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जिन मंदिर में धन व्यय
योगशास्त्र तृतीय प्रकाश श्लोक ११९ | दे; यह दूसरा अतिचार है। तथा साधु के भिक्षा के उचित समय बीत जाने के बाद या उसके पहले ही पौषध-व्रत वाला | भोजन करे, वह तीसरा अतिचार है, तथा मत्सर यानी ईर्ष्या व क्रोध करे अथवा साधु द्वारा किसी कल्पनीय वस्तु की | याचना करने पर क्रोध करे; आहार होने पर भी याचना करने पर नहीं दे। किसी सामान्य स्थिति वाले ने साधु को कोई | चीज भिक्षा में दी; उसे देख कर ईर्ष्यावश यह कहते हुए दे कि उसने यह चीज दी है तो मैं उससे कम नहीं हूं। लो, | यह ले जाओ। इस तरह दूसरे के प्रति मत्सर ( ईर्षा) करके दे। यहां दूसरे की उन्नति या वैभव की ईर्ष्या करके देने से | सहज श्रद्धावश दान न होने के कारण अतिचार है । अनेकार्थसंग्रह (३/६२१) में मैंने कहा है-दूसरे की संपत्ति या वैभव | को देखकर उस पर क्रोध करना, मत्सर है। यह चौथा अतिचार हुआ। साधु को आहार देने की इच्छा न हो तो ऐसा | बहाना बनाकर टरका देना कि गुरुवर! यह गुड़ आदि खाद्य पदार्थ तो दूसरे व्यक्ति का है। यह अन्यापदेश अतिचार | कहलाता है । व्यपदेश का अर्थ है - बहाना बनाना । अनेकार्थसंग्रह (४ / ३२३) में अपदेश - शब्द के तीन अर्थ बताये हैं-कारण, बहाना और लक्ष्य। यहां बहाने अर्थ में उपदेश शब्द गृहीत है। यह पांचवां अतिचार हुआ। ये पांचों अतिचार अतिथिसंविभागव्रत के कहे हैं ।। ११८ ।।
अतिचार की भावना इस तरह समझ लेनी चाहिए । भूल आदि से पूर्वोक्त दोषों का सेवन हुआ तो अतिचार | जानना, अन्यथा व्रतभंग समझना । इस तरह सम्यक्त्वमूलक बारह व्रतों पर विवेचन किया और उसके बाद उनके | अतिचारों का भी वर्णन कर दिया। अब उपर्युक्त व्रत की विशेषता बताते हुए श्रावक के महाश्रावकत्व का वर्णन प्रस्तुत करते हैं
। २९०। एवं व्रतस्थितो भक्त्या, सप्तक्षेत्र्यां धनं वपन् । दयया चातिदीनेषु, महाश्रावक उच्यते ॥ ११९॥ इस तरह बारह व्रतों में स्थिर होकर सात क्षेत्रों में भक्तिपूर्वक तथा अतिदीनजनों में दया पूर्वकं अपने धन रूपी बीज बोने वाला महाश्रावक कहलाता है ।। ११९।।
अर्थ :
व्याख्या : - इस प्रकार पहले कहे अनुसार सम्यक्त्वमूलक अतिचार रहित विशुद्ध बारह व्रतों में दत्तचित्त श्रावक,
| जिन - प्रतिमा जिनमंदिर, जिन-आगम, साधु, साध्वी, श्रावक और श्राविका रूप सात क्षेत्रों में न्याय से उपार्जन किया हुआ धन लगाएँ । श्लोक में कहा है कि श्रावक को इन सात क्षेत्रों में धन रूपी बीज बोना चाहिए। इसमें 'वपन' शब्द का प्रयोग करके यह सूचित किया है कि वपन उत्तमक्षेत्र में करना ही उचित है। अयोग्यक्षेत्र में वपन नहीं करना चाहिए। | इसलिए सप्तक्षेत्र्यां (सात क्षेत्रों में) कहा है तात्पर्य यह है कि अपने द्रव्य को योग्यतम पात्र रूपी सात क्षेत्रों में भक्तिपूर्वक यथायोग्य खर्च करना चाहिए।
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में
१. जिनप्रतिमा · विशिष्ट लक्षणों से युक्त, देखते ही आल्हाद प्राप्त हो, ऐसी वज्ररत्न, इंद्रनीलरत्न, अंजनरत्न, | चंद्रकांतमणि, सूर्यकांतमणि, रिष्टरत्न, कर्केतनरत्न, प्रवालमणि, स्वर्ण, चांदी, चंदन, उत्तम पाषाण, उत्तम मिट्टी आदि सार द्रव्यों से श्री जिनप्रतिमा बनानी चाहिए । इसीलिए कहा है- जो उत्तम मिट्टी, स्वच्छ पाषाण, चांदी, लकड़ी, सुवर्ण, रत्न, मणि, चंदन इत्यादि से अपनी हैसियत के अनुसार श्रीजिनेश्वरदेव की सुंदर प्रतिमा बनवाता है, वह मनुष्यत्व | और देवत्व में महान सुख को प्राप्त करता है। (संबोध प्र. १ / ३२२) तथा आल्हादकारी, सर्वलक्षणों से युक्त, समग्र | अलंकारों से विभूषित श्रीजिनप्रतिमा के दर्शन करते ही मन में अतीव आनंद प्राप्त होता है इससे निर्जरा भी अधिक होती है । इस तरह शास्त्रोक्त विधि से बनायी हुई प्रतिमा की विधिपूर्वक प्रतिष्ठा करे, अष्टप्रकारी पूजा करे, संघयात्रा का | महोत्सव करके विशिष्ट प्रकार के आभूषणों से विभूषित करे, विविध वस्त्र अर्पण करे; इस तरह जिनप्रतिमा में धन रूपी | बीज बोये अर्थात् धन खर्च करे । अतः कहा है- अतिसौरभपूर्ण सुगंधितचूर्ण, पुष्प, अक्षत, धूप, ताजे घी के दीपक आदि, विभिन्न प्रकार का नैवेद्य, स्वतः पके हुए फल और जलपूर्ण कलशादि पात्र श्रीजिनेश्वरदेव के आगे चढ़ाकर अष्टप्रकारी पूजा करने वाला गृहस्थ श्रावक भी कुछ ही समय में मोक्ष का सा महासुख प्राप्त करता है।
यहां प्रश्न करते हैं कि जिन-प्रतिमा राग-द्वेष-रहित होती है, उसकी पूजा करने से जिन भगवान् को कुछ भी लाभ | नहीं है। कोई उनकी कितनी भी अच्छी तरह पूजा करे, फिर भी वे न तो खुश होते हैं, न ही तृप्त होते हैं। अतृप्त या | अतुष्ट देवता से कुछ भी फल नहीं मिल सकता। इसका युक्तिपूर्वक उत्तर देते हैं कि यह बात यथार्थ नहीं है । अतृप्त
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