________________
दिग्विरति एवं भोगोपभोग के अतिचार
योगशास्त्र तृतीय प्रकाश श्लोक ९६ लगता है। इसी प्रकार क्षेत्र या वास्तु की जितने योजन तक की सीमा निश्चित की हो, उसके आगे की जमीन मिलती हो, तो उसे नियम की अवधि तक अमानत के तौर पर अपने नाम से सुरक्षित रखवा देना अतिक्रम है। अथवा योजन का अर्थ जोड़ना भी होता है। इस दृष्टि से कर्जदार से या भेंट रूप में मिलने अथवा पड़ोसी के मकान या खेत को खरीद लेने के कारण मकानों और खेतों की निश्चित की हुई संख्या बढ़ जाने से नियम न टूटे इस अपेक्षा से दो या कई मकानों या खेतों को आपस में मिला देना-बीच में सीमासूचक दीवार, बाड़ या खंभे तोड़कर तुड़वाकर दोनों को संयुक्त करके एक मकान या खेत बना देना; ऐसी समझ से उसकी नियत की हुई संख्या नहीं बढ़ी और व्रत भी सर्वथा भंग नहीं हुआ; फिर भी घर और खेत की कीमत तो बढ़ ही गयी; इस अपेक्षा से भंगाभंगरूप यह चौथा अतिचार है। इसी प्रकार किसी ने सोना या चांदी अमुक प्रमाण (वजन) से अधिक न रखने का चार महीने की अवधि का नियम लिया। इसी दौरान राजा ने खुश होकर सोना या चांदी का इनाम दिया। अब जब उसने देखा कि यदि मैं इस सोने या चांदी को लेकर |घर में रख लेता हं तो अमुक महीने तक के इतनी मात्रा से अधिक चांदी-सोना न रखने का मेरा नियम भंग हो जायेगा;
अतः इस अपेक्षा से उक्त सोने या चांदी को अपने किसी मित्र या परिचित के यहां यह सोचकर रख दे कि 'मेरे नियम की अवधि समाप्त होते ही मैं इसे ले लूंगा।' वास्तव में इस अपेक्षा से दूसरे के यहां रखने पर भी उस पर अपना स्वामित्व होने से व्रतभंग होता है, किन्तु व्रत को सहीसलामत रखने की नीयत होने से व्रतपालन हुआ, इस प्रकार भंगाभंग के रूप में पांचवां अतिचार लगता है, ऐसा समझना चाहिए।
इस तरह पांचों प्रकार के परिग्रह की मर्यादा करने वाले श्रावक को उसका उल्लंघन नहीं करना चाहिए; क्योंकि वैसा करने से व्रत में मलिनता आती है। उपलक्षण से उसके अलावा विचारों की बेसमझी से अथवा अतिक्रमण आदि से भी ये अतिचार लगते हैं ।।९५।।
इस प्रकार पांचों अणुव्रतों के प्रत्येक के पांच-पांच अतिचारों का वर्णन पूरा हुआ।
इसके बाद अब गुणव्रतों के अतिचारों का प्रसंग प्राप्त है। अतः दिक्परिमाण-(दिग्विरति) रूप प्रथम गुणव्रत के अतिचार बताये हैं।२६७। स्मृत्यन्तर्धानमूर्ध्वाधस्तिर्यग्भाग-व्यतिक्रमः । क्षेत्रवृद्धिश्च पञ्चेति, स्मृता दिग्विरति-व्रते ॥९६।। अर्थ :- १. निश्चित की हुई सीमा भूल जाना, २.३.४. ऊपर नीचे और तिरछे (तिर्यक्) दशों दिशाओं में आने
जाने के नियम की मर्यादा का उल्लंघन करना, ये तीन अतिचार और ५. क्षेत्र की वृद्धि करना, इस तरह
प्रथम गुणव्रत के ५ अतिचार हैं ।।१६।। व्याख्या :- पूर्वाचार्यों ने दिग्विरतिव्रत के ५ अतिचार इस प्रकार बताये हैं
१. स्मृतिभ्रंश - प्रथम अतिचार है। वह इस प्रकार है-स्वयं ने गमनागमन की जितनी सीमा जिस दिशा में निश्चित की हो, वहां जाने पर या जाने के समय अतिव्याकुलता या प्रमाद के कारण स्मरण न रहना, स्मृति लुप्त हो जाना या | भूल जाना। मान लो, किसी ने पूर्वदिशा में १०० योजन तक जाने की मर्यादा की हो, लेकिन से वह याद न रहे, अथवा संशय में पड़ जाय कि मैंने ५० योजन तक गमनागमन का परिमाण किया है या १०० योजन तक जाने-आने का किया है? ऐसी शंका होते हुए भी उस दिशा में ५० योजन से आगे जाये तो वहां उसे यह अतिचार लगता है। सौ से अधिक जाने पर तो व्रतभंग हो जाता है। अतिचार और व्रतभंग क्रमशः सापेक्षता और निरपेक्षता की दृष्टि से होते हैं। इसलिए लिये हुए व्रत को याद रखना ही चाहिए; क्योंकि तमाम धर्मानुष्ठान स्मरण पूर्वक होते हैं। यह प्रथम अतिचार हुआ। ऊपर उड़ना या पर्वत या वृक्ष के शिखर पर चढ़ना ऊर्द्धवगमन है; भूमिगृह (तलघर), कुंए आदि में नीचे उतरना अधोदिशा में गमन है। पूर्व आदि दिशाओं में गमन तिर्यग्गमन है। इन तीनों की जिस-जिस दिशा में जितनी मर्यादा की हो, उसका उल्लंघन करने से ये तीनों अतिचार लगते हैं। इसीलिए सूत्र में कहा है-ऊर्ध्वदिशा का अतिक्रम, अधोदिशा का अतिक्रम और तिर्यग्दिशा का अतिक्रम करने से तीनों अतिचार जान लेने चाहिए। अनाभोग (उपयोग न रहने) से या अतिक्रम आदि से ये अतिचार लगते हैं, किन्तु जानबूझ कर अगर मर्यादा का उल्लंघन करने में प्रवृत्त होता है तो सर्वथा व्रतभंग हो जाता है। श्रावक इस व्रत का नियम इस प्रकार लेता है-मैं स्वयं उल्लंघन न
236