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ब्रह्मचर्याणुव्रत के पांच अतिचारों पर विवेचन
योगशास्त्र तृतीय प्रकाश श्लोक ९३ ले लेना। यह इस भावना से करना कि सिर्फ सेंध लगाकर या जेब काटकर दूसरे की चीज ले लेना ही लोकप्रसिद्ध चोरी है, यह तो व्यापार की कला है. इस दृष्टि से व्रत-रक्षा करने में प्रयत्नशील होने से उक्त दोनों अतिचार लगते हैं। अथवा चोर को सहायता आदि देकर उक्त पांचों कार्य कराना; वैसे तो स्पष्टतः चोरी के रूप हैं, फिर भी ये कार्य असावधानी से. अज्ञानता या बेसमझी से या अनजाने हो जाय तो व्यवहार में अतिक्रम, व्यतिक्रम या अतिचार रूप दोष कहलाते हैं। राजा के नौकर आदि को ये अतिचार नहीं लगते, ऐसी बात नहीं है। पहले के दो अतिचार राजा के नौकर आदि को प्रायः लगते हैं शत्रु के (निषिद्ध) राज्य में जाना तीसरा अतिचार है, यह तब लगता है, जब कोई सामंत राजा आदि या सरकारी नौकर अपने स्वामी (राजा) के यहां नौकरी करता हुआ या उसके मातहत रहता हुआ उसके विरोधी (चाहे वह राजा हो या और कोई) की सहायता करता है, तब यह अतिचार लगता है। नाप-तौल में परिवर्तन तथा प्रतिरूपक्रिया (हेराफेरी), ये दो अतिचार पृथक्-पृथक् है। राजा भी अपने खजाने के नापतौल में परिवर्तन करावे या वस्तु में हेराफेरी करावे; तब उसे भी ये अतिचार लगते हैं। इस प्रकार अस्तेय-अणुव्रत के ये पांच अतिचार हुए।।९२।।
अब चौथे अणुव्रत के पांच अतिचार बताते हैं।२६४। इत्वरात्तागमोऽनात्तागतिरन्यविवाहनम् । मदनात्याग्रहोऽनङ्गक्रीड़ा च ब्रह्मणि स्मृताः ॥९३।। . अर्थ :- १. कुछ अर्से के लिए रखी हुई परस्त्री (रखैल) या वेश्या से संगम करना, २. जिसके साथ विवाह नहीं
हआ है. ऐसी स्त्री से सहवास करना. ३. अपने पत्रादि कटंबीजन के अतिरिक्त लोगों के विवाह करना अथवा अपनी स्त्री में संतुष्ट न होकर उसकी अनुमति के बिना तीव्रविषयाभिलाषावश दूसरी स्त्री से शादी
कर लेना, ४. कामक्रीड़ा में तीव्र अभिलाषा रखना और ५. अनंगक्रीड़ा करना; ये चौथे ब्रह्मचर्याणुव्रत ___ के ५ अतिचार कहे हैं ।।१३।।
व्याख्या :- ब्रह्मचर्याणुव्रत का स्वदारसंतोष-परदारविरमणव्रत नाम अधिक प्रचलित है। इस दृष्टि से इस व्रत के | ५ अतिचार बताये गये हैं-१. इत्त्वरात्तागम – इत्वरी शब्द का अर्थ होता है थोड़े समय के लिए रखी हुई। ऐसी स्त्री, अनेक पुरुषों के पास जाने वाली कुलटा या वेश्या होती है अथवा रखैल होती है, जिसे वेतन या किराये-भाड़े पर रखी जाती है, या फिर उसके भरण-पोषण का जिम्मा लेकर रखैल या दासी (गोली) के रूप में रखी जाती है। ऐसी स्त्री के साथ गमन करना इत्त्वरात्तागम कहलाता है। ऐसी स्त्री रखने वाला परुष अपनी दृष्टि या कल्पना से उसे अपनी पत्नी मानता है, इसलिए व्रतसापेक्षता होने से स्वदारसंतोषव्रत का भंग तो नहीं होता, किन्तु अल्पकाल के लिए स्वीकृत होने पर भी वास्तव में पराई स्त्री होने की अपेक्षा से व्रतभंग होता है। इस प्रकार इत्वरात्तागम भंगाभंगरूप प्रथम अतिचार है। २. अनात्तागम -अनात्ता का अर्थ है-अपरिग्रहीता अर्थात् जिसका किसी पुरुष के साथ पाणिग्रहण नहीं हुआ है, जिसका कोई स्वामी (पति) नहीं है, अथवा जिसे खुद ने पाणिग्रहण करके स्वीकार नहीं किया है। ऐसी स्त्री कुंवारी कन्या, विधवा, वेश्या, स्वच्छंदाचारिणी (कुलटा) या पति त्यक्ता कुलवती आदि में से कोई भी हो सकती है; अतः ऐसी अपरिगृहीत स्त्री के साथ संभोग करना द्वितीय अतिचार है। बेसमझी से, अज्ञानता या प्रमाद से, अतिक्रम आदि होने से यह अतिचार लगता है, परंतु परादारात्यागी को ये दोनों अतिचार इसलिए नहीं लगते कि वेश्या या कन्या अथवा विधवा के उस समय कोई पति (स्वामी) नहीं होता। वेश्या या कुलटा के तो कोई पति होता ही नहीं। और फिर थोड़े समय के लिए वह उसे अपनी पत्नी के रूप में स्वीकारकर लेता है। शेष अतिचार उक्त दोनों को लगते हैं। स्वदारासंतोषव्रती के लिए ये पांचों अतिचार जानने योग्य हैं, आचरण करने योग्य नहीं। इस विषय में अन्य आचार्यों का मत यह है कि ये दोनों अतिचार उक्त दोनों प्रकार के पुरुषों को लगते हैं; क्योंकि स्वदारसंतोषी किसी स्त्री (वेश्या आदि) को थोड़े समय के लिए रखकर उसे सेवन करे तो उसे अतिचार लगता है, यह तो स्पष्ट है। लेकिन पतिविहीन स्त्री के साथ संगम करने से परदारात्यागी को भी अतिचार यों लगता है कि वेश्या आदि पति-रहित होती है, और उसे थोड़े समय के लिए स्त्री बनाकर अपने पास रखता है। उसके बाद वह दूसरे के पास जाती है, तब दूसरे की स्त्री बन जाती है, इस दृष्टि से वेश्या आदि कथंचित् परस्त्री होने से व्रतभंग होता है और वस्तुतः परस्त्री न होने से व्रतभंग नहीं होता। इस तरह भंगाभंगरूप, दूसरा अतिचार स्वदारसंतोषी और परदारत्यागी दोनों को लगता है। ३. परविवाह- अपने पुत्र-पुत्री आदि के सिवाय दूसरे के पुत्र-पुत्री आदि का विवाह करने से अथवा कन्यादान के फल पाने की इच्छा से या
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