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सामायिकव्रत के अतिचारों का स्पष्टीकरण
योगशास्त्र तृतीय प्रकाश श्लोक ११५ अर्थ :- काया, वचन और मन का दुष्टप्रणिधान, अनादर और स्मृतिभंग होना, ये सामायिकव्रत के पांच
अतिचार हैं ।।११५।। व्याख्या :- काया की पापमय व्यापार में प्रवृत्ति कायदुष्प्रणिधान है। शरीर के विभिन्न अवयवों हाथ, पैर आदि को संकोच कर नहीं रखने, बार-बार इधर-उधर ऊंचा-नीचा करने से कायदुष्प्रणिधान होता है। संस्काररहित निरर्थक या संदिग्ध या समझ में न आये ऐसा अनेकार्थक वचन बोलना या पाप में प्रेरित करने वाले वचन बोलना; वाग्दुष्प्रणिधान है, तथा मन में क्रोध, लोभ, द्रोह, ईर्ष्या, अभिमान आदि करना, सावद्य-पापव्यापार में चित्त को विचलित करना तथा मन में कार्य की आसक्ति से संभ्रम पैदा करना; मनो-दुष्प्रणिधान है। मन, वचन और काया इन तीनों के योग से ये तीनों प्रकार के अतिचार लगते हैं। कहा भी है 'देखे बिना या प्रमार्जन किये बिना, जमीन पर बैठना, खड़ा रहना इत्यादि प्रवृत्ति करने वाले को यद्यपि हिंसा नहीं लगती', परंतु असावधानी से, प्रमाद-सेवन करने से उसका सामायिकव्रत शुद्ध नहीं माना जाता। (श्रावक प्रज्ञप्ति ३१३-१५) सामायिक करने वाले को पहले अपनी विवेकबुद्धि से विचार करके फिर निरवद्यवचन बोलना चाहिए। अन्यथा सामायिकव्रत दूषित हो जायेगा। जो श्रावक-श्राविका सामायिक लेकर घर की चिंता किया करते हैं, उनका मन आर्तध्यान में डूबा होने से, उनका सामायिकव्रत निष्फल व निरर्थक है। अनादर का अर्थ है-जैसे-तैसे सामायिक ले लेना, किन्तु कोई उत्साह या आदर उसके प्रति नहीं रखना। जो सामायिक के लिए अनुकूलता होने पर भी नियमित समय पर सामायिक नहीं करता, बहुत कहने-सुनने पर जब कभी समय मिलता है, तब बेगार की तरह सामायिक का समय पूरा करता है, अथवा प्रबल प्रमादादि दोष से सामायिक करके उसी समय उसे पार लेता है; तो उसे अनादर नामक अतिचार लगता है। कहा भी है-सामायिक उच्चारण करके उसी समय पार ले (पूर्ण करे) अथवा नियमित समय पर न करे; मनमाने ढंग से स्वेच्छा से जब इच्छा हो, तब सामायिक कर ले, इस प्रकार अनवस्थितता अव्यवस्थितता एवं अनादर से सामायिक शुद्ध नहीं होती। (श्रावक प्रज्ञप्ति ३१७) यह चौथा अतिचार है। तथा स्मृत्यनुपस्थापन-सामायिक करने का समय भूल जाना, मैंने सामायिक किया है या नहीं? अथवा करना है या अभी बाकी है? यानी सामायिक जैसे उत्तम धर्मानुष्ठान को प्रबल प्रमादादि कारण से भूल जाय तो
नाम का अतिचार लगता है। क्योंकि धर्मानुष्ठान के स्मरण का उपयोग भूल जाने से मोक्ष-साधक को अतिचार लगता है। कहा है कि 'जो प्रमादी सामायिक कब करना चाहिए? अथवा किया है या नहीं? इत्यादि बात को भूल जाता है, उसने सामायिक की भी हो, तो भी उसकी सामायिक निष्फल समझना चाहिए। (श्रावक प्रज्ञप्ति ३१६) यह पांचवां अतिचार है।
यहां शंका होती है कि 'काय-दुष्प्रणिधान आदि से सामायिक निरर्थक है', ऐसा पहले कहा गया है; वस्तुतः इससे तो सामायिक का ही अभाव है और अतिचार तो व्रत-मलिनता रूप ही होता है। यदि सामायिक ही नहीं है तो उसका अतिचार कैसे कहा जायगा? इसलिए कहना चाहिए, यह सामायिक का अतिचार नहीं है, अपितु सामायिक का ही भंग है! इसका समाधान करते हैं कि-भंग तो जान-बूझ कर होता है, परंतु अज्ञानता या अनुपयोग से होने से अतिचार लगता है। फिर प्रश्न उठता है कि द्विविध त्रिविध से पाप-व्यापार-त्याग रूप सामायिक है, उसमें कायादुष्प्रणिधान आदि से तो उक्त नियम का भंग होता है। इससे सामायिक का अभाव होता है और उसके भंग से होने वाले पाप का प्रायश्चित करना चाहिए और मनोदुष्प्रणिधान में चंचल मन को स्थिर करना अशक्य है, इसलिए सामायिक करने के बजाये नहीं करना अच्छा है। कहा है कि 'अविधि से करने की अपेक्षा नहीं करना श्रेष्ठ है।' इसके उत्तर में कहते हैं तुम्हारी बात यथार्थ नहीं है, क्योंकि सामायिक 'द्विविध त्रिविध' से लिया हुआ होता है; उसमें मन-वचन-काया से पाप व्यापार नहीं करना और नहीं कराना, इस तरह छह कोटि (प्रकार) से पच्चक्खाण होता है। उनमें से एक प्रत्याख्यान भंग होने पर भी शेष तो अखंडित रहता है, अर्थात् सामायिक का पूर्ण रूप से तो भंग नहीं होता है और उस अतिचार का भी 'मिच्छा मि दुक्कडं' देकर उसकी शुद्धि हो सकती है। और मन के परिणाम बिगड़ने पर साधक का इरादा वैसा नहीं होने से 'मिच्छा मि दुक्कडं' देने से वह शुद्ध हो जाता है। इस तरह सामायिक का सर्वथा अभाव नहीं है। सर्व-विरति सामायिक
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