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पौषधव्रत के पांच अतिचार
योगशास्त्र तृतीय प्रकाश श्लोक ११६ में उसी प्रकार जान लेना चाहिए; क्योंकि गुप्ति-भंग होने पर भी साधुओं को सिर्फ 'मिथ्या दुष्कृत' का उच्चारण रूप दूसरा प्रायश्चित्त कहा है। सामायिक का अतिचार-सहित अनुष्ठान (क्रिया) भी अभ्यास करते-करते चिरकाल में जाकर शुद्ध बन जाता है। दूसरे धर्माचार्यों ने कहा भी है-अभ्यास से ही कार्य-कुशलता आती है, व्यक्ति आगे बढ़ता जाता है। केवल एक बार जल-बिन्दु गिरने से पत्थर में गड्ढा नहीं पड़ता, बार-बार यह क्रिया होने पर होता है। इसलिए अविधि से करने की अपेक्षा नहीं करना अच्छा है; यह कहना युक्ति संगत नहीं है। इस प्रकार का वचन उपेक्षासूचक उद्गार है और धर्मक्रिया के प्रति अरूचि का परिचायक है। शास्त्रज्ञों का कहना है कि अविधि से करने की अपेक्षा नहीं करना बेहतर है; यह कथन ईर्ष्यावश कहा गया है; क्योंकि अनुष्ठान नहीं करने वाले को बड़ा प्रायश्चित्त आता है, जब कि अविधि से करने वाले को लघु-प्रायश्चित्त आता है। क्योंकि धर्मक्रिया न करना तो प्रभु की आज्ञा का भंग रूप | महादोष है और क्रिया करने वाले को तो केवल अविधि का दोष लगता है ।।११५।।
कई लोग कहते हैं कि पौषधशाला में श्रावक को अकेले ही सामायिक करना चाहिए, बहुतों के साथ नहीं करना चाहिए। 'एगे अबीए' इस शास्त्रवचन के प्रमाण से यह कथन एकांत रूप से यथार्थ नहीं समझना चाहिए। क्योंकि इसके विपरीत वचन भी व्यवहार भाष्य में मिलता है। वहां कहा है-राजसुयाई पंचावि पोसहसालाए संमिलिया अर्थात् राजपत्रादि पांचों पौषधशाला में एकत्रित हए। अधिक क्या कहें? ये पांचों अतिचार सामायिकव्रत के कह दिये है। __ अब देशावकाशिकव्रत के पांच अतिचार बताते हैं।२८७। प्रेष्यप्रयोगानयने पुद्गलक्षेपणं तथा । शब्दरूपानुपातौ च व्रते देशावकाशिके ॥११६।। अर्थ :- दूसरे शिक्षाव्रत देशावकाशिक में-१. प्रेष्य-प्रयोग, २. आनयन, ३. पुद्गलक्षेपण, ४. शब्दानुपात और
५. रूपानुपात ये पांच अतिचार लगते हैं ॥११६।। व्याख्या :- दिग्परिमाणवत का विशेष रूप ही देशावकाशिक व्रत है। इसमें इतनी विशेषता है कि दिग्व्रत यावज्जीव (आजीवन) या वर्ष अथवा चौमासे के लिए होता है; और देशावकाशिकव्रत तो दिन, प्रहर, मुहूर्त आदि प्रमाण वाला होता है। इसके पांच अतिचार हैं। वे इस प्रकार है-१. स्वयं नियम किये हुए क्षेत्र के बाहर कार्य करने
की आवश्यकता पड़ने पर स्वयं न जाकर दूसरे को भेजना; स्वयं जाय तो व्रतभंग होता है, इसलिए यह प्रेष्य-प्रयोग |अतिचार कहलाता है। देशावकाशिकव्रत इस अभिप्राय से ग्रहण किया जाता है कि जाने-आने के व्यापार से होने वाली | जीवविराधना न हो। परंतु देशावकाशिकव्रती स्वयं करता है, या दूसरे से करवाता है, उसमें कोई विशेष फर्क नहीं | |पड़ता। बल्कि स्वयं ईर्यासमिति पूर्वक जाये तो विराधना के दोष से भी बच सकता है। दूसरे को समिति का ख्याल नहीं| होने से अजयणा आदि के दोष लग सकते हैं। यह पहला अतिचार है। गमनागमन के लिए निश्चित किये गये स्थान के नियम से बाहर के क्षेत्र से सचेतन द्रव्य दूसरे से मंगवाना, इस बुद्धि से स्वयं जाता है तो व्रतभंग होता है, और दूसरे से मंगवाये तो व्रत-भंग नहीं होता, परंतु अतिचार लगता है। इस प्रकार यह दूसरा अतिचार है। तथा पुद्गल-संपात जहां कंकड़, लकड़ी, सलाई आदि पुद्गलों को इस ढंग से फेंके, जिससे उस स्थूल संकेत को दूसरा समझ जाय और | पास में आने पर वह उसे कार्य कहे, परंतु स्वयं वह कार्य नहीं करे; यह तीसरा अतिचार है। शब्दानुपात का अर्थ है|स्वयं जिस मकान में हो, उसके बाहर नहीं जाने का नियम ले रखा हो; फिर भी बाहर का कार्य आ जाये तब, 'यदि | मैं स्वयं जाऊंगा तो मेरा नियम भंग होगा. यों समझकर स्वयं बाहर नहीं जा सकता. दसरे को ब स्वयं वहां खडा होकर बाहर वाले को बलाने या कोई चीज मंगाने के उद्देश्य से छींकना. या खांस अव्यक्त शब्द करना, जिससे दूसरा नजदीक आये, यह शब्दानुपात नाम का चौथा अतिचार है। इसी कारण से बाहर वाले को अपना रूप बताये, जिससे वह नजदीक आये, यह रूपानुपात नाम का पांचवा अतिचार है। इसका तात्पर्य यह है कि व्रत की मर्यादा के बाहर रहे, किसी मनुष्य को अपने व्रतभंग के भय से बुलाने में असमर्थ हो, तब साधक अपना शब्द, वह सुने इस दृष्टि से प्रकट करे; अथवा रूप दिखाकर उसे बुलाएँ; तो व्रत की सापेक्षता होने से शब्दानुपात और रूपानुपात नाम का चौथा और पांचवा अतिचार जानना। इस व्रत में प्रथम दो अतिचार-प्रेषण और आनयन, वैसी शुद्ध | बुद्धि नहीं होने से सहसा या पूर्वसंस्कार आदि से होते हैं और शेष तीन अतिचार मायावीपन से लगते हैं; यह रहस्य
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