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अतिथि संविभाग के पांच अतिचार
योगशास्त्र तृतीय प्रकाश श्लोक ११७ से ११८ | समझ लेना चाहिए। यहां पूर्वाचार्य कहते हैं कि जिस तरह दिग्व्रत में पांचों अणुव्रतों का संक्षेपीकरण होता है, उसी | तरह देशावकाशिक व्रत में भी पांचों अणुव्रतों तथा गुणव्रतों आदि का संक्षेपीकरण होता है; इस पर एक प्रश्न उठता है कि दिग्व्रत में तथा इसमें अतिचार केवल दिशासंबंधी ही सुना जाता है, दूसरे व्रतों के संक्षेपीकरण संबंधी अतिचार नहीं सुना जाता; तो फिर सर्वव्रतों का संक्षेपरूप देशावकाशिक व्रत है; ऐसा वृद्धमुनियों ने किस तरह माना है? इसका समाधान करते हैं कि यह व्रत प्राणातिपात आदि दूसरे व्रतों का संक्षेप-रूप व्रत है। इस व्रत में भी वध, बंधन आदि अतिचार जानने चाहिए। तात्पर्य यह है कि दिव्रत को संक्षेप करने का अभिप्राय क्षेत्र की मर्यादा को संक्षिप्त करने से है; प्रेषण | आनयन आदि अलग अतिचार संभव होते हैं। इसलिए दिग्व्रत - संक्षेप को ही देशावकाशिक व्रत कहा है ।। ११६ ।। अब पौषव्रत के अतिचार कहते हैं
।२८८। उत्सर्गादानसंस्ताराननवेक्ष्याप्रमृज्य च । अनादरः स्मृत्यनुपस्थापनं चेति पोषधे ॥११७॥
अर्थ :
पौषधव्रत में देखे या प्रमार्जन किये बिना परठना, उसी तरह अयतना से वस्तु ग्रहण करना या रखना, अतना से आसन बिछाना, पौषध का अनादर करना या स्मरण नहीं रखना; ये पौषधव्रत के पांच अतिचार है ।। ११७ ।।
व्याख्या :
पौषध में लघुनीति, बड़ीनीति, थूक, कफ आदि जिस स्थान पर परठना हो, वह स्थान आंखों से | अच्छी तरह देख-भाल कर वस्त्र के अंचल से पूंजनी से प्रमार्जन ( पूंज) करके बाद में यतना पूर्वक परिष्ठापन करे । | अर्थात् विवेक से शरीर के उक्त विकृत पुद्गलों को छोड़े। ऐसा नहीं करने से पौषधव्रत का प्रथम अतिचार लगता है। आदान का अर्थ है ग्रहण करना । लकड़ी, पट्टा, तख्त आदि उपयोगी वस्तु को बिना देखे, प्रमार्जन किये वगैर लेने| रखने से दूसरा अतिचार लगता है। तथा दर्भ, कुश, कंबल, वस्त्रादि संथारा (बिछौना) करे, तब देखे या पूंजे बिना बिछाये, तो अप्रत्युप्रेक्षण और अप्रमार्जन नाम का तीसरा अतिचार लगता है । यह अतिचार देखे बिना लापरवाही से, शीघ्रता से, उपयोगशून्यतापूर्वक देखने पूंजने से, जैसे-तैसे प्रमार्जन - प्रतिलेखन करने से लगता है । प्रमार्जन और | अवेक्षण शब्द के पूर्व निषेधार्थ सूचक 'नञ्' समास का अकार पड़ा है। वह कुत्सा के अर्थ में होने से जैसे कुत्सित ब्राह्मण को अब्राह्मण कहा जाता है, वैसे ही यहां समझ लेना चाहिए। मूल आगम श्री उपासकदशांगसूत्र में यही बात कही है | कि अप्रतिलिखित- दुष्प्रतिलिखित- शय्या-संथारा, अप्रमार्जित - दुष्प्रमार्जित - शय्या - संथारा; अप्रतिलिखित- दुष्प्रतिलिखित| स्थंडिल ( मलमूत्र - परिष्ठापन) - भूमि, अप्रमार्जित - दुष्प्रमार्जितस्थंडिल (मलमूत्र डालने की ) - भूमि; यह तीसरा अतिचार है। पौषधव्रत लेने में और उसकी क्रिया या अनुष्ठान के प्रति अनादरभाव रखना अर्थात् उत्साह रहित विधि से पौषध करना, किसी तरह से पौषधविधि पूर्ण करना; यह 'अनादर' नाम का चौथा अतिचार है। तथा पौषध स्वीकार करके उसे भूल ही जाना, अमुक विधि की या नहीं की? इसकी स्मृति न रहना- अस्मृति नाम का पांचवा अतिचार है। ये अतिचार उसे लगते हैं, जिसने सर्वपौषध लिया हो। जिसने देश से (आंशिक) पौषध किया हो, उसे ये अतिचार नहीं लगते हैं ।। ११७ ।।
अब अतिथि- संविभाग- व्रत के अतिचार कहते हैं
।२८९। सचित्ते क्षेपणं तेन, पिधानं काललङ्घनम् । मत्सरोऽन्यापदेशश्च तुर्यशिक्षाव्रते स्मृताः ॥११८॥
अर्थ :- साधु को देने योग्य वस्तु पर सचित्त वस्तु रख देना, सचित्त से ढक देना; दान देने के समय का उल्लंघन करना, (समय टाल देना) मत्सर रखना, अपनी वस्तु को पराई कहना, चौथे शिक्षाव्रत के ये पांच अतिचार है ।। ११८ ।।
व्याख्या : - साधु को देने योग्य वस्तु पर सचित्त-सजीव पृथ्वीकाय, पानी का बर्तन, जलते चूल्हे के अंगारे या | अनाज आदि वस्तुएँ उन्हें न देने की बुद्धि से स्थापन करना । ओछी बुद्धि वाला ऐसा समझता है कि सचित्त के साथ रखी हुई कोई भी वस्तु साधु नहीं लेते; ऐसा जानकर तुच्छबुद्धि वाला श्रावक देने योग्य वस्तु को सचित्त पर रखे, या | जमा दे। साधु नहीं ग्रहण कर सके; ऐसा विचार करे, तब यह मुझे लाभ हुआ यह प्रथम अतिचार है। तथा ऊपर कहे अनुसार साधुसाध्वियों को न देने की इच्छा से देने योग्य वस्तु सुरण, कंद, पत्ते, फूल, फल आदि सजीव पदार्थ ढक
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