________________
भोगोपभोगपरिमाण नामक दूसरे गुणव्रत के ५ अतिचारों पर विवेचन
योगशास्त्र तृतीय प्रकाश श्लोक ९७ करूंगा और न किसी दूसर से करवाऊंगा। इस नियम के अनुसार नियत की हुई जगह से आगे की भूमि में स्वयं तो नहीं जाता, किन्तु अगर किसी दूसरे से निर्धारित सीमा से आगे कोई वस्तु मंगवाता या भिजवाता है तो उसे अतिचार
जिसने केवल अपने लिये ही-अर्थात् में स्वयं निर्धारित सीमा का उल्लंघन नहीं करूंगा, इस प्रकार से नियम लिया है, उसे दूसरों से मर्यादित भूमि से आगे की वस्तु मंगाने, भिजवाने में दोष नहीं लगता। इस प्रकार दूसरा, तीसरा
और चौथा अतिचार हुआ। क्षेत्रवृद्धि नामक पांचवां अतिचार तब लगता है, जब श्रावक एक दिशा में निर्धारित भूमि की सीमा ज्यादा हो, उसे कम करके दूसरी अल्पभूमिनिर्धारित दिशा में अधिक दूरी तक जाता है। जैसे पूर्वदिशा में भूमि की सीमा कम करके कोई पश्चिम दिशा में बढ़ा लेता है, तो उसे यह पांचवां अतिचार लगता है। इसी प्रकार मान लो, किसी ने प्रत्येक दिशा में १०० योजन तक गमनमर्यादा की हो, वह किसी एक दिशा में सौ योजन से अधिक चला गया, इस कारण से अगर वह दूसरी दिशा में उतने योजन गमनमर्यादा में कमी करके दोनों तरफ १०० योजन का हिसाब कायम रखा है तो इस प्रकार क्षेत्रमर्यादा का उल्लंघन व्रत-सापेक्ष होने से उसे यह अतिचार लगता है। यदि बिना उपयोग से, अनजाने में क्षेत्र-मर्यादा का उल्लंघन हो जाय तो वह वापिस लौट आये, ज्ञात होते ही आगे न बढ़े, दूसरों को भी आगे न भेजे। अज्ञानता से कोई चला गया हो या खुद भी भूल से चला गया हो तो वहां जो प्राप्त किया हो, उसका त्यागकर देना चाहिए और उसके लिए मिच्छा मि दुक्कडं देकर पश्चात्ताप करना चाहिए ।।९६।। • अब भोगोपभोगपरिमाण नामक द्वितीय गुणव्रत के अतिचारों को कहते हैं।२६८। सचित्तस्तेन सम्बद्धः सम्मिश्रोऽभिषवस्तथा । दुष्पक्वाहार इत्येते, भोगोपभोगमानगाः ॥९७।।
अर्थ :- १. सचित्त अर्थात् सजीव, २. सचित्त से संबद्ध-अचित्त आहार में रहे हुए बीज, गुठली आदि सचित्त ___ . पदार्थ, ३. थोड़ा सचित्त और थोड़ा अचित्त-मिश्र आहार, ४. अनेक द्रव्यों से निर्मित मादक पदार्थ एवं
५. दुष्पक्व-आधा पका, आधा कच्चा आहार अथवा अधिक पका हुआ आहार; इन पांचों का
भोगोपभोग करना, दूसरे गुणव्रत के क्रमशः ५ अतिचार हैं ।।९।। - व्याख्या :- सचित्त का अर्थ है-चेतना सहित। यानी जो खाद्यपदार्थ सजीव हो, वह सचित्त कहलाता है। ऐसे आहार को, जो अपने आप में वनस्पतिकाय के एकेन्द्रियजीव से युक्त है, सचित्त आहार कहा जाता है। यहां प्रश्न होता है कि गृहस्थ को गेहूं आदि सचित्त पदार्थ लेकर ही उसको पकाना पड़ता है, तब वह सचित्त का त्याग कैसे कर सकेगा? इसके उत्तर में कहते हैं-यहां सचित्त आदि पांचों के साथ 'आहार' शब्द जुड़ा हुआ है; मूल श्लोक में नहीं जुड़ा है तो उसका प्रसंगवश अध्याहार कर लिया जाता है। इसलिए इस व्रत में श्रावक सचित्त का त्याग नहीं करता और न वह कर सकता है, क्योंकि सचित्त तो मिट्टी, पानी, अग्नि, फल, फूल, साग, भाजी, पत्ते सभी प्रकार के अनाज मूंग, चना आदि दालें इत्यादि सब के सब हैं। इसलिए वह सचित्त आहार का त्याग करता है। जब कभी वह आहार करता है तो सचित्त रूप में नहीं करता, अपितु अचित्त बनाकर खाता है। जिसने सचित्त-आहार का त्याग किया हो, वह यदि सचित्त रूप में किसी चीज का भक्षण करता है तो उसे आंशिक व्रतभंग होने से प्रथम अतिचार लगता है; बशर्ते कि उसने अनजाने में, बिना उपयोग के, जल्दबाजी में, सचित्त-भक्षण किया हो अथवा खाने की इच्छा की हो या खाने का उपाय किया हो। सचित्तप्रतिबद्ध आहार का मतलब है-चीज तो अचित्त हो, लेकिन उसमें सचित्त वस्तु पड़ी हो; जैसे आम आदि पके फल या खजूर, छुहारा आदि मेवे अचित्त होते हैं, लेकिन बीच में गुठली, बीज आदि पड़े होते हैं, उनमें अंकुरित होने की शक्ति होती है, इसलिए वे सचित्त होते हैं। अतः सचित्त का त्यागी जब भी पके फल आदि खाता है, तब जिनमें गुठली या बीज आदि होते हैं, उन्हें निकालकर या अग्नि या मसालों से संस्कारित करके अचित्त बनाकर खाता है। अगर सचित्तत्यागी भूल से या उपयोगशून्यता से, अनजाने में या शीघ्रता से अथवा 'इनमें से बीज आदि निकालकर खाऊंगा' ऐसा विचार करके सहसा खजूर, आम आदि पके फलों को मुंह में डाल लेता है तो सचित्तप्रतिबद्ध नामक दूसरा अतिचार लगता है। सम्मिश्र आहार का मतलब है, अचित्त वस्तु के साथ कोई सचित्त वस्तु मिली हो, जैसे गेहूं के आटे की रोटी बनी है, उसमें गेहूं के अखंड दाने पड़े हैं; जो सचित्त हैं। अथवा अचित्त जी या चावल आदि सचित्त तिल से मिश्रित हो, उसे सहसा खा ले तो सम्मिश्राहार नामक अतिचार लगता है। अथवा उबाले हुए पानी
237