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महाश्रावक की दिनचर्या का वर्णन
योगशास्त्र तृतीय प्रकाश श्लोक १२० से १२१ माना गया है। दीक्षा के समय में श्री तीर्थकर भगवंतों ने भी पात्र-अपात्र की अपेक्षा रखे बिना अभेदभाव से केवल करुणा परायण होकर ही सांवत्सरिक दान दिया था। इस कारण जो सात क्षेत्रों में भक्ति से और दीन-दुःखियों के लिए अतिकरुणा से अपना धन लगाता है, उसे ही महाश्रावक कहना चाहिए। यहां शंका होती है कि ऐसे व्यक्ति को केवल श्रावक न कहकर 'महाश्रावक' क्यों कहा गया? उसके पूर्व 'महा' विशेषण लगाने का क्या प्रयोजन है? इसका समाधान करते हैं कि जो अविरति सम्यग्दृष्टि है, या एकाध अणुव्रत का धारक है अथवा जिनवचन का श्रोता है, उसे व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ से श्रावक कहा जाता है। इसीलिए कहा गया है कि 'जिसे सम्यग्दर्शन प्राप्त हो गया है; जो हमेशा साधु के मुख से उत्तम श्रावकधर्म की समाचारी सुनता है, वह यथार्थ रूप में श्रावक है।' (श्रा. प्र. गा. २) तथा प्रभुकथित पदार्थों पर चिंतन करके जो स्वश्रद्धा को स्थिर करता है। प्रतिदिन सुपात्र रूपी क्षेत्र में धन रूपी बीज बोता रहता) है: उत्तम साधओं की सेवा करके पापकर्म क्षय करता है; उसे आज भी हम अवश्य श्रावक कह सकते हैं। इस निरुक्तव्याख्या से सामान्य श्रावकत्व तो प्रसिद्ध है ही, किन्तु जो श्रावक समग्र व्रतों का निरतिचार पालन करता है; पूर्वोक्त सात क्षेत्रों में अपना धन लगाता है; जैनधर्म की प्रभावना करता है, दीन-दुःखी जीवों पर अत्यंत करुणा करता है, उसे 'महाश्रावक' कहने में कोई दोष नहीं है। सात क्षेत्रों में धन लगाना चाहिए, इसका व्यतिरेक द्वारा समर्थन करते हैं।२९१। यः सद् बाह्यमनित्यं च क्षेत्रेषु न धनं वपेत् । कथं वराकश्चारित्रं दुश्चरं स समाचरेत्? ॥१२०।।
अर्थ :- जो परुष अपने पास होते हए भी बाह्य और अनित्य धन को योग्य क्षेत्रों में नहीं लगाता, (बोता); वह
. बेचारा दुष्कर चारित्र का आराधन कैसे कर सकता है? ।।१२०॥ व्याख्या :- यहां 'सत' शब्द धन का विशेषण क्यों बनाया गया है? इसका उत्तर देते हैं कि सत का अर्थ है विद्यमान। विद्यमान धन का दान देना संभव है; इसलिए सत् शब्द लगाया है। शरीर आभ्यांतर वस्तु है; उसकी अपेक्षा से धन बाह्यवस्तु माना जाता है। आंतरिक वस्तु का त्याग करना अशक्य है; इसलिए बाह्य विशेषण लगाया गया है। बाह्यवस्तु सदा स्थायी टिकने वाली नहीं है। इसलिए 'अनित्य' विशेषण लगाया गया है। धन को चोर, जल, अग्नि, कुटुंबी, राजा आदि हरण कर लेते हैं। इसलिए 'अनित्य' विशेषण लगाया गया है। इसे प्रयत्नपूर्वक रखने पर भी पुण्यक्षय होते ही इसका अवश्य नाश हो जाता है। हमारे गुरुदेव भी कहते हैं-धन को चोर लूट ले जाते हैं, कुटुंबी लोग लड़कर हिस्सा ले जाते हैं, राजा जबरन अथवा कर लगाकर ले जाता है, अग्नि जला डालती है, जलप्रवाहं बहा ले जाता है अथवा व्यसनासक्ति के कारण मनुष्य का धन पीछे के द्वार से चला जाता है। भूमि में गाड़कर भलीभांति सुरक्षित रखा हो, फिर भी व्यंतरदेव हरण कर लेते हैं अथवा मरते समय मानव सब कुछ छोड़कर परलोक चला जाता है। इसलिए अनित्य धन का थोड़ा-सा भी अंश किसी न किसी उत्तम क्षेत्र में लगाना चाहिए। तेल बहुत हो, परंतु उसे पर्वत पर नहीं लगाया जाता; वैसे ही धन बहुत हो तो ऐसे-वैसे को देकर खत्म नहीं किया जाता। इसलिए सात क्षेत्रों में उसे बोना (लगाना) चाहिए। इसलिए कहा है कि 'सात क्षेत्रों मे अपना धन रूपी बीज बोने से सौ, हजार, लाख अथवा करोड़ गुना हो जाता है। पास में सामग्री होते हुए भी जो अपना धन या साधन क्षेत्र में नहीं लगाता; वह बेचारा सत्त्वहीन है। जिस महासत्त्व ने दुश्चरित्र का आचरण किया है, वह कैसे सप्तक्षेत्रों में धनदान कर सकेगा? एकमात्र धन में लब्ध बना हआ सत्त्वशन्य व्यक्ति सर्वसंग-त्याग रूप चारित्र का पालन कैसे कर सकेगा? प्राप्ति रूप कलशारोपण फल वाला श्रावकधर्म रूपी महल है ।।१२०।।
___ अब महाश्रावक की दिनचर्या का वर्णन करते हैं।२९२। ब्राह्म मुहूर्त उत्तिष्ठेत्, परमेष्ठिस्तुतिं पठन् । किं धर्मा किंकुलश्चास्मि, किं व्रतोऽस्मीति च स्मरन् ॥१२१॥ अर्थ :- ब्राह्ममुहूर्त में निद्रा का परित्याग करके महाश्रावक परमेष्ठि-पद की स्तुति करता हुआ उठे। उसके बाद
यह स्मरण करे कि 'मेरा धर्म क्या है? मैंने किस कुल में जन्म लिया है? और मेरे कौन से व्रत हैं?।।१२१।।
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