं।' तस्स अर्थात् जिस इरियावहिय सूत्र से आलोचना-प्रतिक्रमण किया है, उस पाप की फिर से शुद्धि करने के लिए
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