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अंगारजीविका, वनजीविका और शकटजीविका का स्वरुप
योगशास्त्र तृतीय प्रकाश श्लोक ९८ से १०१ में कच्चा पानी मिश्रित हो, उसे सहसा पी ले तो यह अतिचार लगता है। अथवा कोई सचित्त खाद्य वस्तु पूरी तरह से अचित्त न हुई हो, उसे सेवन करे तो यह अतिचार लगता है। परंतु अतिचार लगता तभी है, जब श्रावक अनजाने में सहसा, उतावली में या बिना उपयोग के सचित्त को अचित्त मानकर उसका सेवन करता है। व्रतसापेक्ष होने के कारण ही यह अतिचार माना जाता है। चौथा अतिचार है-अभिषवआहार। अभिषव का अर्थ है-अनेक द्रव्यों को एकत्रित करके बनाया हुआ मादक पदार्थ। जैसे मदिरा, सौवीर, ताड़ी, शराब, दारू आदि सब चीजें अभिषव के अंतर्गत है। इसी प्रकार वीर्यविकार की वृद्धि करने वाले पदार्थ जैसे-भांग, तंबाकू, जर्दा, चड़स, गांजा, सुलफा आदि नशैली चीजें भी अभिषव में शुमार है। मांस, रक्त, चर्बी आदि जीवघातनिष्पन्न चीजें भी अभिषव है। इस तरह का अभिषव रूप सावध आहार यदि इरादे-पूर्वक खाता है तो व्रतभंग हो जाता है और यदि बिना उपयोग के सहसा उपर्युक्त पदार्थों को खा या पी लेता है तो वहां अभिषव-आहार नामक चौथा अतिचार लगता है। पांचवां अतिचार दुष्पक्वाहार है। इसका अर्थ है-जो खाद्य पदार्थ अभी तक पूरी तरह पका नहीं है। अथवा जो पदार्थ अधिक पक गया है, उसे खा लेना। कितनी ही चीजें ऐसी है, जिन्हें अपक्व और दुष्पक्व हालत में खाई जाय तो वे शरीर को नुकसान पहुंचाती है, कई बार उनके खाने से शरीर में कई रोग पैदा हो जाते हैं; जितने अंश में वह सचित्त हो, उतने अंश में खाने पर परलोक को भी |बिगाड़ता है। जैसे जौ चावल, गेहूं आदि अनाज बिना पके हुए या आधे पके हुए खाने से स्वास्थ्य बिगड़ता है। अर्धपक्व या अतिपक्व अचेतनबुद्धि से खाता है, तो पांचवां दुष्पक्वाहार नामक अतिचार लगता है। कई आचार्य अपक्वाहार को अतिचार मानते हैं; परंतु अपक्व का अर्थ अग्नि में न पका हुआ, होने से सचित्ताहार के अंतर्गत उसका समावेश हो जाता है। कितने ही आचार्य तुच्छौषधिभक्षण नामक अतिचार मानते हैं। तुच्छ औषधियाँ (वनस्पतियां) वे हैं-जिनमें
खाने का भाग बहुत ही कम होता है, फैंकने का भाग ज्यादा होता है। जैसे-सजना, सीताफल आदि वनस्पतियाँ। किन्तु | यदि वे सचित्त हों तो उनका समावेश प्रथम अतिचार में हो जाता है और यदि वे अग्नि आदि से पककर अचित्त हो गयी हो तो उनके सेवन में क्या दोष है? अर्थात् इसमें दोष नहीं होता। इसी प्रकार जिसने रात्रिभोजन या मदिरापान, मांसाहार आदि अभक्ष्य पदार्थों का त्याग किया हो, वह अजाने में, सहसा या भूल से खा लेता है तो अतिचार लगता है। इस तरह उपभोग-परिभोगपरिमाण व्रत के ये पांचों अतिचार समझने चाहिए।।९७।।
सातवें व्रत के भोजनतः होने वाले अतिचारों के वर्णन के बाद अब उसके दूसरे विभाग के कर्मतः होने वाले अतिचारों का वर्णन करते हैं।२६९। अमी भोजनतस्त्याज्याः, कर्मतः खरकर्म तु । तस्मिन् पञ्चदशमलान्, कर्मादानानि सन्त्यजेत्।।९८।। अर्थ :- उपर्युक्त पांच अतिचार भोजन की अपेक्षा से त्याज्य है। किन्तु कर्म की अपेक्षा से प्राणिघातक कठोरकर्म
में परिगणित (परिसीमित) १५ कर्मादान हैं, जो व्रत में मलिनता पैदा करने वाले हैं; अतः उनका
भलीभांति त्याग करना चाहिए ।।९८॥ व्याख्या :- उपर्युक्त पांच अतिचार आहार से संबंधित है, जो त्याज्य है। अब भोगोपभोगपरिमाण की दूसरी व्याख्या करते हैं कि भोगोपभोग के साधनों को जुटाने या पैदा करने के लिए जो व्यापार-व्यवसाय किया जाय, उसे भी 'भोगोपभोग' शब्द से व्यवहृत किया जाता है। यहां कारण में कार्य का आरोप किया जाता है; इसलिए उक्त कर्म को लेकर की जाने वाली आजीविका के लिए कोतवाल, गुप्तचर, सिपाही, कारागाररक्षक आदि कठोर दंड देते हैं। जिससे व्यक्ति को पीड़ा होती है, ऐसी खर (कठोर) जीविकाएँ १५ है; जिन्हें पंद्रह कर्मादान कहा जाता है। ये ही भोगोपभोगपरिमाणवत | के द्वितीय विभाग के त्याज्य १५ अतिचार हैं। ये कर्म पापकर्म-प्रकृति के कारणभूत होते हैं, इसलिए इन्हें कर्मादान कहा गया है।।९८॥
नीचे दो श्लोकों में उनके नामोल्लेख करते हैं।।२७०। अङ्गार-वन-शकट-भाटक-स्फोटजीविका, दन्त-लाक्षा-रस-केश-विषवाणिज्यकानि च ॥१९॥ ) २७१। यन्त्रपीडा-निर्लाञ्छनमसतीपोषणं तथा, दवदानं सरःशोष, इति पञ्चदश त्यजेत् ॥१००।।
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