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पांचवे व्रत के अतिचार
योगशास्त्र तृतीय प्रकाश श्लोक ९४ नख आदि से काटना, बार-बार चुंबन करना आदि, मोहनीय कर्म के उदय से प्रबल कामवर्द्धक ऐसी चेष्टाएँ करना भी अनंगक्रीड़ा कहलाती है। अथवा मैथुन के अवयवों-पुरुषचिह्न और स्त्रीयोनि के अतिरिक्त अंगों-जांघ, स्तन, मुख, गाल, कांख, नितंब आदि में क्रीड़ा करना भी अनंग क्रीड़ा कहलाती है।
श्रावक अत्यंत पापभीरु होने से मुख्यतया ब्रह्मचर्य का ही पालन करता है। परंतु जब कभी वेदोदयवश या मोहनीयकर्मोदय के कारण काम-विकार सहने में अत्यंत असमर्थ होता है, तब केवल विकार की शांति के लिए अपनी स्त्री का सेवन करता है। अन्य सभी स्त्रियों के सेवन का तो उसके परित्याग होता ही है। मैथुनक्रिया में भी वह सूई में धागा पिरोने के न्याय की तरह ही प्रवृत्त होता है, तीव्र आसक्ति या प्रबल कामोत्तेजना के वशीभूत नहीं होता है।
न इतना संयममय होना ही चाहिए कि कामभोग की तीव्र अभिलाषा तथा अनंगक्रीड़ा से दूर रहे एवं स्वस्त्री के अतिरिक्त संसार की तमाम स्त्रियों को अपनी माता, बहन या पुत्री तुल्य समझे। जिस अतिकामचेष्टा से कोई लाभ नहीं, बल्कि समय और शक्ति का नाश होता है, धर्मबुद्धि क्षीण हो जाती है, स्मरणशक्ति लुप्त हो जाती है, कभी-कभी क्षय आदि भयंकर राजरोग भी हो जाते हैं, उससे धर्मिष्ठ श्रावक को तो ऐसे कार्यों से दूर ही रहना चाहिए। इन दोनों निषिद्ध दोषों का जानबूझकर सेवन करने से व्रतभंग हो जाता है। कितने ही आचार्यों का इन पांचों अतिचारों के विषय में उपर्युक्त कथन से अतिरिक्त मत है। वे कहते हैं-वैश्या या परस्त्री के साथ सिर्फ मैथुन-सेवन का त्याग है, आलिंगन, चुंबन आदि का तो त्याग नहीं है; यों मानकर कोई स्वदारसंतोषी या परदारात्यागी आलिंगनादि में प्रवृत्त होता है तो कथंचित् व्रतसापेक्ष होने से उस स्थिति में उसे ये दोनों अतिचार लगते हैं। इस दृष्टि से स्वदारसंतोषी को उक्त पांचों अतिचार लगते हैं, परदारावर्जक को पिछले तीन ही अतिचार लगते हैं। इसके विपरीत कितने ही आचार्य इन अतिचारों के विषय में अलग ही प्रतिपादन करते हैं। वे कहते हैं-परदारात्यागी को उक्त पांचों ही अतिचार लगते हैं। वे यो मानते हैं कि अमुक समय के लिए वेश्या को रखकर उसके साथ सहवास करने से वेश्या चूंकि परस्त्री है, इसलिए व्रतभंग होता है। लेकिन लोकव्यवहार में वेश्या परस्त्री नहीं मानी जाती; इसलिए व्रतभंग नहीं भी होता; इस तरह परदारात्यागी को भंगाभंगरूप से उक्त अतिचार लगता है। किन्तु स्वदारसंतोषी को व्रतभंग इस अपेक्षा से नहीं होता कि वह कुछ अर्से के लिए विधवा, प्रोषितभर्तृका (जिसका पति चिरकाल से परदेश में हो), पतित्यक्ता या जो अपने पति को नहीं मानती हो; ऐसी स्त्रियों को अपनी मानकर उनके साथ सहवास करता है; परंतु परदारात्यागी को ऐसी स्त्रियों से सहवास करने पर अतिचार लगता है। क्योंकि लोगों में यही समझा जाता है कि वह उसकी स्त्री है; परंतु वास्तव में उसकी स्त्री है नहीं, इसलिए पूर्ववत् अतिचार लगता है; सर्वथा व्रतभंग नहीं होता। बाकी के-परविवाहकरण, तीव्रकामाभिलाषा और अनंगक्रीडा-ये तीनों अतिचार तो दोनों को लगते हैं।
यह सब अतिचार पुरुष की अपेक्षा से कहे गये। स्त्री के संबंध में स्वपतिसंतोष, परपुरुषत्यागी इस प्रकार के दो भेद नहीं है। उसके लिए स्वपुरुष के अतिरिक्त सभी परपुरुष ही है। इसलिए उसे स्वपुरुषसंतोषव्रत ही होता है। परविवाह आदि करने पर तीन अतिचार स्वपतिसंतोषी को लगते हैं, शेष दो अतिचार अपने पति के विषय में लगते भी हैं, नहीं भी लगते। वह इस प्रकार-जैसे, किसी स्त्री की सौत हो; और उसके पति का उसके पास जाने का अमुक दिन नियत हो. तो उस दिन उसका अपना पति भी उसके लिए परपरुष है। इस दष्टि से वह अपने पति को स्वपरिणीत परुष मानकर, सौत की बारी के दिन पति के साथ सहवास करती है तो उस अपेक्षा से उसे यह अतिचार लगता है। कोई स्त्री परपुरुष के साथ सहवास की इच्छा करती है या उपाय करती है, तब तक उसे अतिक्रम, व्यतिक्रम या अतिचार रूप दोष लगते हैं. किन्त परपरुष के साथ संभोग में प्रवत्त हो जाय तो व्रतभंग हो जाता है। किसी ब्रह्मचारी (जो किसी स्त्री का भी पति नहीं है) या अपने पति से साथ भी तीव्र कामक्रीड़ा की इच्छा रूप अतिक्रम से उक्त पांचों अतिचार लगते हैं। शेष तीनों अतिचार तो पूर्वोक्त प्रकार से पुरुषों की तरह ही स्त्रियों के विषय में समझ लेने चाहिए।।१३।। ___ अब पांचवें व्रत के अतिचारों के संबंध में कहते हैं।२६५। धन-धान्यस्य कुप्यस्य गवादेः क्षेत्र-वास्तुनः । हिरण्य-हेम्नश्च सङ्ख्याऽतिक्रमोऽत्र परिग्रहे।।९४॥ अर्थ :- धन और धान्य की, गृहोपयोगी साधनों की, गाय-भैंस, दास-दासी आदि की, खेत, मकान, जमीन
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