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पांचवे व्रत के अतिचारों पर विवेचन
योगशास्त्र तृतीय प्रकाश श्लोक ९५ का उल्लंघन करने से पांचवें व्रत का संख्यातिक्रम अतिचार लगता है ।।९४॥
यहां शंका होती है कि व्रत में स्वीकृत की हुई मर्यादा (संख्या या परिमाण) का उल्लंघन करने पर तो व्रत ही भंग हो जाता है, तब फिर इसे अतिचार कैसे कहा गया? इसका समाधान आगे के श्लोक में करते हैं।२६६। बन्धनाद् भावतो गर्भाद्योजनाद् दानतस्तथा । प्रतिपन्नव्रतस्यैष, पञ्चधाऽपि न युज्यते ॥९५।। अर्थ :- पहले कहे अनुसार जिसने पांचवां व्रत अंगीकार किया है, उसे बंधन से, भाव से, गर्भ से, योजन से
और दान की अपेक्षा से ये पांच अतिचार लगते हैं। जिन्हें सेवन करना व्रतधारी के लिए उचित नहीं
है।।९५।। व्याख्या :- धन-धान्यादि परिग्रह की मर्यादा (संख्या) का प्रत्यक्ष उल्लंघन न करते हुए व्रतरक्षा की भावना रखता है, अपनी समझ-बूझ (सबुद्धि या सदाशय) से जो यही मानता है कि मैं व्रतभंग नहीं कर रहा हूं, उस व्रतधारी को बंधन आदि पांच कारणों से पूर्वोक्त पांच अतिचार लगते है। व्रतभंग तो तब होता, जब वह व्रतरक्षा की कोई भावना न रखता और न ही व्रतभंग नहीं कर रहा हूं, ऐसी समझ-बूझ से मर्यादातिक्रमण करता। यानी व्रतरक्षा की परवाह न करते हुए जानबूझकर मर्यादा-अतिक्रमण करता तो व्रतभंग निश्चित हो जाता। यहां तो बंधन आदि ५ कारणों से व्रतातिक्रम होता है। जैसे किसी अनाज के व्यापारी ने धन-धान्यपरिमाण नियत कर लिया उसके बाद कोई कर्जदार अपने ऋण चुकाने की दृष्टि से अनाज या धन देने आया, अथवा कोई भेंट रूप में देने आया हो, और उक्त व्यापारी यह सोचकर उसे ले लेता है, कि मेरे नियम के अनुसार इसका परिमाण बढ़ जाता है और मेरा नियम अमुक महीने तक का है; उसके बाद इसे स्वीकारकर लूंगा; अभी घर के एक कोने में या किसी अन्य व्यक्ति के यहां सुरक्षित रखवा दूंगा अथवा मेरे यहां से यह चीज कुछ बिक जायेगी, उसके बाद इसे ले लूंगा। इस मंशा से देने वाले से कहे कि 'अमुक महीने के बाद ले आना, ले लूंगा।' अथवा उस चीज को अच्छी तरह पैक करके रस्सी से बांधकर देने वाले के नाम से अमानत के तौर पर रख ले, फिर जब अपने नियम की मियाद (अवधि) पूरी हो जाय तब लेने का निश्चय करे। इस प्रकार का बंधन (शर्त या निश्चय अथवा बांध) करके निश्चित परिमाण से अधिक धन या धान्य घर में रख ले और यह माने कि 'यह तो उसका है, मेरा नहीं है; इत्यादि व्रतपालन की अपेक्षा से व्रत का सर्वथा भंग नहीं होता, लेकिन प्रथम अतिचार लगता है। इसी प्रकार कुप्य संख्या का अतिक्रम भाव से होता है; जैसे किसी सद्गृहस्थ ने यह नियम लिया कि मैं इतने से अधिक अमुक गृहोपयोगी सामान (कुप्य) नहीं रखूगा। मान लो, नियम लेने के बाद वही चीज किसी से नजराने में, इनाम में या उपहार में मिल गयी, इस कारण संख्या में दुगुनी हो गयी। अब वह अपने व्रतभंग हो जाने के डर से इस भाव से तोड़फोड़कर निश्चित संख्या की पूर्ति के लिए दो-दो को मिलाकर एक बड़ी चीज बना या बनवा लेता है, अथवा उसकी पर्याय आकृति या डिजाइन बदलकर उसकी संख्या कम कर लेता है; परंतु वास्तव में उसके मूल्यप्रमाण में वृद्धि हो जाने से व्रत का आंशिक भंग होता है। अथवा भाव से व्रतपालन का इच्छुक होने के कारण उक्त प्रमाणातिरिक्त चीजें नियमभंग हो जाने के भय से उस समय तो ग्रहण नहीं करता, लेकिन देने वाले से कहता है-अमुक समय के बाद मैं इन्हें अवश्य ले लूंगा, तब तक तुम मेरे नाम से अमानत रख देना; मेरे सिवाय दूसरे किसी को इन्हें मत देना; इस प्रकार वह दूसरे को नहीं देने की इच्छा से अपने लिये संग्रह कराता है, इस दृष्टि से उसे अतिचार लगता है। इसी तरह गाय, भैंस, घोड़ी आदि रखने की अमुक अवधि तक संख्या निश्चित की; लेकिन नियत समय के अंदर ही गाय, भैंस आदि के प्रसव हो जाने से उसकी संख्या बढ़ गयी, तो उसे इस कारण द्विपदचतुष्पदातिक्रम नामक अतिचार लगता है। किसी ने एक या दो साल के लिए गाय, भैंस आदि अमुक पशु अमुक समय तक अमुक संख्या से अधिक न रखने का नियम किया हो, फिर यह सोचे कि जितने समय तक का मेरे नियम है, उतने समय में अगर गाय, भैंस आदि के गर्भ रह गया तो मेरी नियत संख्या की मर्यादा भंग हो जायगी; अतः उन गाय, भैंस आदि को काफी अर्से के बाद गर्भधारण करावे; ऐसा करने से गर्भ में बछड़ों के आने से संख्या तो बढ़ ही जाती है, इस दृष्टि से भी अंशतः व्रतभंग होता है; किन्तु बाहर से प्रत्यक्ष में संख्यातिक्रमण नहीं दिखाई देने से वह मानता है-मेरे नियमानुसार इन पशुओं की संख्या नहीं बढ़ी; इसलिए मेरा नियम खंडित नहीं हुआ। इस अपेक्षा से भंगाभंग होने से तृतीय अतिचार
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