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जिन मंदिर में धन व्यय
योगशास्त्र तृतीय प्रकाश श्लोक ११९ या अतुष्ट चिंतामणि रत्न आदि से भी फल प्राप्त होता है। श्री वीतराग-स्तोत्र १९/३ में कहा है-जो प्रसन्न नहीं होता, उससे फल कैसे प्राप्त हो सकता है? यह कहना असंगत है। क्या जड़ चिंतामणि रत्न आदि फल नहीं देता? अर्थात् देता है। वैसे ही जिनमूर्ति भी फल देती है। तथा पूज्यों का कोई उपकार न होने पर भी पूजक के लिए वे उपकारी होते हैं। जैसे मंत्र आदि का स्मरण करने से उसका तद्रूप फल तथा अग्नि आदि का सेवन करने से गर्मी आदि का फल प्राप्त होता है। इसी तरह जिन-प्रतिमा की सेवापूजा भी लाभ का कारण समझना चाहिए। (श्रा. पू. ३४८) यहां हमने स्वनिर्मित मूर्ति की विधि बतायी है। उसी तरह दूसरे के द्वारा निर्मित बिम्बों की पूजा आदि करनी चाहिए। तथा किसी ने नहीं बनवायी हो, ऐसी शाश्वत-प्रतिमा का भी पूजन-वंदनादि यथाविधि यथायोग्य करनी चाहिए। जिनप्रतिमा तीन प्रकार की होती है-१. स्वयं भक्ति से बनायी हुई जिनप्रतिमा, दूसरों की भक्ति के लिए स्वयं द्वारा मंदिर में स्थापित की हुई। जैसे कि आजकल कई श्रद्धालुभक्त बनवाते हैं। २. मंगलमय चैत्य या गृहद्वार पर मंगल के लिए बिंब या चित्र स्थापित किया जाता है। ३. शाश्वत चैत्य होते हैं, कोई जिन्हें बनवाता नहीं है, परंतु शाश्वतरूप ऊर्ध्वलोक, अधोलोक और तिर्यगलोक में शाश्वत प्रतिमा कई जगह विद्यमान होती है। तीन लोक में ऐसा कोई स्थान नहीं है कि जो जिन-प्रतिमा से पवित्र न बना हो। श्री जिनप्रतिमाओं में वीतरागभाव का आरोपण करके ही उनकी पूजाविधि करनी उचित है।
. २. जिनमंदिर – दूसरा क्षेत्र जिन-भवन है, जहां अपना धन (बोना) लगाना चाहिए। हड्डी, कोयले आदि अमंगल शल्यों से रहित भूमि में स्वाभाविक रूप से प्राप्त पत्थर, लकड़ी आदि पदार्थ ग्रहण करके शास्त्रविधि के अनुसार बढ़ई, | सलावट, मिस्त्री, शिल्पकार आदि को अधिक वेतन देकर षट्जीवनिकाय के जीवों की यतना पूर्वक रक्षा करते हुए जिनमंदिर बनवाना चाहिए। किन्तु उपर्युक्त व्यक्तियों से जबरन, मुफ्त में या धोखा देकर हर्गिज यह काम नहीं करवाना चाहिए। अपने पास धन-संपत्ति अच्छी हो तो भरत राजा आदि की तरह रत्नशिलाजटित, सुवर्णतलमय, मणियों के स्तंभों और सोपानों से सुशोभित, रत्नमय सैकड़ों तोरणों से सुशोभित, विशाल मंडप में पुत्तलिका युक्त स्तंभ इत्यादि उत्तम शिल्पकला से सुशोभित मंदिर बनवाये, जिसमें कपूर, कस्तुरी, अगर आदि प्रज्वलित सुगंधित धूप से उत्पन्न हुआ धुंआ आकाश को छूता हो, उसके कारण बादल की शंका से आनंद पूर्वक नृत्य करते हुए मोर आदि के मधुर शब्द सुने जाते हो और जहां चारों तरफ मांगलिक वाद्यों के निनाद से गगनमंडल गूंज उठता हो, देवदूष्य आदि विविध वस्त्रों का चंद्रोवा बंधा हो और उसमें मोती लगे हों; तथा मोतियों से लटकते गुच्छों से शोभामय हो रहा हो। जहां देवसमूह ऊपर से नीचे आ रहे हों और दर्शन करके वापिस जा रहे हों। वे गीत गाते नृत्य करते, उछलते, सिंहनाद करते हों, ऐसा प्रभाव देखकर देवों द्वारा की हुई अनुमोदना से हर्षित जनसमुदाय जहां उमड़ रहा हो; विविध दृश्य, विचित्र चित्र जहां अनेक लोगों को चित्रलिखित से बना देते हों। चामर, छत्र, ध्वजा आदि अलंकारों से जो अलंकृत हों और जिसके शिखर पर महाध्वजा फहरा रही हो। अनेक धुंघरूओं वाली छोटी-छोटी पताकाएँ फहराने से उत्पन्न शब्दों से दिशाएँ शब्दायमान हो रही हों। ऐसे कौतुक से आकर्षित देवों, असुरों और अप्सराओं का झुंड प्रतिस्पर्धा पूर्वक जहां संगीत गाता हो; गायकों के मधुर गीतों की ध्वनि ने जहां देव-गांधर्वो के तुंबरु की आवाज को भी मातकर दी हो और वहां कुलांगनाएँ निरंतर | एकत्रित होकर ताल और लय पूर्वक रासलीला आदि नृत्य करती हों, अभिनय व हावभाव करती हों, जिन्हें देखकर भव्य लोग चमत्कृत होते हों। अभिनययुक्त नाटकों को देखने की इच्छा से आकर्षित करोड़ों रसिकजन जहां एकत्रित होते हैं। ऐसा जिनमंदिर उच्च पर्वत के शिखर पर अथवा श्रीजिनेश्वरों का जन्म, दीक्षा, केवलज्ञान और निर्वाण हुआ हो, ऐसी कल्याणभूमि में बनवाना चाहिए अथवा महाराजा सम्प्रति के समान प्रत्येक गांव, नगर एवं मोहोल्ले में उत्तम स्थान पर बनवाना चाहिए, यह महाश्रीमान श्रावक का कर्तव्य है।
परंत जिसके पास इतना वैभव नहीं हो. उसे आखिरकार तणकटीर के समान भी जिन-मंदिर बनवाना चाहिए। कहा भी है-जो जिनेश्वर भगवान् का केवल घास की कुटिया सरीखा भी जिनमंदिर बनवाता है, तथा भक्तिपूर्वक केवल एक फूल चढ़ाता है, उसको भी इतना पुण्य प्राप्त होता है जिसका कोई नापतौल नहीं किया जा सकता, तब फिर जो व्यक्ति मजबूत पाषाणशिलाओं से रचित बड़ा मंदिर तैयार कराता है, वह शुभभावनाशील पुरुष वास्तव में
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