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सामायिकव्रत के अतिचारों का स्पष्टीकरण
___ योगशास्त्र तृतीय प्रकाश श्लोक ११४ से ११५ अतिचार रूप मानना अर्थात् पांच से अधिक भी अतिचार हो सकते हैं। क्योंकि अज्ञानता से कई भूलें हो सकती है। इसलिए प्रत्येक व्रत में यथायोग्य अतिचार समझ लेना चाहिए। यहां शंका होती है, कि अंगारकर्म आदि कर्मादान खरकर्म है. इन्हें अतिचार किस अपेक्षा से कहा? क्योंकि ये सब कर्म खरकर्म और कर्मादान रूप ही हैं। उसका उत्तर देते हैं कि वस्तुतः ये सब खरकर्म रूप ही है, इसलिए इनके त्याग रूप व्रत अंगीकार करने वाले को वह अतिचार लगता है। जो इरादे पूर्वक वैसा कार्य करता है, उसका तो व्रत ही भंग हो जाता है ।।११३।।
अब अनर्थदंड-विरतिव्रत के अतिचार कहते हैं।२८५। संयुक्ताधिकरणत्वमुपभोगातिरिक्तता । मौखर्यमथ कौत्कुच्यं, कन्दर्पोऽनर्थदण्डगाः ॥११४।। अर्थ :- १. हिंसा के साधन या अधिकरण संयुक्त रखना, २. आवश्यकता से अधिक उपभोग के साधन रखना,
३. बिना विचारे बोलना, ४. भांड की तरह चेष्टा करना, ५. कामोत्तेजक शब्दों का प्रयोग करना, ये पांच
अतिचार अनर्थदंडविरति के हैं ।।११४।। व्याख्या :- अनर्थदंड से विरति वाले के लिए ये पांच अतिचार कहे हैं; जो इस प्रकार हैं-जिससे आत्मा दुर्गति का अधिकारी बने, वह अधिकरण कहलाता है। उसमें ऊखल, मूसल, हल, गाड़ी के साथ जुआ, धनुष्य के साथ | बाण, इस प्रकार से अनेक अधिकरण (औजार या उपकरण) संयुक्त रखना या नजदीक रखना प्रथम अतिचार है। श्रावक को ऐसे अधिकरण संयुक्त नहीं रखने चाहिए; अपितु अलग-अलग करके रखने चाहिए। अधिकरण संयुक्त पड़े हों और कोई मांग बैठे तो उसे इन्कार नहीं किया जा सकता, और तितर-बितर पड़े तो अनायास ही इन्कार किया जा सकता है। यह अनर्थदंड का हिंस्रप्रदान रूप प्रथम अतिचार है। तथा पांचों इंद्रियों के विषयों या साधनों के अत्यधिक उपयोग से उपभोग की अत्यधिकता होती है। जो भोग की अत्यधिकता है, वही उपलक्षण से उपभोग की अतिरिक्ततां होती है। यह अतिचार प्रमादपूर्वक आचरण से लगता है। स्नान, पान, भोजन, चंदन, केसर, कस्तूरी वस्त्र, आभूषण आदि वस्तुओं को अपने या कुटुंब की आवश्यकता से अधिक संग्रह करना अथवा अतिमात्रा में इनका इस्तेमाल करना, प्रमाद नामक दूसरा अतिचार बताया है। इस संबंध में आवश्यकचूर्णि आदि में वृद्धपरंपरा इस प्रकार है-जो अधिक मात्रा में | तेल, आंवला, साबुन आदि ग्रहण करता है, तालाब आदि जलाशयों में कूद या घुसकर स्नान करता है; अधिक मात्रा में जल खर्च करता है; उससे जल में पौरे आदि जीव तथा अपकाय की अधिक विराधना होती है। श्रावक को ऐसा करना उचित व कल्पनीय नहीं है। तो फिर श्रावक के लिए क्या विधि है? श्रावक को मुख्यतया अपने घर पर ही स्नान करना चाहिए। ऐसा साधन न हो तो घर पर ही तेल-मालिश करके मस्तक पर आंवले का चूर्ण लगाकर जलाशय पर जाये और तालाब आदि किसी जलाशय पर पहुंचकर उसके किनारे बैठकर किसी बर्तन में पानी लेकर अंजलि भर-भरकर स्नान करे। परंतु जलाशय में घुस कर स्नान न करे। जिन पुष्पों में कुंथुआ आदि त्रसजीवों की संभावना हो, उनका त्याग करे। इसी तरह दूसरे साधनों के बारे में भी समझ लेना चाहिए। यह दूसरा अतिचार हुआ। तथा मूर्खता से बिना सोचेविचारे बोलना, धृष्टता असभ्यता आदि से अंटसंट बोलना और बिना पूछे बकवास करना; पापोपदेश नामक तीसरा अतिचार है। तथा कौत्कुच्य=कुत् का अर्थ है कुत्सित-बुरी तरह से, कुच यानी चेष्टा विदूषिक या भांड के समान नेत्र, होठ, नाक, हाथ, पैर और मूख की चेष्टा करना; अंगों को सिकोड़ने की क्रिया करना; कौत्कुच्य कहलाता है। तात्पर्य यह है कि जिससे दूसरे को हंसी आये, अपनी लघुता प्रकट हो, इस प्रकार के वचन बोलना या ऐसी चेष्टाएँ करना ऐस मुंह बनाना कौत्कुच्य नामक चौथा अतिचार है। तथा कंदर्प अर्थात् विषयवासना पैदा हो इस प्रकार के दि बोलना या कामोत्तेजना पैदा हो, ऐसी विषयवर्द्धक बातें करना, कंदर्प नाम का अतिचार है। इस विषय में श्रावक की ऐसी समाचारी है कि श्रावक को कोई भी ऐसी बात नहीं कहनी या करनी चाहिए, जिससे अपने और दूसरे में मोह या विषयराग उत्पन्न हो; अन्यथा उसे पांचवां कंदर्प नामक अतिचार लगेगा। ये दोनों अतिचार प्रमादाचरण के योग से लगते हैं। इस प्रकार तीनों गुणव्रतों के अतिचार समाप्त हुए। ___अब शिक्षाव्रतों के अतिचारों के निर्देश का अवसर आया है। उनमें प्रथम सामायिक व्रत के अतिचार कहते हैं।२८६। काय-वाङ्-मनसां दुष्टप्रणिधानमनादरः । स्मृत्यनुपस्थापनं च स्मृताः सामायिकव्रते ॥११५।।
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